इस महान राष्ट्र का प्रत्येक अंचल और उसका कण-कण कराह उठा। अपने राष्ट्रपुरुष अपने हृदय की अमूल्य निधि पं. नेहरू के महानिर्वाण के हृदय विदारक सन्देश को सुनकर देश के बाल, वृद्ध नर-नारियाँ सिसकियाँ भरते और गहरी आह भरकर एक दूसरे की ओर देखकर धीरे से कहते ''अब क्या होगा इस विशाल देश का ? पण्डितजी की पवित्र आत्मा हमारा पथ प्रदर्शन करेंगी, कहकर जनता ने अपने आंसू धीरे से पोंछकर देश की बागडोर पण्डितजी के भोले अनुयायी श्री लालबहादुर जी के हाथों में थमा दी। अकाल और भुखमरी की आँखें युद्ध की गर्जना से कुछ क्षणों के लिए दब सी गयी।
दैव के क्रूर हाथ आगे बढ़े और शास्त्री जी को भी देशवासियों के बीच से सहसा उठा लिया। पण्डित जी के जीवनकाल में विदेशों के कूटनीतिज्ञ एवं संवाददाता उनसे प्रायः पूछ बैठते। आपके बाद कौन ? पं. जी मौन होकर मुस्करा भर देते।
आज उसी प्रश्न का उत्तर उनकी साकार आत्मा इन्दिराजी के रूप में हमारे सामने है। यह उस युग पुरुष की दूरदर्शिता एवं सूक्ष्म सूझ-बूझ का ही परिणाम है। इन्दिराजी का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जबकि ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अपने पूर्ण यौवन के साथ भारत में चमक रहा था। देश भक्ति की बातें करना देशद्रोह समझा जाता था, फिर भी भारत माँ के सपूत स्वतन्त्रता के संघर्ष में तन, मन, धन से लगे हुए थे।
आनन्द भवन के इसी उन्मुक्त वातावरण में इन्दिरा जी का जन्म 19 नवम्बर 1917 को हुआ था। जन्म के समय श्रीमती सरोजनी नायडू ने एक तार भेजकर कहा था- वह भारत की नई आत्मा है।
पं. नेहरू कारागार में बन्द कर दिये जाते और यदि बाहर रहते तब भी कांग्रेस और आजादी के कामों में दिन और रात व्यस्त रहते, परन्तु वे सदैव योग्य पिता के समान अपनी पुत्री के लालन-पालन पर पूरा-पूरा ध्यान देते। इन्दिरा प्रियदर्शिनी की आरम्भिक शिक्षा स्विटजरलैंड में हुई।
इसके पश्चात वे अपने अध्ययन के लिए शान्ति निकेतन में आ गयी। शान्तिनिकेतन से इन्दिरा जी के विदा होते समय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने नेहरूजी को पत्र में लिखा था- हमने भारी मन से इन्दिरा को विदा किया है।
वह इस स्थान की शोभा थी। मैंने उसे निकट से देखा है और आपने जिस प्रकार उसका लालन-पालन किया है, उसकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जा सकता। शान्तिनिकेतन के बाद वह ऑक्सफोर्ड के समर विले कॉलिज गयी और वहाँ शिक्षा प्राप्त की।
सन् 1942 में इन्दिरा का विवाह फिरोज गाँधी के साथ
सम्पन्न हुआ और उसके कुछ दिनों बाद दम्पति को स्वाधीनता आन्दोलन में जेल जाना पड़ा।
जेल छूटने के बाद वे उत्साह से समाज सेवा के कार्यो में लग गई।1946
में पण्डित नेहरू वायसराय की काउन्सिल के उपाध्यक्ष बनकर दिल्ली आ गये। इन्दिराजी
भी उनके साथ दिल्ली आ गई।
राष्ट्र के संकट के क्षणों में
