आदिकाल (650 ई०-1350 ई०)
No.-1.
हिन्दी साहित्येतिहास के विभिन्न कालों
के नामकरण का प्रथम श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को है।
हिन्दी साहित्येतिहास के आरंभिक काल के
नामकरण का प्रश्न विवादास्पद है। इस काल को ग्रियर्सन ने 'चरण
काल', मिश्र बंधु ने 'प्रारंभिक काल', महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने 'बीज वपन काल', शुक्ल ने 'आदिकाल:
वीर गाथाकाल', राहुल सांकृत्यायन ने 'सिद्ध-
सामंत काल', राम कुमार वर्मा ने 'संधिकाल' व 'चारण
काल', हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'आदिकाल' की
संज्ञा दी है।
आदिकाल में तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ
मिलती है- धार्मिकता, वीरगाथात्मकता व श्रृंगारिकता।
प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ : रासो काव्य, कीर्तिलता
, कीर्तिपताका
इत्यादि।
मुक्तक काव्यकृतियाँ : खुसरो की
पहेलियाँ, सिद्धों-नाथों की रचनाएँ, विद्यापति
की पदावली इत्यादि।
विद्यापति ने 'कीर्तिलता' व 'कीर्तिपताका' की
रचना अवहट्ट में और 'पदावली'
की रचना मैथली में की।
आदिकाल में दो शैलियाँ मिलती हैं डिंगल
व पिंगल। डिंगल शैली में कर्कश शब्दावलियों का प्रयोग होता है जबकि पिंगल शैली में
कर्णप्रिय शब्दावलियों की। कर्कश शब्दावलियों के कारण डिंगल शैली अलोकप्रिय होती
चली गई। जबकि कर्णप्रिय शब्दावलियों के कारण पिंगल शैली लोकप्रिय होती चली गई और
आगे चलकर इसका ब्रजभाषा में विगलन हो गया।
'पृथ्वी राज रासो' कथानक रूढ़ियों का कोश है। [(कथानक रूढ़ि
(Motiff)- एक प्रकार का प्रतीक जिसके साथ एक पूरी की पूरी
कथा जुड़ी हो)]
अपभ्रंश में 15
मात्राओं का एक 'चउपई' छंद मिलता है। हिन्दी ने चउपई में एक मात्रा
बढ़ाकर 'चौपाई' के रूप में अपनाया अर्थात चौपाई 16
मात्राओं का छंद है।
आदिकाल में 'आल्हा' छंद
(31
मात्रा) बहुत प्रचलित था। यह वीर रस का बड़ा ही लोकप्रिय छंद था।
दोहा, रासा, तोमर, नाराच, पद्धति, पज्झटिका, अरिल्ल
आदि छंदों का प्रयोग आदिकाल में मिलता है।
चौपाई के साथ दोहा रखने की पद्धति 'कडवक' कहलाती
है। कडवक का प्रयोग आगे चलकर भक्ति काल में जायसी और तुलसी ने किया।
अमीर खुसरो को 'हिन्द-इस्लामी
समन्वित संस्कृति का प्रथम प्रतिनिधि' कहा जाता है।
आदिकालीन साहित्य के तीन सर्वप्रमुख
रूप है- सिद्ध-साहित्य, नाथ-साहित्य एवं रासो साहित्य।
सिद्धों द्वारा जनभाषा में लिखित
साहित्य को 'सिद्ध-साहित्य' कहा जाता है। यह साहित्य बौद्ध धर्म के
वज्रयान शाखा का प्रचार करने हेतु रचा गया।
सिद्धों की संख्या 84
मानी जाती है। तांत्रिक क्रियाओं में आस्था तथा मंत्र द्वारा सिद्धि चाहने के कारण
इन्हें 'सिद्ध' कहा गया। 84 सिद्धों में सरहपा, शबरपा, कण्हपा, लुइपा, डोम्भिपा, कुक्कुरिपा
आदि प्रमुख हैं। सरहपा प्रथम सिद्ध है। इन्हें सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है।
सिद्ध कवियों की रचनाएँ दो रूपों में
मिलती है 'दोहा कोष'
और 'चर्यापद' । सिद्धाचार्यों द्वारा रचित दोहों का
संग्रह 'दोहा कोष'
के नाम से तथा उनके द्वारा रचित पद 'चर्या
पद' के नाम से प्रसिद्ध है।
सिद्ध-साहित्य की भाषा को अपभ्रंश एवं
हिन्दी के संधि काल की भाषा मानी जाती है इसलिए इसे 'संधा' या 'संध्या' भाषा
का नाम दिया जाता है।
10 वीं सदी के अंत में शैव धर्म एक नये रूप में
आरंभ हुआ जिसे 'योगिनी कौल मार्ग', 'नाथ
पंथ' या 'हठयोग' कहा गया। इसका उदय बौद्ध-सिद्धों की वाममार्गी
भोग-प्रधान योगधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।
अनुश्रुति के अनुसार 9
नाथ हैं- आदि नाथ (शिव), जलंधर नाथ,
मछंदर नाथ, गोरखनाथ, गैनी
नाथ, निवृति नाथ आदि। लेकिन नाथ-साहित्य के प्रवर्तक
गोरखनाथ ही थे।
बौद्ध-सिद्धों की वाणी में पूर्वीपन का
पुट है तो शैव-नाथों की वाणी में पश्चिमीपन का।
'रासो' शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है।
रासो-काव्य को मुख्यतः 3 वर्गों में बाँटा जाता है-
No.-1. वीर
गाथात्मक रासो काव्य : पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, खुमाण रासो, परमाल
रासो, विजयपाल रासो।
No.-2. शृंगारपरक
रासो काव्य : बीसल देव रासो, सन्देश रासक, मुंज रासो।
No.-3. धार्मिक
व उपदेशमूलक रासो काव्य : उपदेश रसायन रास,
चन्दनबाला रस, स्थूलिभद्र
रास, भरतेश्वर बाहुबलि रास, रेवन्तगिरि
रास।
पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई) : रासो
काव्य परंपरा का प्रतिनिधि व सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ, आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ, काव्य-रूप-प्रबंध, रस-वीर
व श्रृंगार, अलंकार- अनुप्रास व यमक (चंदबरदाई के प्रिय), छंद-
विविध छंद (लगभग 68), गुण-ओज व माधुर्य, भाषा-राजस्थानी
मिश्रित ब्रजभाषा, शैली-पिंगल।
पृथ्वीराज रासो में चौहान शासक
पृथ्वीराज के अनेक युद्धों और विवाहों का सजीव चित्रण हुआ है।
पृथ्वीराज रासो एक अर्द्धप्रामाणिक
रचना है।
परमाल रासो (जगनिक) : मूल रूप से
उपलब्ध नहीं है लेकिन इसका एक अंश उपलब्ध है जिसे 'आल्हा खंड' कहा
जाता है। इसका छंद आल्हा या वीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
संदेश रासक (अब्दुल रहमान) : एक विरह
काव्य है।
रासो काव्य की सामान्य विशेषताएँ :
No.-1. ऐतिहासिकता
व कल्पना का सम्मिश्रण
No.-2. प्रशस्ति
काव्य
No.-3. युद्ध
व प्रेम का वर्णन
No.-4. वैविध्यपूर्ण
भाषा
No.-5. डिंगल-पिंगल
शैली का प्रयोग
No.-6. छंदों
का बहुमुखी प्रयोग
चंदबरदाई दिल्ली के चौहान शासक पृथ्वी
राज-III चौहान के सामंत व राजकवि थे।
अमीर खुसरो का मूल नाम अबुल हसन था।
दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खल्जी ने उनकी कविता से खुश होकर उन्हें 'अमीर' का
ख़िताब दिया और 'खुसरो' उनका तखल्लुस (उपनाम) था। इस प्रकार वे बन
गए-अमीर खुसरो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत एवं हिन्दी के विद्वान थे।
उन्होंने फारसी में ऐतिहासिक-साहित्यिक पुस्तकें लिखीं, व्रजभाषा
में गीतों-कव्वालियों की रचना की और खड़ी बोली में पहेलियाँ-मुकरियाँ बुझाई। संगीत
के क्षेत्र में उन्हें कव्वाली, तराना गायन शैली एवं सितार वाद्य यंत्र का जन्मदाता
माना जाता है।
विद्यापति बिहार के दरभंगा जिले के
बिसफी गाँव रहनेवाले थे। उन्हें मिथिला के महाराजा कीर्ति सिंह और शिव सिंह का
संरक्षण प्राप्त था।
जिस रचना के कारण विद्यापति 'मैथिल
कोकिल' कहलाए वह उनकी मैथिली में रचित 'पदावली' है।
यह मुक्तक काव्य है और इसमें पदों का संकलन है। पूरी पदावली भक्ति व श्रृंगार की
धूपछांही है।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
भल्ला हुआ जो मारिया बहिणी म्हारा
कंतु/लज्जेजंतु वयस्सयहु जइ भग्गा घरु एंतु (अच्छा हुआ जो मेरा पति युद्ध में मारा
गया; हे बहिन ! यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी
समवयस्काओं (सहेलियों) के सम्मुख लज्जित होती।) -हेमचंद्र
