सरहुल उराँव नामक आदिवासियों का सबसे बड़ा त्योहार है। यह त्योहार कृषि आरंभ करने का त्योहार है। इस त्योहार को 'सरना' के सम्मान में मनाया जाता है। सरना वह पवित्र कुंज है, जिसमें कुछ शालवृक्ष होते हैं। यह पूजन-स्थान का कार्य करता है। निश्चित दिन गाँव का पुरोहित, जिसे पाहन कहते हैं, सरना-पूजन करता है। इस अवसर पर मुर्गे की बलि दी जाती है तथा हँड़िया (चावल से बनाया गया मद्य) का अर्घ्य दिया जाता है।
मकानों की सजावट के लिए दीवारों पर हाथी-घोड़ों, फूल-फल आदि के रंग-बिरंगे चित्र बनाते हैं। इनकी कलाप्रियता देखते ही बनती है। जिधर देखिए उधर ही चहल-पहल है, आनंद-उछाल है, मौज-मस्ती है। इस दिन खा-पीकर, मस्त होकर घंटो तक इनका नाचना-गाना अविराम चलता है। लगता है, जीवन में उल्लास-ही-उल्लास है, सुख-ही-सुख है। ऐसे अवसर पर गौतम बुद्ध भी इन लोगों के बीच आयें, तो उन्हें लगे कि न जीवन में दुःख है, न शोक है, न रोग है, न बुढ़ापा है, न उद्वेग है, न मृत्यु ही।
जो कुछ सुख है, बस वह इस मिट्टी के जीवन में है और उस सुख की एक-एक बूँद निचोड़ लेना ही जैसे इनका लक्ष्य हो।
नाच-गान से गाँव-गाँव, गली-गली, डगर-डगर
का वातावरण झमक उठता है। इस अवसर पर युवक-युवतियाँ नगाड़े, मृदंग
और बाँसुरी पर थिरक-थिरककर नाचते है और आनंद-विभोर हो उठते हैं। नृत्य के इन मधुमय
ताजा टटके गीतों में से एक बानगी लें-
फागु चाँदो दुलम रे नाद नौर
भर चाँदो चाँदो रे नाद नौर
मिरिम चाँदो हो-सोड ले-उना।
ख़ैया से-डोय हियो रे नाद नौर
खड़ों ने-डोय हियो रे नाद नौर
भर चाँदो चाँदो रे नाद नौर
मिरिम चाँदो हो-सोड ले-उना।
बंडी खरेन पिटोय रे नाद नौर
बूचा हाँडी: तदौय रे नाद नौर
भर चाँदो चाँदो रे नाद नौर
मिरिम चाँदो हो-सोड ले-उना।
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