स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू केवल एक राजनीतिज्ञ ही नहीं थे, अपितु वे एक बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न महान पुरुष थे। वे एक अनूठे चिंतक भी थे।
मानवीय संवेदनाओं से भरपूर यह
व्यक्तित्व भारत के लोगों का ही नहीं, दुनिया के लोगों का भी अभूतपूर्व प्यार और
सम्मान पा सका। भारत ने तो उन्हें राष्ट्र के सर्वोच्च सम्मान 'भारत
रत्न' से अलंकृत किया। विश्व ने उन्हें एक महान
राजनीतिज्ञ एवं मानवतावादी माना।
भारतीय क्षितिज पर एक लम्बे समय तक
अपनी आभा फैलाए हुए यह नक्षत्र स्वतंत्र चिंतन के क्षेत्र में भी अपनी अमिट छाप
छोड़ गया। भारतीय राजनीतिक एवं सामाजिक चिंतन के इतिहास में उन्होंने अपना अमर
स्थान बना लिया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण उनके चिंतन की विशिष्टता थी।
भारत लौटकर उन्होंने इलाहाबाद में बैरिस्टर के
रूप में अपनी प्रेक्टिस प्रारम्भ कर दी। इसी समय वे एनी बीसेण्ट के सम्पर्क में आए
और उन्होंने होमरूल लीग में भाग लिया। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में उनकी मुलाकात गांधीजी
से हुई। उसी वर्ष उनका विवाह हो गया और 1917 में उन्हें पुत्री की प्राप्ति हुई जोकि
इंदिरा प्रियदर्शनी के नाम से उनके परिवार को सुशोभित करती रही और बाद में लम्बे
समय तक भारत की प्रधानमंत्री रही।
उसके पश्चात के अनेक आन्दोलनों में नेहरू सक्रिय रूप से भाग लेते रहे। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई बार अध्यक्ष चुने गए और 27 मई 1964 को उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु होने से पूर्व तक वे प्रधानमंत्री पद पर बने रहे।
गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा जाता है तो नेहरू जी को आधुनिक भारत का निर्माता माना जाता है। उन्होंने भारत में लोकतंत्र को सबल बनाने में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया और वे निरन्तर सभी को मानवीय प्रतिष्ठा और समानता प्रदान करने के लिए अथक प्रयास करते रहे। उन्होंने भारतीय जनमानस को राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक ठहराव के दलदल से बाहर निकाला और उन्हें प्रगतिशील मार्ग पर अग्रसर किया। आर्थिक क्षेत्र में तो उनका योगदान अत्यन्त ही विशिष्ट है।
उन्होंने अपने समस्त जीवन को विश्व के विभिन्न देशों के बीच मैत्री और सहयोग को सबल बनाने की लड़ाई में लगाया। यही कारण था कि समस्त विश्व उन्हें मानवता का मित्र मानता था। उन्होंने ध्येयनिष्ठ जीवन बिताया और अन्तिम सांस तक उस ध्येय को पूरा करने का प्रयास करते रहे।
क्या सही है, क्या गलत है, इसकी कसौटी उनके लिए मानवता का हित था। राज्य, शासन, नीति और धर्म के सम्बन्ध में वे घिसे-पिटे सिद्धान्त से प्रेरित न होकर मानव हित की चिंता से अनुप्राणित थे। जैसा कि फ्रोफेसर एम.एन. दास कहते हैं, ''उनका मानवतावाद और उदारतावाद व्यक्ति के प्रति आन्तरिक सम्मान की भावना से पोषित है
'' His humanism and liberality are fostered by an inner respect for the individual self .