इन्दिराजी कभी पीछे नहीं हटीं। वे सदैव आगे रहीं और अपने को समस्याओं के हल करने
में जुटा दिया। देश के विभाजन के समय सन् 1947 में पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को
सुख-सुविधा प्रदान करने के लिये उन्होंने किस तरह कार्य किया, वह
किसी से छिपा नहीं। 1955 में उन्हें कांग्रेस की कार्य समिति में
सम्मलिति किया गया और अपने त्याग एवं तपस्या के चार वर्ष बाद ही वे अखिल भारतीय
कांग्रेस की अध्यक्ष बन गई।
सन् 1962 में जब चीन ने विश्वासघात करके भारत पर आक्रमण
किया तब देश के कर्णधारों की स्वर्णदान की पुकार पर वह प्रथम भारतीय महिला थीं
जिन्होंने अपने समस्त पैतृक स्वर्ण आभूषणों को देश की बलि वेदी पर चढ़ा दिया था। इन
आभूषणों में न जाने कितनी जीवन की मधुरिम स्मृतियाँ जुड़ी थीं और इन्हें संजोए
इन्दिराजी कभी-कभी प्रसन्न हो उठती थी।
1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर अपना बर्बर
आक्रमण किया तब इन्दिराजी ने राष्ट्र की सेवा में अपना दिन रात एक कर दिया। वे
भारतीय वीर जवानों के उत्साहवर्द्धन एवं सांत्वना देने के लिये युद्ध के अन्तिम
मोर्चे तक निर्भीक होकर गई।
श्री कामराज,
श्री मोरारजी देसाई तथा श्रीमती
इन्दिरा गाँधी तथा अन्य नेताओं के प्रयास से चुनाव का संकट टल गया। श्री मोरजी
देसाई ने उपप्रधानमंत्री एवं वित्तमंत्री का पद स्वीकार कर लिया और श्रीमती
इन्दिरा जी निर्विरोध रूप से संसदीय दल की नेता चुन ली गई। उन्होंने प्रधानमंत्री
पद सम्भाल कर देश को एक नया मन्त्रिमण्डल दिया।
दिसम्बर 1971 के बाद भारत पाकिस्तान युद्ध में भारत की अद्वितीय विजय के साथ-साथ विश्व राजनीति पर हावी होना तथा बंगलादेश के नवनिर्माण एवं उसकी रक्षा ने इन्दिरा जी की गौरवपूर्ण यशोगाथा को ऐतिहासिक बना दिया है।
इससे भी अधिक ऐतिहासिक इलाहाबाद उच्च न्यायालय का 12 जून 1975 का वह निर्णय है। जिसमें श्रीमती गाँधी का 1971 का वह निर्णय है। जिसमें श्रीमती गाँधी का 1971 का लोकसभा की सदस्यता का चुनाव अवैध घोषित किया गया।
श्रीमती गाँधी ने जन-जन के कल्याण के लिए ही तुरन्त ही 20 सूत्री आर्थिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया और उस पर दृढ़ता से अमल कराया गया। देश में अनुशासन जागा। सामाजिक व्यवस्थायें नियन्त्रित हुई और गरीब मुस्करा उठा।
दृढ़ता, निर्भीकता और अजेयता से परिपूर्ण श्रीमती गाँधी का व्यक्तित्व विश्व के इतिहास में निश्चय ही अद्वितीय है। धर्मान्धता या स्वार्थान्धता मनुष्य को नितान्त अन्धा बना देती है। उसे न आगे दीखता है और न पीछे।
योग्य डॉक्टरों के अथक प्रयास भी श्रीमती गाँधी को न बचा सके। अन्तिम दर्शनों के लिए तीन मूर्ति भवन तीन दिनों तक खुला रहा और जनता की आँखें आंसू बरसातीं रह गई।
याद करेगा भारत का बलिदान तुम्हें।
याद रहेगा महाकाल का रूप तुम्हारा।
याद रहेगा शत्रु विमर्दन काम तुम्हारा।
No comments:
Post a Comment