बालचंद्र विज्जवि भाषा/दुनु नहीं लग्यै
दुजन भाषा (जिस तरह बाल चंद्रमा निर्दोष है उसी तरह विद्यापति की भाषा; दोनों
का दुर्जन उपहास नहीं कर सकते) -विद्यापति
षटभाषा पुराणं च कुराणंग कथित मया
(मैंने अपनी रचना षटभाषा में की है और इसकी प्रेरणा पुराण व कुरान दोनों से ली है)
-चंदरबरदाई
'मैंने एक बूंद चखी है और पाया है कि घाटियों
में खोया हुआ पक्षी अब तक महानदी के विस्तार से अपरिचित था' (संस्कृत
साहित्य के संबंध में) -अमीर खुसरो
पंडिअ सअल सत्य वक्खाणअ/देहहिं बुद्ध
बसन्त न जाणअ। [पंडित सभी शास्त्रों का बखान करते हैं परन्तु देह में बसने वाले
बुद्ध (ब्रह्म) को नहीं जानते।] -सरहपा
जोइ जोइ पिण्डे सोई ब्रह्माण्डे (जो
शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में है) -गोरखनाथ
गगन मंडल मैं ऊँधा कूबा, वहाँ
अमृत का बासा/सगुरा होइ सु भरि-भरि पीवै, निगुरा जाइ पियासा -गोरखनाथ
काहे को बियाहे परदेस सुन बाबुल मोरे
(गीत) -अमीर खुसरो
बड़ी कठिन है डगर पनघट की
(कव्वाली)-अमीर खुसरो
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
(पूर्वी अवधी में रचित कव्वाली) -अमीर खुसरो
एक थाल मोती से भरा, सबके
सिर पर औंधा धरा/चारो ओर वह थाल फिरे, मोती उससे एक न गिरे (पहेली) -अमीर खुसरो
नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत
है/फंसत अमावस गोरी के फंदा हे सखि साजन, ना सखि,
चंदा (मुकरी/कहमुकरनी) -अमीर खुसरो
खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय।
आया कुत्ता खा गया, तू
बैठी ढोल बजाय। ला पानी पिला।
(ढकोसला) -अमीर खुसरो
जेहाल मिसकीं मकुन तगाफुल दुराय नैना
बनाय बतियाँ;/के ताब-ए-हिज्रा न दारम-ए-जां न लेहु काहे लगाय
छतियाँ- प्रिय मेरे हाल से बेखबर मत रह, नजरों से दूर रहकर यूँ बातें न बनाओ कि मैं
जुदाई को सहने की ताकत नहीं रखता, मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते
(फारसी-हिन्दी मिश्रित गजल) -अमीर खुसरो
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस/चल
खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस (अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर) -अमीर
खुसरो
[नोट : सूफी मत में आराध्य (भगवान, गुरु) को स्त्री तथा आराधक (भक्त, शिष्य) को पुरुष के तीर पर देखने की रचायत है।]
जो उबरा सो डूब गया, जो
डूबा सो पार।। -अमीर खुसरो
खुसरो पाती प्रेम की, बिरला
बांचे कोय।
वेद कुरआन पोथी पढ़े, बिना
प्रेम का होय।। -अमीर खुसरो
खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीव को दोऊ भय एक रंग।।
-अमीर खुसरो
तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम
जवाब
(अर्थात मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी
में जवाब देता हूँ।) -अमीर खुसरो
''मैं हिन्दुस्तान की तूती ('तूती-ए-हिन्दुस्तान') हूँ।
अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो, तो हिंदवी में पूछो, मैं
तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा।'' -अमीर खुसरो
न लफ्जे हिंदवीस्त अज फारसी कम
(अर्थात हिंदवी बोल फारसी से कम नहीं।) -अमीर
खुसरो
आध बदन ससि विहँसि देखावलि आध पिहिलि
निज बाहू/कछु एक भाग बलाहक झाँपल किछुक गरासल राहू- नायिका ने अपना चेहरा हाथ से
छिपा रखा है। कवि कहता है कि उसका चंद्रमुख आधा छिपा है और आधा दिख रहा है। ऐसा
लगता है मानो चंद्रमा के एक भाग को बादल ने ढँक रखा है और आधा दिख रहा है ('पदावली' से)
-विद्यापति
'आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो
गये हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों को 'गीत गोविन्द' (जयदेव) के पदों में आध्यात्मिकता दिखती
है वैसे ही 'पदावली'
(विद्यापति) के पदों में।' -रामचन्द्र
शुक्ल
प्राइव मुणि है वि भंतडी ते मणिअडा
गणंति/अखइ निरामइ परम-पइ अज्जवि लउ न लहंति।- प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो
जाती है, वे मनका गिनते है। अक्षय निरामय परम पद में आज
भी लौ नहीं लगा पाते। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
पिय-संगमि कउ निददडी पिअहो परोक्खहो
केम/मइँ विन्निवि विन्नासिया निदद न एम्ब न-तेम्ब-प्रिय के संगम में नींद कहाँ ? प्रिय
के परोक्ष में (सामने न रहने पर) नींद कहाँ ?
मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई ? नींद
न यों, न त्यों। -हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ
परस्सु/तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जऊँ सुअणस्सु।- जो अपना गुण छिपाए, दूसरे
का प्रकट करे, कलियुग में दुर्लभ सुजन पर मैं बलि जाउँ।
-हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
माधव हम परिनाम निरासा -विद्यापति
कनक कदलि पर सिंह समारल ता पर मेरु
समाने -विद्यापति
जाहि मन पवन न संचरई
रवि ससि नहीं पवेस -सरहपा
अवधू रहिया हाटे वाटे रूप विरष की
छाया।
तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की
माया।। -गोरखनाथ
पुस्तक जल्हण हाथ दै चलि गज्जन नृप काज
-चंदबरदाई
मनहु कला सभसान कला सोलह सौ बन्निय -चंदरबरदाई
आदिकालीन रचना एवं रचनाकार
रचनाकार |
रचना |
स्वयंभू |
पउम चरिउ, रिट्ठणेमि
चरिउ (अरिष्टनेमि चरित) |
सरहपा |
दोहाकोष |
शबरपा |
चर्या पद |
कण्हपा |
कण्हपाद गीतिका, दोहा कोश |
गोरखनाथ |
(नाथ सबदी, पद, प्राण संकली, सिष्या दासन
पथ के प्रवर्तक) |
चंदरबरदाई |
पृथ्वीराज रासो (शुक्ल के अनुसार-हिन्दी का प्रथम
महाकाव्य) |
शार्ङ्गधर |
हम्मीर रासो |
दलपति विजय |
खुमाण रासो |
जगनिक |
परमाल रासो |
नल्ह सिंह भाट |
विजयपाल रासो |
नरपति नाल्ह |
बीसल देव रासो |
अब्दुर रहमान |
संदेश रासक |
अज्ञात |
मुंज रासो |
देवसेन |
श्रावकाचार |
जिन दत्त सूरी |
उपदेश रसायन रास |
आसगु |
चन्दनबाला रस |
जिनधर्म सूरी |
स्थूलिभद्र रास |
शलिभद्र सूरी |
भारतेश्वर बाहुबली रास |
विजय सेन |
रेवन्तगिरि रास |
सुमतिगणि |
नेमिनाथ रास |
हेमचंद्र |
सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन |
विद्यापति |
पदावली (मैथली में) कीर्तिलता व कीर्तिपताका (अवहट्ट
में) लिखनावली (संस्कृत में) |
कल्लोल कवि |
ढोला मारू रा दूहा |
मधुकर |
जयमयंक जस चंद्रिका |
भट्ट केदार |
जयचंद प्रकाश |
पूर्व मध्य काल/भक्ति काल (1350ई०-1650 ई०)
भक्ति काल के उदय के बारे में सबसे
पहले जार्ज ग्रियर्सन ने मत व्यक्त किया। वे ही 'ईसायत की देन' मानते
हैं।
ताराचंद के अनुसार भक्ति काल का उदय 'अरबों
की देन' है।
रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार, 'देश
में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व
और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उनके देव मंदिर गिराए जाते थे, देव
मूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर
सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। ..... अपने पौरुष से हताश जाति के
लिए भगवान की शरणागति में जाने के अलावा दूसरा मार्ग ही क्या था ?......
भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से
धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण
शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला।'
हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार, मैं
तो जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह
आना वैसा ही होता जैसा आज है।..... बौद्ध तत्ववाद जो निश्चित ही बौद्ध आचार्यों की
चिंता की देन था, मध्ययुग के हिन्दी साहित्य के उस अंग पर अपना
निश्चित पदचिह्न छोड़ गया है जिसे संत साहित्य नाम दिया गया है। ..... मैं जो कहना
चाहता हूँ वह यह है कि बौद्ध धर्म क्रमशः लोक धर्म का रूप ग्रहण कर रहा था और उसका
निश्चित चिह्न हम हिन्दी साहित्य में पाते हैं।
भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण में हुई
और उसके पुरस्कर्ता आलवार भक्त थे। बाद में वैष्णव आचार्यों-रामानुज, निम्बार्क, मध्व, विष्णु
स्वामी-ने भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया। दार्शनिक विवेचन द्वारा पुष्टि
पाकर दक्षिण भारत में भक्ति की बहुत उन्नति हुई और दक्षिण से चली हुई भक्ति की लहर
13 वीं
सदी ई० में महाराष्ट्र पहुँची। तदन्तर यह उत्तर भारत पहुँची। उत्तर भारत में भक्ति
आंदोलन के सूत्रपात का श्रेय रामानन्द को है ('भक्ति द्राविड़ उपजी, लाए
रामानन्द') । रामानंद ने उत्तर भारत में भक्ति को जन-जन तक
पहुँचाकर इसे लोकप्रिय बनाया।
भक्ति आंदोलन का स्वरूप देशव्यापी था।
दक्षिण में आलवार-नायनार व वैष्णव आचार्यो,
महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय
(ज्ञानेश्वर, नामदेव,
एकनाथ, तुका राम), उत्तर
भारत में रामानं, बल्लभ आचार्य, बंगाल में चैतन्य, असम
में शंकरदेव (महापुरुषीय धर्म- एक शरण संप्रदाय), उड़ीसा में पंचसखा (बलरामदास, अनंतदास, यशोवंत
दास, जगन्नाथ दास, अच्युतानंद) आदि इसी बात को प्रमाणित
करते हैं।
भक्ति काव्य की दो काव्य धाराएँ हैं-
निर्गुण काव्य-धारा व सगुण काव्य-धारा।
निर्गुण काव्य-धारा की दो शाखाएँ हैं-
ज्ञानाश्रयी शाखा/संत काव्य व प्रेमाश्रयी शाखा/सूफी काव्य। संत काव्य के
प्रतिनिधि कवि कबीर है व सूफी काव्य के प्रतिनिधि कवि जायसी हैं।
सगुन काव्य-धारा की दो शाखाएँ हैं-
कृष्णाश्रयी शाखा/कृष्ण भक्ति काव्य व रामाश्रयी शाखा/राम भक्ति काव्य। कृष्ण
भक्ति काव्य के प्रतिनिधि कवि सूरदास हैं व राम भक्ति काव्य के प्रतिनिधि कवि
तुलसी दास हैं।
प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ : पद्यावत, रामचरितमानस
मुक्तक काव्य कृतियाँ : गीतावली, कवितावली, कबीर
के पद
कबीर की रचनाओं में साधनात्मक रहस्यवाद मिलता है जबकि जायसी की रचनाओं में भावात्मक रहस्यवाद।
निर्गुण काव्य की विशेषताएँ :
No.-1. निर्गुण निराकार ईश्वर में विश्वास
No.-2. लौकिक प्रेम द्वारा अलौकिक/आध्यात्मिक प्रेम की
अभिव्यक्ति
No.-3. धार्मिक रूढ़ियों व सामाजिक कुरीतियों का विरोध
No.-4. जाति प्रथा का विरोध व हिन्दू-मुस्लिम एकता का
समर्थन
No.-5.रहस्यवाद का प्रभाव
No.-6. लोक भाषा का प्रयोग।
सगुण काव्य की विशेषताएँ :
No.-1. अवतारवाद में विश्वास
No.-2.ईश्वर की लीलाओं का गायन
No.-3. भक्ति का विशिष्ट रूप (रागानुगा भक्ति-कृष्ण
भक्त कवियों द्वारा, वैधी भक्ति-राम भक्त कवियों द्वारा)
No.-4. लोक भाषा का प्रयोग
कबीर ने अपने आदर्श-राज्य (Utopia) को 'अमर
देस', रैदास ने 'बेगमपुरा'
(ऐसा शहर जहाँ कोई गम न हो) एवं तुलसी
ने 'राम-राज कहा है।
'संत काव्य'
का सामान्य अर्थ है संतों के द्वारा
रचा गया काव्य। लेकिन जब हिन्दी में 'संत काव्य'
कहा जाता है तो उसका अर्थ होता है
निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गी कवियों के द्वारा रचा गया काव्य।
संत कवि : कबीर, नामदेव, रैदास, नानक, धर्मदास, रज्जब, मलूकदास, दादू, सुंदरदास, चरणदास, सहजोबाई
आदि।
सुंदरदास को छोड़कर सभी संत कवि कामगार
तबके से आते है; जैसे-कबीर (जुलाहा), नामदेव
(दर्जी), रैदास (चमार), दादू (बुनकर), सेना
(नाई), सदना (कसाई)।
संत काव्य की विशेषताएँ-धार्मिक :
No.-1. निर्गुण ब्रह्म की संकल्पना
No.-2. गुरु की महत्ता
No.-3. योग व भक्ति का समन्वय
No.-4. पंचमकार
No.-5.अनुभूति की प्रामाणिकता व शास्त्र ज्ञान की
अनावश्यकता
No.-6. आडम्बरवाद का विरोध
No.-7. संप्रदायवाद का विरोध;
सामाजिक :
No.-1. जातिवाद का विरोध
No.-2. समानता के प्रेम पर बल;
शिल्पगत :
No.-1. मुक्तक काव्य-रूप
No.-2. मिश्रित भाषा
No.-3. उलटबाँसी शैली (संधा/संध्याभाषा-हर प्रसाद
शास्त्री)
No.-4. पौराणिक संदर्भो व हठयोग से संबंधित मिथकीय
प्रयोग
No.-5. प्रतीकों का भरपूर प्रयोग।
रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को 'सधुक्कड़ी
भाषा' की संज्ञा दी है।
श्यामसुंदर दास ने कई बोलियों के
मिश्रण से बनी होने के कारण कबीर की भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' कहा है।
बोली के ठेठ शब्दों के प्रयोग के कारण
ही हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' कहा
है।
'प्रेमाख्यानक काव्य' का
अर्थ है जायसी आदि निर्गुणोपासक प्रेममार्गी सूफी कवियों के द्वारा रचित प्रेम-कथा
काव्य।
प्रेमाख्यानक काव्य को प्रेमाख्यान
काव्य, प्रेमकथानक काव्य, प्रेम
काव्य, प्रेममार्गी (सूफी) काव्य आदि नामों से भी
पुकारा जाता है।
प्रेमाख्यानक काव्य की विशेषताएँ :
No.-1. विषय वस्तु/कथावस्तु का प्रयोग
No.-2. अवांतर/गौण प्रसंगों की भरमार व काव्येतर
विषयों का समावेश
No.-3. विभिन्न तरह के पात्र
No.-4. प्रेम का आधिक्य
No.-5. काव्य-रूप - कथा काव्य
No.-6. द्वंद्वात्मक काव्य-शिल्प (लोक कथा व शिष्ट कथा
का मेल)
No.-7. काव्य-भाषा-अवधी
No.-8. कथा रूपक या प्रतीक काव्य
No.-9. वियोग श्रृंगार/विरह श्रृंगार को अधिक महत्व ('पद्यावत' के
एक अंश-नागमती का विरह वर्णन- को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि कहा जाता है)
यों तो सभी प्रेमाख्यानों में सामान्य मानव
की प्रेम कथाएं है लेकिन सूफियों का तर्क है कि इश्क मजाजी (मानवीय प्रेम) इश्क
हकीकी (दैविक प्रेम) की सीढ़ी है।
मलिक मुहम्मद जायसी जायस के रहने वाले
थे। ये सिंकदर लोदी एवं बाबर के समकालीन थे।
जायसी के यश का आधार है- ''पद्मावत'।
'पद्मावत'
प्रेम की पीर की व्यंजना करने वाला
विशद प्रबंध काव्य है। यह चौपाई-दोहा में निबद्ध (7 चौपाई के बाद 1
दोहा) मसनवी शैली में लिखा गया है।
'पद्मावत'
की कथा चितौड़ के शासक रतन सेन और
सिंहलद्वीप की राजकन्या पदमिनी की प्रेम कहानी पर आधारित है। इसमें ( 'पद्मावत' में)
रतनसेन की पहली पत्नी नागमती के वियोग का अनूठा वर्णन किया गया है। 'पद्मावत' के
नागमती-वियोग खंड को हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि माना जाता है।
जिन भक्त कवियों ने विष्णु के अवतार के
रूप में कृष्ण की उपासना को अपना लक्ष्य बनाया वे 'कृष्णाश्रयी शाखा' के
कवि कहलाए।
मध्य युग में कृष्ण भक्ति का प्रचार
ब्रज मण्डल में बड़े उत्साह और भावना के साथ हुआ। इस ब्रज मण्डल में कई कृष्ण-भक्ति
संप्रदाय सक्रिय थे। इनमें बल्लभ, निम्बार्क,
राधा वल्लभ, हरिदासी
(सखी संप्रदाय) और चैतन्य (गौड़ीय) संप्रदाय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन
संप्रदायों से जुड़े ढ़ेर सारे कवि कृष्ण काव्य रच रहे थे।
लेकिन जो समर्थ कवि कृष्ण काव्य को एक
लोकप्रिय काव्य आंदोलन के रूप में प्रतिष्ठित किया वे सभी बल्लभ संप्रदाय से जुड़े
थे।
बल्लभ संप्रदाय का दार्शनिक सिद्धांत 'शुद्धाद्वैत' तथा
साधना मार्ग 'पुष्टि मार्ग' कहलाता है। पुष्टि मार्ग का आधार-ग्रंथ
'भागवत' (श्रीमदभागवत)
है।
पुष्टि मार्ग में बल्लभाचार्य ने
कवियों (सूरदास, कुंभनदास,
परमानंद दास व कृष्णदास) को दीक्षित
किया। उनके मरणोपरांत उनके पुत्र विटठलनाथ आचार्य की गद्दी पर बैठे और उन्होंने भी