तब तो वे धार्मिक बिल्कुल नहीं थे। किन्तु वास्तविकता यह है कि धर्म का अर्थ यह नहीं। यदि धर्म का अर्थ विश्व के नैतिक शासन में विश्वास और मानवमात्र की सेवा है तो वे निश्चित रूप से धार्मिक व्यक्ति थे। केवल रीति-रिवाजों को निभाना, पूजा आदि करना, यह सब कुछ उनको पसन्द नहीं था।
नेहरू के अनुसार वास्तविक रूप से धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नहीं है। धर्म को विज्ञान का आवरण पहनना होगा और वैज्ञानिक भावना से अपनी समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण अपनाना होगा। हम में से अधिकतर लोगों के लिए तो धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाना पर्याप्त है। यह नेहरू ने 'यूनिटी ऑफ इंडिया' में लिखा था।
गांधीजी की भाँति उन्होंने सत्य को ईश्वर का पर्याय नहीं समझा। उनकी सत्य की खोज विज्ञान, ज्ञान और अनुभव से अनुप्राणित थी। सत्य को शिव और सुन्दर के तुल्य समझा जा सकता था। वे सत्य को विकासशील मानते थे न कि स्थिर, इसको जीवन दायिनी संवेग समझते थे न कि कोई मृत विचार या पाखण्ड या आडम्बर जो मन और मानवता के विकास में बाधा बने।
जो सम्बन्ध बीज और वृक्ष में है, वही साधन और साध्य में है। गांधीजी का यह विचार नेहरू द्वारा पूरी तरह समर्थिक था। राजनीति के भंवरजाल में भी अच्छे साध्य हेतु अच्छे साधनों का प्रयोग नेहरू ने कभी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया। उनका मैकियावली के इस कथन में कि साध्य साधन का औचित्य ठहराता है, विश्वास नहीं था।
'' अच्छे साध्य के लिए अच्छे साधनों के सिद्धान्त में विश्वास नेहरूजी किसी दार्शनिक या धार्मिक दृष्टिकोण से नहीं करते थे। अपितु समस्या के प्रति अपना वैज्ञानिक मस्तिष्क लगाकर इस सिद्धान्त की सार्थकता से संतुष्ट थे। वे आश्वस्त थे कि यदि कोई व्यक्ति सही काम करता है तो परिणाम भी अच्छे होंगे और गलत कार्य का गलत परिणाम होना भी अप्रत्याशित नहीं। इसी कारण नेहरू जी नैतिक दृष्टिकोण को ही जीवन की समस्याओं से जूझने के लिए सही दृष्टिकोण मानते थे।
फिर भी नेहरू ने लोकतंत्र को परिभाषित नहीं किया, क्योंकि उन्होंने अनुभव किया कि किसी चीज को परिभाषित करना उसे सीमित कर देना है। उनके लिए लोकतंत्र स्थिर चीज न होकर एक गतिशील एवं विकासशील चीज थी, और ज्यों-ज्यों यह बदलता है त्यों-त्यों यह और अधिक व्यापक होता जाता है। नेहरू के लिए जनता सर्वोच्च थी। किसी भी शासन पद्धति को जो लोकतंत्र होने का दावा करती है, लोगों के कल्याण और सुख का ध्यान होना चाहिए। वे लोकतंत्र को जनता की स्वतन्त्रता जनता की समानता, जनता का भ्रातृत्व एवं जनता की सर्वोच्चता समझते थे।
एक बार जब उनसे पूछा गया कि आपकी कितनी समस्याएँ है, तो उनका उत्तर था 360 मिलियन समस्याएँ, जिसका अभिप्राय यह था कि उस समय देश की आबादी 360 मिलियन थी और नेहरूजी को 360 मिलियन लोगों में से प्रत्येक की समस्याओं का अहसास था। उनका कहना था कि हमें व्यक्तियों के संदर्भ में सोचना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति के सुख और प्रत्येक व्यक्ति के दुःख के सन्दर्भ में सोचना चाहिए। जे. एस. मिल और लॉक की भांति नेहरू जी अद्वितीय व्यक्तिवादी थे।
पाँच अनिवार्यताओं पर जोर देते थे, जोकि इस प्रकार है-
No.-1. जागरूक जनमत की पृष्ठभूमि
No.-2. नागरिकों में उत्तरदायित्व की भावना
No.-3. समुदाय का आत्म-अनुशासन
No.-4.दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता, विशेषता
जो अपने विचारों से विरोधी विचार हों, तथा
No.-5.समाज की भौतिक समृद्धि।
यह एक जीवन दर्शन है इसलिए यह मुझे अपील करता
है। ''नेहरू का इस प्रकार, समाजवाद
में विश्वास विकसित होता गया। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि तीव्र बेरोजगारी, शोषण
एवं जनमानस की दासता का अन्त समाजवाद के माध्यम से किया जा सकता है, किन्तु
नेहरू का समाजवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता का विरोधी नहीं है। अन्य समाजवादियों की
भाँति नेहरू नहीं मानते कि समाजवाद और व्यक्तिवाद साथ-साथ नहीं चल सकते।
जहाँ तक समाजवाद के स्वरूप का प्रश्न है नेहरूजी समाज के समाजवादी ढाँचे की स्थापना के पक्षधर थे, जिसमें सबके लिए अवसर की समानता हो और एक अच्छा जीवन जीने के लिए सम्भावना। उनका कहना था कि हमें समानता पर जोर देना है।
असमानताओं के निवारण का कार्य करना है, किन्तु यह भी स्मरण रखना है कि समाजवाद
निर्धनता का विस्तार नहीं है। अनिवार्य बात यह है कि धन और उत्पादन यथेष्ट मात्रा
में होने चाहिए।
नेहरू के समाजवाद में घृणास्पद बातें थीं। समाजवाद लाने के लिए शान्ति के साधनों का प्रयोग करने का समर्थन एवं समाज में न्याय पर आधारित जीवन यापन की व्यवस्थाओं की वकालत ने नेहरू के समाजवादी आदर्श को विश्वसनीयता प्रदान की।
निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि नेहरू जी एक सर्वप्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। राजनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री, चिंतक, साहित्यकार आदि सभी का समावेश उनके धनी व्यक्तित्व में था।
उनकी बहुमुखी प्रतिभा उनकी
स्वाभाविक उदारता में सोने में सुगन्ध का कार्य करती थी। निश्चय ही वे भारत के देश
रत्न थे।
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