भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जनमानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपने रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक है भगतसिंह।
इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में ख़ुशी
और भी बढ़ गई थी। यही सब देखते हुए भगतसिंह की दादी न बच्चे का नाम भाग वाला (अच्छे
भाग्य वाला) रखा। बाद में उन्हें भगतसिंह कहा जाने लगा। एक देशभक्त के परिवार में
जन्म लेने के कारण भगतसिंह को देशभक्ति और स्वतंत्रता का पाठ विरासत में पढ़ने को
मिल गया था।
वे कक्षा छोड़कर खुले मैदानों में घूमने निकल
जाते थे। वे खुले मैदानों की तरह ही आजाद होना चाहते थे। प्राइमरी शिक्षा पूर्ण
करने के पश्चात भगत सिंह को 1916-17 में लाहौर के डी. ए.वी.स्कूल में दाखिला
दिलाया गया। वहाँ उनका सम्पर्क लाला लाजपतराय और सूफी अम्बा प्रसाद जैसे देश
भक्तों से हुआ।
13 अप्रैल,
191काण्ड 9 में रोलेट एक्ट के विरोध में सम्पूर्ण
भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इन्ही दिनों जालियांवाला बाग काण्ड हुआ। इस काण्ड
का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुँचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के
प्रति श्रद्धांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे
हमेशा यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है।
पंजाब नेशनल कॉलेज में उनकी देशभक्ति की भावना फूलने-फलने लगी। इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रान्तिकारियों से सम्पर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इस क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्ति पूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया। ये नाटक थे 'राणा प्रताप', 'भारत दुर्दशा' और 'सम्राट चन्द्रगुप्त'।
भीड़ बढ़ती जा रही थी। इतने व्यापक विरोध को देखकर
सहायक अधीक्षक साण्डर्स जैसे पागल हो गया था उसने लाठी चार्ज करवा दिया। लाला
लाजपतराय पर लाठी के अनेक वार किए गए। वे खून से लहूलुहान हो गए। भगतसिंह यह सब
कुछ अपनी आँखों से देख रहे थे। 17 नवम्बर,
1928 को लालाजी का देहान्त हो गया। भगतसिंह
का खून खौल उठा। वे बदला लेने के लिए तत्पर हो गए।
इस कार्य को करने के लिए भगतसिंह अड़ गए कि वह
स्वयं यह कार्य करेंगे। आजाद इसके विरुद्ध थे,
परन्तु विवश होकर आजाद को भगतसिंह का
निर्णय स्वीकार करना पड़ा। भगतसिंह के सहायक बने बटुकेश्वर दत्त।
इसलिए इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुद्ध लाहौर हाईकोर्ट में अपील की। यहाँ भगतसिंह ने पुनः अपना भाषण दिया। 13 जनवरी, 1930 को हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया।
इसी बीच आजाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई, परन्तु 28 मई को भगवतीचरण बोहरा, जो बम का परीक्षण कर रहे थे, वे घायल हो गए तथा उनकी मृत्यु हो जाने के बाद योजना सफल नहीं हो सकी। अदालत की कार्यवाही लगभग तीन महीने तक चलती रही।
26 अगस्त,
1930 को अदालत का कार्य लगभग पूरा हो गया
था। अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 301
तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के
अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया तथा 7 अक्टूबर,
1930 को 68 पृष्ठीय निर्णय दिया, जिसमें
भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरू को फांसी की सजा दी गई।
लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। इस निर्णय के विरुद्ध नवम्बर 1930 में प्रिवी, परिषद् में अपील दायर की गई, परन्तु यह अपील 10 जनवरी 1931 को रद्द कर दी गई।
फांसी का समय प्रातः काल 24
मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था, पर
सरकार ने भय के मारे 23 मार्च को सायंकाल 7.33
बजे, उन्हें कानून के विरुद्ध एक दिन पहले, प्रातः
काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रान्तिकारियों को एक साथ फाँसी देने का
निश्चय किया।
जेल अधीक्षक जब फांसी लगाने के भगतसिंह को लेने उनकी कोठरी में पहुँचा तो उसने कहा, ''सरदार जी ! फांसी का वक्त हो गया है, आप तैयार हो जाइए'' उस समय भगतसिंह लेनिन के जीवन चरित्र को पढ़ने में तल्लीन थे। उन्होंने कहा, ''ठहरो ! एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी से मिल रहा है, और वे जेल अधीक्षक के साथ चल दिए।
मेरी मिट्टी से भी खुश्बू-ए-वतन आएगी'
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