4
कवियों (छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास व नंददास) को दीक्षित
किया। विटठलनाथ ने इन दीक्षित कवियों को मिलाकर 'अष्टछाप' की स्थापना 1565 ई०
में की। सूरदास इनमें सर्वप्रमुख हैं और उन्हें 'अष्टछाप का जहाज' कहा
जाता है।
निम्बार्क संप्रदाय से जुड़े कवि थे- श्री भट्ट, हरि व्यास देव; राधा बल्लभ संप्रदाय से संबद्ध कवि हित हरिवंश थे; हरिदासी संप्रद्राय की स्थापना स्वामी हरिदास ने की और वे ही इस संप्रदाय के प्रथम और अंतिम कवि थे। चैतन्य संप्रदाय से संबद्ध कवि गदाधर भट्ट थे।
कृष्ण भक्ति काव्य धारा ऐसी काव्य धारा
थी जिसमें सबसे अधिक कवि शामिल हुए।
कृष्ण भक्ति काव्य की विशेषताएँ :
No.-1. कृष्ण का ब्रह्म रूप में चित्रण
No.-2. बाल-लीला व व वात्सल्य वर्णन
No.-3. श्रृंगार चित्रण
No.-4. नारी मुक्ति
No.-5. सामान्यता पर बल
No.-6. आश्रयत्व का विरोध
No.-7. लोक संस्कृति पर बल
No.-8. लोक संग्रह
No.-9. काव्य-रूप : मुक्तक काव्य की प्रधानता
No.-10. काव्य-भाषा-ब्रजभाषा
No.-11. गेय पद परंपरा।
माता पिता की जो ममता अपने संतान पर
बरसती है उसे 'वात्सल्य'
कहते हैं। सूर वात्सल्य चित्रण के लिए
विश्व में अन्यतम कवि माने जाते हैं। इन्हीं के कारण, रसों
के अतिरिक्त वात्सल्य को एक रस के रूप में मान्यता मिली।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की राय है, 'यद्यपि
तुलसी के समान सूर का काव्य क्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की
भिन्न-भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण
किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा। श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक
इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं। इन दोनों क्षेत्रों में तो इस
महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।'
भक्ति आंदोलन में कृष्ण काव्यधारा ही
एकमात्र ऐसी धारा है जिसमें नारी मुक्ति का स्वर मिलता है। इनमें सबसे प्रखर स्वर
मीरा बाई का है। मीरा अपने समय के सामंती समाज के खिलाफ एक क्रांतिकारी स्वर है।
जिन भक्त कवियों ने विष्णु के अवतार के
रूप में राम की उपासना को अपना लक्ष्य बनाया वे 'रामाश्रयी शाखा' के
कवि कहलाए।
कुछ उल्लेखनीय राम भक्त कवि हैं-
रामानंद, अग्रदास,
ईश्वर दास, तुलसी
दास, नाभादास,
केशवदास, नरहरिदास आदि।
राम भक्ति काव्य धारा के सबसे बड़े और
प्रतिनिधि कवि है तुलसी दास।
राम भक्त कवियों की संख्या अपेक्षाकृत
कम है। कम संख्या होने का सबसे बड़ा कारण है तुलसीदास का बरगदमयी व्यक्तित्व।
यह सवर्णवादी काव्य धारा है इसलिए यह उच्चवर्ण में ज्यादा लोकप्रिय हुआ।
राम भक्ति काव्य की विशेषताएँ :
No.-1. राम का लोक नायक रूप
No.-2. लोक मंगल की सिद्धि
No.-3. सामूहिकता पर बल
No.-4. समन्वयवाद
No.-5.मर्यादावाद
No.-6. मानवतावाद
No.-7. काव्य-रूप-प्रबंध व मुक्तक दोनों
No.-8. काव्य-भाषा-मुख्यतः अवधी
No.-9. दार्शनिक प्रतीकों की बहुलता।
राम भक्ति काव्य धारा आगे चलकर रीति
काल में मर्यादावाद की लीक छोड़कर रसिकोपासना की ओर बढ़ जाती है। 'तुलसी
का सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।'
-हजारी प्रसाद द्विवेदी
'भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय
करने का अपार धैर्य लेकर आया हो।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि
गयो हरिनाम।
No.-1.जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको
करिबे परी सलाम। -कुंभनदास
नाहिन रहियो मन में ठौर
No.-2.नंद नंदन अक्षत कैसे आनिअ उर और -सूरदास
हऊं तो चाकर राम के पटौ लिखौ दरबार,
No.-3.अब का तुलसी होहिंगे नर के मनसबदार। -तुलसीदास
आँखड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ
निहारि-निहारि
No.-4.जीभड़ियाँ झाला पड़याँ, राम
पुकारि पुकारि। -कबीर
तीरथ बरत न करौ अंदेशा। तुम्हारे चरण
कमल मतेसा।।
No.-5.जह तह जाओ तुम्हारी पूजा। तुमसा देव और नहीं
दूजा।। -जायसी
तलफत रहित मीन चातक ज्यों, जल
बिनु तृषानु छीजे अँखियां हरि दर्शन की भूखी।
No.-6.हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने
कोई। -मीरा
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास।
No.-7.एक राम घनश्याम हित, चातक
तुलसीदास। -तुलसीदास
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाई।
No.-8.बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताई।।
-कबीर
No.-9.पाँड़े कौन कुमति तोंहि लागे, कसरे
मुल्ला बाँग नेवाजा। -कबीर
बंदऊ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप
हरि।
No.-10.महामोह तम पुंज जासु वचन रविकर निकर।।
-तुलसीदास
No.-11.राम नांव ततसार है। -कबीर
No.-12.कबीर सुमिरण सार है और सकल जंजाल। -कबीर
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई।
No.-13.ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई।। -कबीर
लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आय
उतारी। -सूरदास
मूक होई वाचाल, पंगु
चढ़ई गिरिवर गहन।
No.-15.जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कली मल दहन।।
-तुलसीदास
No.-16.सिया राममय सब जग जानी, करऊं
प्रणाम जोरि जुग पानि। -तुलसीदास
No.-17.जांति-पांति पूछै नहीं कोई, हरि
को भजै सो हरि का होई। -रामानंद
साई के सब जीव है कीरी कुंजर दोय।
No.-18.सब घाट साईयां सूनी सेज न कोय। -कबीर
No.-19.मैं राम का कुत्ता मोतिया मेरा नाम। -कबीर
बड़े न हुजै गुनन बिन, बिरद
बड़ाई पाय।
कहत धतूरे सो कनक, गहनो
गढ़ो न जाय।।
No.- 20.(बिरद
= नाम, सो = सदृश,
समान) -कबीर
राम सो बड़ो है कौन, मोसो
कौन छोटो ?
No.-21.राम सो खरो है कौन, मोसो
कौन खोटो। -तुलसीदास
No.-22.प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। -रैदास
सुखिया सब संसार है खावे अरु सोवे,
No.-23.दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै। -कबीर
नारी नसावे तीन गुन, जो
नर पासे होय।
No.-24.भक्ति मुक्ति नित ध्यान में, पैठि
सकै नहीं कोय।। -कबीर
No.-25.ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब है तारन के अधिकारी। -तुलसीदास
पांणी ही तैं हिम भया, हिम
हवै गया बिलाई।
No.-26.जो कुछ था सोई भया, अब
कछु कहया न जाइ।। -कबीर
No.-27.एक जोति थैं सब उपजा, कौन
ब्राह्मण कौन सूदा। -कबीर
एक कहै तो है नहीं, दोइ
कहै तो गारी।
No.-28.है जैसा तैसा रहे कहे कबीर उचारि।। -कबीर
No.-29.सतगुरु है रंगरेज मन की चुनरी रंग डारी -कबीर
No.-30.संसकिरत (संस्कृत) है कूप जल भाषा बहता नीर
-कबीर
अवधु मेरा मन मतवारा।
No.-31.गुड़ करि ज्ञान, ध्यान करि महुआ, पीवै
पीवनहारा।। -कबीर
पंडित मुल्ला जो कह दिया।
No.-32.झाड़ि चले हम कुछ नहीं लिया।। -कबीर
No.-33.पंडित वाद वदन्ते झूठा -कबीर
No.-34.पठत-पठत किते दिन बीते गति एको नहीं जानि।
-कबीर
No.-35.मैं कहता हूँ आँखिन देखी/तू कहता है कागद लेखी।
-कबीर
गंगा में नहाये कहो को नर तरिए।
No.-36.मछिरी न तरि जाको पानी में घर है ।।-कबीर
कंकड़ पाथड़ जोड़ि के मस्जिद लिये बनाय।
No.-37.ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।
-कबीर
जो तू बाभन बाभनि जाया तो आन बाट काहे
न आया।
No.-38.जो तू तुरक तुरकनि जाया तो भीतर खतना क्यों न
कराया।। -कबीर
No.-39.हिन्दु तुरक का कर्ता एके, ता
गति लखि न जाय। -कबीर
हिन्दुअन की हिन्दुआइ देखी, तुरकन
की तुरकाइ
No.-40.अरे इन दोऊ कहीं राह न पाई। -कबीर
जाति न पूछो साधु की, पूछ
लीजिए ज्ञान।
No.-41.मोल करो तलवार का, पड़ा
रहने दो म्यान।। -कबीर
जात भी ओछी, करम
भी ओछा, ओछा करब करम हमारा।
No.-42.नीचे से फिर ऊंचा कीन्ह, कह
रैदास खलास चमारा।। रैदास
झिलमिल झगरा झूलते बाकी रहु न काहु।
No.-43.गोरख अटके कालपुर कौन कहावे साधु।। -कबीर
No.-44.दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम
नाम का मरम है आना -कबीर
शूरा सोइ (सती) सराहिए जो लड़े धनी के
हेत।
No.-45.पुर्जा-पुर्जा कटि पड़ै तौ ना छाड़े खेत।। -कबीर
आगा जो लागा नीर में कादो जरिया झारि।
No.-46.उत्तर दक्षिण के पंडिता, मुए विचारि विचारि।। -कबीर
सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे,
No.-47.अरथ अमित अति आखर धोरे (तुलसी के अनुसार कविता
की परिभाषा) -तुलसी
No.-48.गोरख जगायो जोग भगति भगायो लोग। (कवितावली)
-तुलसी
गुपुत रहहु, कोऊ
लखय न पावे, परगट भये कछु हाथ न आवे।
No.-49.गुपुत रहे तेई जाई पहूंचे, परगट
नीचे गए विगुचे।। -उसमान
No.-50.पहले प्रीत गुरु से कीजै, प्रेम
बाट में तब पग दीजै। -उसमान
रवि ससि नखत दियहि ओहि जोती,
रतन पदारथ माणिक मोती।
जहँ तहँ विहसि सुभावहि हँसी।
No.-51.तहँ जहँ छिटकी जोति परगसी।। -जायसी
बसहि पक्षी बोलहि बहुभाखा,
No.-52.करहि हुलास देखिके शाखा। -जायसी
तन चितउर, मन
राजा कीन्हा।
हिय सिंघल, बुधि
पदमिनी चीन्हा।।
गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा।
बिनु गुरु जगत को निरगुण पावा।।
नागमती यह दुनिया धंधा।
बांचा सोई न एहि चित्त बंधा।।
राघव दूत सोई सैतान।
No.-53.माया अलाउदी सुल्तान।।-जायसी
जहाँ न राति न दिवस है,
जहाँ न पौन न घरानि।
तेहि वन होई सुअरा बसा,
No.-54.को रे मिलावे आनि।। -जायसी
मानुस प्रेम भएउँ बैकुंठी
नाहि त काह छार भरि मूठि।
(प्रेम ही मनुष्य के जीवन का चरम मूल्य है, जिसे
पाकर मनुष्य बैकुंठी हो जाता है, अन्यथा वह एक मुट्ठी राख नहीं No.-55.तो और क्या है ? -जायसी
छार उठाइ लीन्हि एक मूठी,
No.-56.दीन्हि उड़ाइ पिरिथमी झूठी। -जायसी
No.-57.सोलह सहस्त्र पीर तनु एकै, राधा
जीव सब देह। -सूरदास
पुख नछत्र सिर ऊपर आवा।
हौं बिनु नौंह मंदिर को छावा।
बरिसै मघा झँकोरि झँकोरि।
No.-58.मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी। -जायसी
पिउ सो कहहू संदेसड़ा हे भौंरा हे काग।
No.-59.सो धनि बिरहें जरि मुई तेहिक धुँआ हम लाग।।
-जायसी
No.-60.जसोदा हरि पालने झुलावे/सोवत जानि मौन है रहि
करि-करि सैन बतावे/इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि,
No.- No.-61.जसुमती मधुरै गावे। -सूरदास
सिखवत चलत जसोदा मैया
No.-62.अरबराय करि पानि गहावत डगमगाय धरनी धरि पैंया।
- सूरदास
No.-63.मैया हौं न चरैहों गाय -सूरदास
No.-64.मैया री मोहिं माखन भावे -सूरदास
No.-65.मैया कबहि बढ़ेगी चोटी -सूरदास
No.-66.मैया मोहि दाउ बहुत खिझायौ –सूरदास
No.-67.जिस तरह के उन्मुक्त समाज की कल्पना अंग्रेज
कवि शेली ने की है ठीक उसी तरह का उन्मुक्त समाज है गोपियों का।' -आचार्य
शुक्ल
No.-68.'गोपियों
का वियोग-वर्णन, वर्णन के लिए ही है उसमें परिस्थितियों का
अनुरोध नहीं है। No.-69.राधा या गोपियों के विरह में वह तीव्रता और
गंभीरता नहीं है जो समुद्र पार अशोक वन में बैठी सीता के विरह में है।' -आचार्य
शुक्ल
अति मलीन वृषभानु कुमारी।/छूटे चिहुर
वदन कुभिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी। -सूरदास
ज्यों स्वतंत्र होई त्यों बिगड़हिं नारी
No.- 70.(जिमी
स्वतंत्र भए बिगड़हिंनारी) -तुलसीदास
सास कहे ननद खिजाये राणा रहयो रिसाय
No.-71.पहरा राखियो, चौकी बिठायो, तालो
दियो जराय। -मीरा
No.-72.संतन ठीग बैठि-बैठि लोक लाज खोई -मीरा
या लकुटि अरु कंवरिया पर
No.-73.राज तिहु पुर को तजि डारो -रसखान
काग के भाग को का कहिये,
No.-74.हरि हाथ सो ले गयो माखन रोटी -रसखान
No.-75.मानुस हौं तो वही रसखान बसो संग गोकुल गांव के
ग्वारन -रसखान
No.-76.'जिस
प्रकार रामचरित का गान करने वाले भक्त कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का No.-77.स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित
गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का। वास्तव में ये हिन्दी काव्यगगन के
सूर्य और चंद्र है।' -आचार्य शुक्ल
रचि महेश निज मानस राखा
No.-78.पाई सुसमय शिवासन भाखा -तुलसीदास
मंगल भवन अमंगल हारी
No.-79.द्रवहु सुदशरथ अजिर बिहारी -तुलसीदास
सबहिं नचावत राम ग़ोसाई
No.-80.मोहि नचावत तुलसी गोसाई -फादर कामिल बुल्के
' No.-81.बुद्ध के बाद तुलसी भारत के सबसे बड़े
समन्वयकारी है' -जार्ज ग्रियर्सन
No.-82.'मानस
(तुलसी) लोक से शास्त्र का, संस्कृत से भाषा (देश भाषा) का, सगुण
से निर्गुण का, No.-83.ज्ञान से भक्ति का, शैव
से वैष्णव का, ब्राह्मण से शूद्र का, पंडित
से मूर्ख का, गार्हस्थ से वैराग्य का समन्वय है।' -हजारी
प्रसाद द्विवेदी
No.-84.बहुरि वदन विधु अँचल ढाँकी, पिय
तन चितै भौंह करि बांकी खंजन मंजु तिरीछे नैननि, No.-85.निज पति कहेउं तिनहहिं सिय सैननि। (ग्रामीण
स्त्रियों द्वारा राम से संबंध के प्रश्न No.- No.-86.पूछने
पर सीता का आंगिक लक्षणों से जवाब) -तुलसीदास
No.-87.हे खग हे मृग मधुकर श्रेणी क्या तूने देखी सीता
मृगनयनी -तुलसीदास
No.-88.पूजिये विप्र शील गुण हीना, शूद्र
न गुण गन ज्ञान प्रवीना -तुलसीदास
छिति, जल,
पावक, गगन, समीरा
No.-89.पंचरचित यह अधम शरीरा। -तुलसीदास
No.-90.कत विधि सृजी नारी जग माहीं, पराधीन
सपनेहु सुख नाहीं -तुलसीदास
अखिल विश्व यह मोर उपाया
No.-91.सब पर मोहि बराबर माया। -तुलसीदास
काह कहौं छवि आजुकि भले बने हो नाथ।
No.-92.तुलसी मस्तक तव नवै धरो धनुष शर हाथ।।
-तुलसीदास
सब मम प्रिय सब मम उपजाये
No.-93.सबते अधिक मनुज मोहिं भावे -तुलसीदास
No.-94.मेरी न जात-पाँत, न चहौ काहू की जात-पाँत -तुलसीदास
सुन रे मानुष भाई,
सबार ऊपर मानुष सत्य
No.-95.ताहार ऊपर किछु नाई। -चण्डी दास
बड़ा भाग मानुष तन पावा,
No.-96.सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा -तुलसीदास
No.-97.'जिस
युग में कबीर, जायसी, तुलसी, सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य
वाणी उनके अन्तः करणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे
साहित्य के इतिहास में सामान्यतः भक्ति युग कहते हैं। निश्चित ही वह हिन्दी
साहित्य का स्वर्ण युग था।' -श्याम सुन्दर दास
No.-98.'हिन्दी
काव्य की सब प्रकार की रचना शैली के ऊपर गोस्वामी तुलसीदास ने अपना ऊँचा आसन
प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।' -रामचन्द्र
शुक्ल
जनकसुता, जगजननि जानकी।
No.-99.अतिसय प्रिय करुणानिधान की। -तुलसीदास
No.-100.तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।
-तुलसीदास
अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम बेल बोई।
No.-101.सावन माँ उमग्यो हियरा भणक सुण्या हरि आवण री।
-मीरा
No.-102.घायल की गति घायल जानै और न जानै कोई। -मीरा
मोर पंखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज
की माल गरे पहिरौंगी।
ओढि पिताबंर लै लकुटी बन गोधन ग्वालन
संग फिरौंगी।
भावतो सोई मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब
स्वाँग करौंगी।
No.-103.या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।
- रसखान
जब जब होइ धरम की हानि। बढ़हिं असुर महा
अभिमानी।।
No.-104.तब तब धरि प्रभु मनुज सरीरा। हरहिं सकल सज्जन
भवपीरा।। -तुलसीदास
No.-105.'समूचे
भारतीय साहित्य में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है।
यह एक नई दुनिया है।' -हजारी प्रसाद द्विवेदी
जब मैं था तब हरि नहीं, अब
हरि हैं मैं नाहिं।
No.-106.प्रेम गली अती सांकरी, ता
में दो न समाहि।। -कबीर
No.-107.मो सम कौन कुटिल खल कामी -सूरदास
No.-108.भरोसो दृढ इन चरनन केरो -सूरदास
No.-109.धुनि ग्रमे उत्पन्नो, दादू
योगेंद्रा महामुनि -रज्जब
No.-110.सब ते भले विमूढ़ जन, जिन्हें
न व्यापै जगत गति -तुलसीदास
केसव कहि न जाइ का कहिए।
No.-111.देखत तब रचना विचित्र अति, समुझि
मनहि मन रहिए।
('विनय पत्रिका') -तुलसीदास
No.-112.पुष्टिमार्ग का जहाज जात है सो जाको कछु लेना
हो सो लेउ -विट्ठलदास
No.-113.हरि है राजनीति पढ़ि आए -सूरदास
अजगर करे न चाकरी, पंछी
करे न काम।
No.-114.दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।। -मलूकदास
हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी, केस
जरै ज्यों घास।
No.-115.सब जग जलता देख, भया कबीर उदास।। -कबीर
No.-116.विक्रम धँसा प्रेम का बारा, सपनावती
कहँ गयऊ पतारा। -मंझन
कब घर में बैठे रहे, नाहिंन
हाट बाजार
No.-117.मधुमालती,
मृगावती पोथी दोउ उचार। -बनारसी दास
No.-118.मुझको क्या तू ढूँढे बंदे, मैं
तो तेरे पास रे। -कबीर
रुकमिनि पुनि वैसहि मरि गई
No.-119.कुलवंती सत सो सति भई -कुतबन
No.-120.बलंदीप देखा अँगरेजा, तहाँ
जाई जेहि कठिन करेजा -उसमान
जानत है वह सिरजनहारा, जो
किछु है मन मरम हमारा।
हिंदु मग पर पाँव न राखेऊ, का जो बहुतै हिंदी भाखेऊ।।
No.- 121.('अनुराग
बाँसुरी') -नूर मुहम्मद
यह सिर नवे न राम कू, नाहीं
गिरियो टूट।
No.-122.आन देव नहिं परसिये, यह
तन जायो छूट।। -चरनदास
सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहत अस होय।
No.-123.गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी
सो सुत होय।। -रहीम
No.-124.मो मन गिरिधर छवि पै अटक्यो/ललित त्रिभंग चाल
पै चलि कै, चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो -कृष्णदास
कहा करौ बैकुंठहि जाय
No.-125.जहाँ नहिं नंद, जहाँ न जसोदा, नहिं
जहँ गोपी, ग्वाल न गाय -परमानंद दास
बसो मेरे नैनन में नंदलाल
No.-126.मोहनि मूरत,
साँवरि सूरत, नैना
बने रसाल -मीरा
No.-127.लोटा तुलसीदास को लाख टका को मोल -होलराय
साखी सबद दोहरा, कहि
कहिनी उपखान।
No.-128.भगति निरूपहिं निंदहि बेद पुरान।। -तुलसीदास
माता पिता जग जाइ तज्यो
No.-129.विधिहू न लिख्यो कछु भाल भलाई -तुलसीदास
निर्गुण ब्रह्म को कियो समाधु
No.-130.तब ही चले कबीरा साधु। -दादू
No.-131.अपना मस्तक काटिकै बीर हुआ कबीर -दादू
No.-132.सो जागी जाके मन में मुद्रा/रात-दिवस ना करई
निद्रा -कबीर
No.-133.काहे री नलिनी तू कुम्हलानी/तेरे ही नालि सरोवर
पानी। -कबीर
No.-134.कलि कुटिल जीव निस्तार हित वाल्मीकि तुलसी भयो
-नाभादास
No.-135.नैया बिच नदिया डूबति जाय -कबीर
No.-136.भक्तिहिं ज्ञानहिं नहिं कछु भेदा -तुलसी
No.-137.प्रभुजी मोरे अवगुन चित्त न धरो -सूर
No.-138.अब लौ नसानो अब न नसैहों [अब तक का जीवन नाश
(बर्बाद) किया। आगे न करूँगा।] -तुलसी
No.-139.अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे -कबीर
No.-140.संत हृदय नवनीत समाना -तुलसी
No.-141.रामझरोखे बैठ के जग का मुजरा देख -कबीर
निर्गुण रूप सुलभ अति, सगुन
जान नहिं कोई।
No.-142.सुगम अगम नाना चरित, सुनि
मुनि-मन भ्रम होई।। -तुलसी
स्याम गौर किमि कहौं बखानी।
No.-143.गिरा अनयन नयन बिनु बानी।। -तुलसी
दीरघ दोहा अरथ के, आखर
थोरे मांहि।
No.-144.ज्यों रहीम नटकुंडली, सिमिट
कूदि चलि जांहि।। -रहीम
No.-145.प्रेम प्रेम ते होय प्रेम ते पारहिं पइए -सूर
तब लग ही जीबो भला देबौ होय न धीम।
No.-146.जन में रहिबो कुँचित गति उचित न होय रहीम।।
-रहीम
सेस महेस गनेस दिनेस, सुरेसहुँ
जाहि निरंतर गावैं।
No.-147.जाहिं अनादि अनन्त अखंड, अछेद
अभेद सुबेद बतावैं।। -रसखान
बहु बीती थोरी रही, सोऊ
बीती जाय।
No.-148.हित ध्रुव बेगि विचारि कै बसि बृंदावन आय।। -ध्रुवदास
पूर्व-मध्यकालीन/भक्तिकालीन रचना एवं रचनाकार
संत
काव्य
बीजक (1. रमैनी 2. सबद 3. साखी; संकलन
धर्मदास) |
कबीरदास |
बानी |
रैदास |
ग्रंथ साहिब में संकलित |
नानक देव |
सुंदर विलाप |
सुंदर दास |
रत्न खान, ज्ञानबोध |
मलूक दास |
सूफी
काव्य
हंसावली |
असाइत |
चंदायन या लोरकहा |
मुल्ला दाऊद |
मधुमालती |
मंझन |
मृगावती |
कुतबन |
चित्रावती |
उसमान |
पद्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, कन्हावत |
जायसी |
माधवानल कामकंदला |
आलम |
ज्ञान दीपक |
शेख नबी |
रस रतन |
पुहकर |
लखमसेन पद्मावत कथा |
दामोदर कवि |
रूप मंजरी |
नंद दास |
सत्यवती कथा |
ईश्वर दास |
इंद्रावती, अनुराग
बाँसुरी |
नूर मुहम्मद |
कृष्ण
भक्ति काव्य
सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, भ्रमरगीत
(सूरसागर से संकलित अंश) |
सूरदास |
फुटकल पद |
कुंभन दास |
परमानंद सागर |
परममानंद दास |
जुगलमान चरित्र |
कृष्ण दास |
फुटकल पद |
गोविंद स्वामी |
द्वादशयश, भक्ति प्रताप, हितजू को मंगल |
चतुर्भुज दास |
रास पंचाध्यायी, भंवर गीत
(प्रबंध काव्य) |
नंद दास |
युगल शतक |
श्री भट्ट |
हित चौरासी |
हित हरिवंश |
हरिदास जी के पद |
स्वामी हरिदास |
भक्त नामावली, रसलावनी |
ध्रुव दास |
नरसी जी का मायरा, गीत गोविंद
टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के
पद |
मीराबाई |
प्रेम वाटिका, सुजान रसखान, दानलीला |
रसखान |
सुदामा चरित |
नरोत्तमदास |
राम
भक्ति काव्य
राम आरती |
रामानंद |
रामाष्टयाम, राम भजन
मंजरी |
अग्र दास |
भरत मिलाप, अंगद पैज |
ईश्वर दास |
रामचरित मानस (प्र०), गीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, कृष्ण गीतावली, |
तुलसीदास |
भक्त माल |
नाभादास |
रामचन्द्रिका (प्रबंध काव्य) |
केशव दास |
पौरुषेय रामायण |
नरहरि दास |
विविध
पंचसहेली |
छीहल |
हरिचरित, भागवत दशम
स्कंध भाषा |
लालच दास |
रुक्मिणी मंगल, छप्पय नीति, कवित्त संग्रह |
महापात्र नरहरि बंदीजन |
माधवानल कामकंदला |
आलम |
शत प्रश्नोत्तरी |
मनोहर कवि |
हनुमन्नाटक |
बलभद्र मिश्र |
कविप्रिया, रसिक प्रिया , वीर सिंह, देव चरित(प्र०), |
केशव दास |
रहीम दोहावली या सतसई, बरवै नायिका
भेद, श्रृंगार सोरठा, |
रहीम (अब्दुर्रहीम खाने खाना) |
काव्य कल्पद्रुम |
सेनापति |
रस रतन |
पुहकर कवि |
सुंदर श्रृंगार |
सुंदर |
पद्दिनी चरित्र |
लालचंद |
अष्टछाप' के कवि
बल्लभाचार्य के शिष्य |
(1) सूरदास (2) कुंभन दास (3) परमानंद दास
(4) कृष्ण दास |
बिट्ठलनाथ के शिष्य |
(5) छीत स्वामी (6) गोविंद स्वामी (7) चतुर्भुज दास
(8) नंद दास |
उत्तर-मध्यकाल/रीतिकाल (1650ई० - 1850ई०)
नामकरण की दृष्टि से उत्तर-मध्यकाल
विवादास्पद है। इसे मिश्र बंधु ने 'अलंकृत काल',
रामचन्द्र शुक्ल ने 'रीतिकाल' और
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने 'श्रृंगार काल' कहा है।
रीतिकाल के उदय के संबंध में आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल का मत है : 'इसका कारण जनता की रूचि नहीं, आश्रयदाताओं
की रूचि थी, जिसके लिए वीरता और कर्मण्यता का जीवन बहुत कम
रह गया था। .... रीतिकालीन कविता में लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद, श्रृंगारिकता
आदि की जो प्रवृत्तियाँ मिलती हैं उसकी परंपरा संस्कृत साहित्य से चली आ रही थीं।
डॉ० नगेन्द्र का मत है, 'घोर
सामाजिक और राजनीतिक पतन के उस युग में जीवन बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर घर
की चारदीवारी में कैद हो गया था। घर में न शास्त्र चिंतन था न धर्म चिंतन।
अभिव्यक्ति का एक ही माध्यम था-काम। जीवन की बाहय अभिव्यक्तियों से निराश होकर मन
नारी के अंगों में मुँह छिपाकर विशुद्ध विभोर तो हो जाता था' ।
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, 'संस्कृत
के प्राचीन साहित्य विशेषतः रामायण और महाभारत से यदि भक्तिकाल के कवियों ने
प्रेरणा ली तो रीतिकाल के कवियों ने उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य से प्रेरणा व
प्रभाव लिया। ...... लक्षण ग्रंथ, नायिका भेद,
अलंकार और संचारी आदि भावों के
पूर्वनिर्मित वर्गीकरण का आधार लेकर ये कवि बंधी-सधी बोली में बंधे-सधे भावों की
कवायद करने लगे' ।
समग्रतः रीतिकालीन काव्य जनकाव्य नहीं है बल्कि दरबारी संस्कृति का काव्य है। इसमें श्रृंगार और शब्द-सज्जा पर जोर रहा। कवियों ने सामान्य जनता की रुचि को अनदेखा कर सामंतों एवं रईसों की अभिरुचियों को कविता के केन्द्र में रखा। इससे कविता आम आदमी के दुख एवं हर्ष से जुड़ने के बजाय दरबारों के वैभव व विलास से जुड़ गई।
रीतिकाल की दो मुख्य प्रवृत्तियाँ थीं-
No.-1.रीति निरूपण
No.-2. श्रृंगारिकता।
रीति निरूपण को काव्यांग विवेचन के
आधार पर दो वर्गो में बाँटा जा सकता है
No.-1. सर्वाग
विवेचन : सर्वाग विवेचन के अन्तर्गत काव्य के सभी अंगों (रस, छंद, अलंकार
आदि) को विवेचन का विषय बनाया गया है। चिन्तामणि का 'कविकुलकल्पतरु', देव
का 'शब्द रसायन',
कुलपति का 'रस
रहस्य', भिखारी दास का 'काव्य निर्णय' इसी
तरह के ग्रंथ हैं।
No.-2. विशिष्टांग
विवेचन : विशिष्टांग विवेचन के तहत काव्यांगों में रस, छंद
व अलंकारों में से किसी एक अथवा दो अथवा तीनों का विवेचन का विषय बनाया गया है।
तीनों में रस में और रस में भी श्रृंगार रस में रचनाकारों ने विशेष दिलचस्पी दिखाई
है। 'रसविलास'
(चिंतामणि), 'रसार्णव' (सुखदेव
मिश्र), 'रस प्रबोध'
(रसलीन), 'रसराज' (मतिराम), 'श्रृंगार निर्णय' (भिखारी
दास), 'अलंकार रत्नाकर' (दलपति राय), 'छंद
विलास' (माखन) आदि इसी श्रेणी के ग्रंथ हैं।
रीति निरूपण की परिपाटी बहुत सतही है।
रीति निरूपण में रीति कालीन रचनाकारों की रूचि शास्त्र के प्रति निष्ठा का परिणाम
नहीं है बल्कि दरबार में पैदा हुई रचनात्मक आवश्यकता है। इनका उद्देश्य सिर्फ
नवोदित कवियों को काव्यशास्त्र की हल्की-फुल्की जानकारी देना है तथा अपने
आश्रयदाताओं पर अपने पांडित्य का धौंस जमाकर अर्थ दोहन करना है।
रीतिकालीन कवियों को तीन वर्गों में बाँटा जाता है-
No.-1.रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध
एवं No.-2.रीतिमुक्त।
No.-1. रीतिबद्ध कवि : रीतिबद्ध कवियों (आचार्य
कवियों) ने अपने लक्षण ग्रंथों में प्रत्यक्ष रूप से रीति परम्परा का निर्वाह किया
है; जैसे- केशवदास, चिंतामणि, मतिराम, सेनापति, देव, पद्माकर
आदि। आचार्य राचन्द्र शुक्ल ने केशवदास को 'कठिन काव्य का प्रेत' कहा
है।
No.-2. रीतिसिद्ध कवि : रीतिसिद्ध कवियों की रचनाओं की
पृष्ठभूमि में अप्रत्यक्ष रूप से रीति परिपाटी काम कर रही होती है। उनकी रचनाओं को
पढ़ने से साफ पता चलता है कि उन्होंने काव्य शास्त्र को पचा रखा है। बिहारी, रसनिधि
आदि इस वर्ग में आते है।
No.-3. रीतिमुक्त कवि : रीति परंपरा से मुक्त कवियों
को रीतिमुक्त कवि कहा जाता है। घनानंद, आलम, ठाकुर, बोधा, द्विजदेव आदि इस वर्ग में आते हैं।
रीतिकालीन आचार्यों में देव एकमात्र अपवाद है जिन्होंने रीति निरूपण के क्षेत्र में मौलिक उद्भावनाएं की।
रीतिकाल की दूसरी मुख्य प्रवृत्ति श्रृंगारिकता थी।
No.-1. रीतिबद्ध
कवियों की श्रृंगारिकता :रीतिबद्ध कवियों ने काव्यांग निरूपण करते हुए
उदाहरणस्वरूप श्रृंगारिकता रचनाएँ प्रस्तुत की है। केशवदास, चिंतामणि, देव, मतिराम
आदि की रचनाओं में इसे देखा जा सकता है।
No.-2. रीतिसिद्ध कवियों की श्रृंगारिकता : रीतिसिद्ध
कवियों का काव्य रीति निरूपण से तो दूर है,
किन्तु रीति की छाप लिए हुए है। बिहारी, रसनिधि
आदि की रचनाओं में इसे देखा जा सकता है।
जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के
साथ भाषा की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल
होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे छंद
में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या है रस के छोटे-छोटे छीटें है।''
थोड़े में बहुत कुछ कहने की अदभुत क्षमता को देखते हुए किसी ने कहा है-
सतसैया के दोहरे, ज्यों
नावक के तीर।
देखन में छोटे लगे, घाव
करै गंभीर।।
रीतिकाल में भक्ति की प्रवृत्ति
मंगलाचरणों, ग्रंथों की समाप्ति पर आशीर्वचनों, काव्यांग
विवेचन संबंधी ग्रंथों में दिए गए उदाहरणों आदि में मिलती है।
रीतिकाल में लाल कवि, पद्माकर
भट्ट, सूदन, खुमान, जोधराज आदि ने जहाँ प्रबंधात्मक वीर-काव्य की
रचना की, वहीं भूषण,
बाँकी दास आदि मुक्तक वीर-काव्य की। इन
कवियों ने अपने संरक्षक राजाओं का ओजस्वी वर्णन किया है।
रीतिकाल में वृन्द, रामसहाय
दास, दीन दयाल गिरि, गिरिधर, कविराय, घाघ-भड्डरि, वैताल
आदि ने निति विषयक रचनाएँ रची।
रीतिकालीन शिल्पगत विशेषताएँ :
No.-1. सतसई परम्परा का पुनरुद्धार
No.-2. काव्य भाषा-वज्रभाषा (श्रुति मधुर व कोमल कांत
पदावलियों से युक्त तराशी हुई भाषा)
No.-3. काव्य रूप-मुख्यतः मुक्तक का प्रयोग
No.-4. दोहा छंद की प्रधानता (दोहे 'गागर
में सागर' शैली वाली कहावत को चरितार्थ करते है तथा
लोकप्रियता के लिहाज से संस्कृत के 'श्लोक' एवं अरबी-फारसी के शेर के समतुल्य है।); दोहे
के अलावा 'सवैया'
(श्रृंगार रस के अनुकूल छंद) और 'कवित्त' (वीर
रस के अनुकूल छंद) रीति कवियों के प्रिय छंद थे। केशवदास की 'रामचंद्रिका' को 'छंदों' का
अजायबघर' कहा जाता है।
रीतिमुक्त/रीति स्वच्छन्द काव्य की
विशेषताएँ : बंधन या परिपाटी से मुक्त रहकर रीतिकाव्य धारा के प्रवाह के विरुद्ध
एक अलग तथा विशिष्ट पहचान बनाने वाली काव्यधारा 'रीतिमुक्त काव्य' के
नाम से जाना जाता है।
रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएँ थीं :
No.-1. रीति स्वच्छंदता
No.-2. स्वअनुभूत प्रेम की अभिव्यक्ति
No.-3. विरह का आधिक्य
No.-4. कला पक्ष के स्थान पर भाव पक्ष पर जोर
No.-5. पृथक काव्यादर्श/प्राचीन काव्य परम्परा का
त्याग
No.-6. सहज, स्वाभाविक एवं प्रभावी अभिव्यक्ति
No.-7. सरल, मनोहारी बिम्ब योजना व सटीक प्रतीक विधान
रीतिकालीन देव ने फ्रायड की तरह, लेकिन
फ्रायड के बहुत पहले ही, काम (Sex)
को समस्त जीवों की प्रक्रियाओं के
केन्द्र में रखकर अपने समय में क्रांतिकारी चिंतन दिया।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
चढ़ि हिंडोरे सी रहै लागे उसासनु हाथ।।
No.-1.(विरही नायिका इतनी अशक्त हो गयी है कि सांस
लेने मात्र से छः सात हाथ पीछे चली जाती है और सांस छोड़ने मात्र से छः सात हाथ आगे
चली जाती है। ऐसा लगता है मानो जमीन पर खड़ी न होकर हिंडोले पर चढ़ी हुई है।)
-बिहारी
वासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत
No.-2.(जिस तरह दिन में उल्लू संपत्ति की ओर नहीं
ताकते उसी तरह राम अन्य स्त्रियों की तरफ नहीं देखते।) -केशवदास
आगे के कवि रीझिहें, तो
कविताई, न तौ
राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है।
No.-3.(आगे के कवि रीझें तो कविता है अन्यथा
राधा-कृष्ण के स्मरण का बहाना ही सही।) -भिखारी दास
जान्यौ चहै जु थोरे ही, रस
कविता को बंस।
No.-4.तिन्ह रसिकन के हेतु यह, कान्हों
रस सारंस।। -भिखारी दास
काव्य की रीति सिखी सुकवीन सों
No.-5.(मैंने काव्य की रीति कवियों से ही सीखी है।)
-भिखारी दास
No.-6.तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार -भिखारी दास
No.-7.रीति सुभाषा कवित की बरनत बुधि अनुसार
-चिंतामणि
No.-8.अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि-रीति -देव
अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ
नैकु सयानप बाँक नहीं।
No.-9.तहँ साँचे चलैं ताजि आपनपौ, झिझकै
कपटी जे निसांक नहीं।। -घनानन्द
No.-10.यह कैसो संयोग न सूझि पड़ै जो वियोग न एको
विछोहत है -घनानंद
No.-11.मोहे तो मेरे कवित्त बनावत। -घनानंद
No.-12.यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवारि की धार पर
धाबनो है -बोधा
जदपि सुजाति सुलक्षणी सुवरण सरस
सुवृत्त।
No.-13.भूषण बिनु न विराजई कविता वनिता मीत।। -केशवदास
लोचन, वचन, प्रसाद, मुदृ हास, वास
चित्त मोद।
No.-14.इतने प्रगट जानिये वरनत सुकवि विनोद।। -मतिराम
युक्ति सराही मुक्ति हेतु, मुक्ति
भुक्ति को धाम।
No.-15.युक्ति,
मुक्ति और भुक्ति को मूल सो कहिये
काम।। -देव
दृग अरुझत, टूटत
कुटुम्ब, जुरत चतुर चित प्रीति।
No.-16.पड़ति गांठ दुर्जन हिये दई नई यह रीति।। -बिहारी
फागु के भीर अभीरन में गहि
गोविंदै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की पद्माकर,
ऊपर नाहिं अबीर की झोरी।
छीनी पितंबर कम्मर ते सु
विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी
नैन नचाय कही मुसकाय,
No.-17.'लला फिर आइयो खेलन होरी' ।
-पद्माकर
आँखिन मूंदिबै के मिस,
No.-18.आनि अचानक पीठि उरोज लगावै -चिंतामणि
No.-19.मानस की जात सभै एकै पहिचानबो -गुरु गोविंद
सिंह
अभिधा उत्तम काव्य है मध्य लक्षणा लीन
No.-20.अधम व्यंजना रस विरस, उलटी
कहत प्रवीन। -देव
अमिय, हलाहल, मदभरे, सेत, स्याम, रतनार।
No.-21.जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत एक बार।। -रसलीन
भले बुरे सम, जौ
लौ बोलत नाहिं
No.-22.जानि परत है काक पिक, ऋतु
बसंत के माहिं। -वृन्द
No.-23.कनक छुरी सी कामिनी काहे को कटि छीन -आलम
No.-24.नेही महा बज्रभाषा प्रवीन और सुंदरतानि के भेद
को जानै -बज्रनाथ
No.-25.एक सुभान कै आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ
को -बोधा
आलम नेवाज सिरताज पातसाहन के
No.-26.गाज ते दराज कौन नजर तिहारी है -चन्द्रशेखर
देखे मुख भावै अनदेखे कमल चंद
No.-27.ताते मुख मुरझे कमला न चंद। -केशवदास
No.-28.सटपटाति-सी ससि मुखी मुख घूँघट पर ढाँकि
-बिहारी
No.-29.मेरी भव बाधा हरो -बिहारी
कुंदन का रंग फीको लगै, झलकै
अति अंगनि चारु गोराई।
आँखिन में अलसानि, चित्तौन
में मंजु विलासन की सरसाई।।
को बिन मोल बिकात नहीं मतिराम लहे
मुसकानि मिठाई।
No.-30.ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे है नैननि त्यों-त्यों
खरी निकरै सी निकाई।। -मतिराम
तंत्रीनाद कवित्त रस सरस राग रति रंग।
No.-31.अनबूड़े बूड़ेतिरे जे बूड़ेसब अंग।। -बिहारी
No.-32.साजि चतुरंग वीर रंग में तुरंग चढ़ि -भूषण
गुलगुली गिलमैं, गलीचा
है, गुनीजन हैं,
चिक हैं, चिराकैं है, चिरागन
की माला हैं।
कहै पदमाकर है गजक गजा हूँ सजी,
No.-33.सज्जा हैं,
सुरा हैं, सुराही
हैं, सुप्याला हैं। -पद्माकर
रावरे रूप की रीति अनूप, नयो
नयो लागै ज्यौं ज्यौं निहारियै।
No.-34.त्यौं इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहूँ नहिं आन
तिहारियै। -घनानंद
घनानंद प्यारे सुजान सुनौ, इत
एक तें दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला, मन
लेहु पै देहु छटाँक नहीं।।
[सुजान-घनानंद की प्रेमिका का नाम: घनानंद ने
प्रायः सुजान
No.-35.(एक अर्थ-सुजान, दूसरा अर्थ-श्रीकृष्ण) को संबोधित करते
हुए अपनी कविताएँ रची है] -घनानंद
चाह के रंग मैं भीज्यौ हियो, बिछुरें-मिलें
प्रीतम सांति न मानै।
No.-36.भाषा प्रबीन, सुछंद सदा रहै, सो
घनजी के कबित्त बखानै।। -बज्रनाथ (घनानंद के कवि-मित्र एवं प्रशस्तिकार)
उत्तर-मध्यकालीन/रीतिकालीन रचना एवं
रचनाकार
रचनाकार |
उत्तर-मध्यकालीन/रीतिकालीन रचना |
चिंतामणि |
कविकुल कल्पतरु, रस विलास, काव्य विवेक, श्रृंगार
मंजरी, छंद विचार |
मतिराम |
रसराज, ललित ललाम, अलंकार पंचाशिका, वृत्तकौमुदी |
राजा जसवंत सिंह |
भाषा भूषण |
भिखारी दास |
काव्य निर्णय, श्रृंगार
निर्णय |
याकूब खाँ |
रस भूषण |
रसिक सुमति |
अलंकार चन्द्रोदय |
दूलह |
कवि कुल कण्ठाभरण |
देव |
शब्द रसायन, काव्य रसायन, भाव विलास, भवानी विलास, सुजान विनोद, सुख सागर
तरंग |
कुलपति मिश्र |
रस रहस्य |
सुखदेव मिश्र |
रसार्णव |
रसलीन |
रस प्रबोध |
दलपति राय |
अलंकार रत्नाकर |
माखन |
छंद विलास |
बिहारी |
बिहारी सतसई |
रसनिधि |
रतनहजारा |
घनानन्द |
सुजान हित प्रबंध, वियोग बेलि, इश्कलता, प्रीति पावस, पदावली |
आलम |
आलम केलि |
ठाकुर |
ठाकुर ठसक |
बोधा |
विरह वारीश, इश्कनामा |
द्विजदेव |
श्रृंगार बत्तीसी, श्रृंगार
चालीसी, श्रृंगार लतिका |
लाल कवि |
छत्र प्रकाश (प्रबंध) |
पद्माकर भट्ट |
हिम्मत बहादुर विरुदावली (प्रबंध) |
सूदन |
सुजान चरित (प्रबंध) |
खुमान |
लक्ष्मण शतक |
जोधराज |
हम्मीर रासो |
भूषण |
शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक |
वृन्द |
वृन्द सतसई |
राम सहाय दास |
राम सतसई |
दीन दयाल गिरि |
अन्योक्ति कल्पद्रुम |
गिरिधर कविराय |
स्फुट छन्द |
गुरु गोविंद सिंह |
सुनीति प्रकाश, सर्वसोलह
प्रकाश, चण्डी चरित्र |
आधुनिक काल (1850
ई०-अब तक)
भारतेन्दु युग (1850ई० - 1900 ई०)
भारतेन्दु युग की प्रवृत्तियाँ थीं-
No.-1. नवजागरण
No.-2. सामाजिक
चेतना
No.-3. भक्ति
भावना
No.-4. श्रृंगारिकता
No.-5. रीति निरूपण
No-6.समस्या-पूर्ति।
भारतेन्दु युग में भारतेन्दु को
केन्द्र में रखते हुए अनेक कृती साहित्यकारों का एक उज्ज्वल मंडल प्रस्तुत हुआ, जिसे
'भारतेन्दु
मण्डल' के नाम से जाना गया। इसमें भारतेन्दु के
समानधर्मा रचनाकार थे। इस मंडल के रचनाकारों ने भारतेन्दु से प्रेरणा ग्रहण की और
साहित्य की श्रीवृद्धि का काम किया।
भारतेन्दु मंडल के प्रमुख रचनाकार हैं-
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रताप नारायण मिश्र, बदरी
नारायण चौधरी 'प्रेमघन',
बाल कृष्ण भट्ट, अम्बिका
दत्त व्यास, राधा चरण गोस्वामी, ठाकुर
जगमोहन सिंह, लाला श्री निवास दास, सुधाकर
द्विवेदी, राधा कृष्ण दास आदि।
भारतेन्दु मण्डल के रचनाकारों का मूल
स्वर नवजागरण है। नवजागरण की पहली अनुभूति हमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाओं
में मिलती है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पिता गोपाल
चन्द्र 'गिरिधर दास'
अपने समय के प्रसिद्ध कवि थे।
भारतेन्दु युगीन नवजागरण में एक ओर
राजभक्ति (ब्रिटिश शासन की प्रशंसा) है तो दूसरी ओर देशभक्ति (ब्रिटिश शोषण का
विरोध) ।
सामाजिक चेतना के चित्रण में कुछ
कवियों की दृष्टि सुधारवादी थी तो कुछ कवियों की यथास्थितिवादी।
भारतेन्दु युग में नारी शिक्षा, विधवाओं
की दुर्दशा, छुआछूत आदि को लेकर सहानुभूतिपूर्ण कविताएं
लिखी गयीं।
भारतेन्दु युगीन कवियों ने जनता की
समस्याओं का व्यापक रूप से चित्रण किया।
भारतेन्दु युगीन भक्ति अन्य युगों की
भाँति भक्ति-संप्रदाय निर्धारित भक्ति नहीं है। एक ही रचनाकार सगुण और निर्गुण
दोनों तरह के पद रचते हैं।
इस युग की भक्ति रचना की विशेषता यह थी
निर्गुण और सगुण भक्ति में सगुण भक्ति ही मुख्य साधना दिशा थी और सगुण भक्ति में
भी कृष्ण भक्ति काव्य अधिक परिमाण में रचे गये।
भारतेन्दु युगीन कवियों ने श्रृंगार
चित्रण में भक्ति कालीन कृष्ण काव्य परम्परा,
रीतिकालीन नख-शिख, नायिका
भेदी परम्परा तथा उर्दू कविता से सम्पर्क के फलस्वरूप प्रेम की वेदनात्मक व्यंजना
को अपनाया।
भारतेन्दु युगीन कवि सेवक, सरदार, लछिराम
आदि ने रीतिकालीन पद्धति को अपनाया।
रीति निरूपण के क्षेत्र में सेवक, सरदार, हनुमान, लछिराम वाली धारा सक्रिय रही।
रीति निरूपण की तरह समस्या पूर्ति भी
रीतिकालीन काव्य-प्रवृत्ति थी जिसे भारतेन्दु युगीन कवियों ने नया रूप दिया तथा
इसे सामंतोन्मुख के स्थान पर जनोन्मुख बनाया।
कविता को जनोन्मुख बनाने का सबसे अधिक
श्रेय समस्या पूर्ति को ही है।
भारतेन्दु 'कविता
वर्धिनी सभा' के जरिये समस्यापूर्तियों का आयोजन करते थे।
इसकी देखा-देखी कानपुर के 'रसिक समाज',
आजमगढ़ के 'कवि
समाज' ने समस्या पूर्ति के सिलसिले को आगे बढ़ाया।
भारतेन्दु युग में प्रबंध काव्य कम
लिखे गये और जो लिखे गये वे प्रसिद्ध नहीं प्राप्त कर सके। मुक्तक कविताएँ ज्यादा
लोकप्रिय हुई।
भारतेन्दु ने उन मुक्तक काव्य-रूपों का
पुनरुद्धार किया जिन्हें अमीर खुसरो के बाद लगभग भुला दिया गया था। ये हैं
पहेलियाँ और मुकरियाँ।
भारतेन्दु युग में भाषा के क्षेत्र में
द्वैत वर्तमान रहा-पद्य के लिए बज्रभाषा और गद्य के लिए खड़ी बोली। हिन्दी गद्य की
प्रायः सभी विधाओं का सूत्रपात भारतेन्दु युग में हुआ।
समग्रत : भारतेन्दु युगीन काव्य में
प्राचीन व नयी काव्य प्रवृत्तियों का मिश्रण मिलता है। इसमें यदि एक ओर खुसरो
कालीन काव्य प्रवृत्ति पहेली व मुकरियां, भक्ति कालीन काव्य प्रवृत्ति भक्ति भावना, रीतिकालीन
काव्य प्रवृत्तियाँ श्रृंगारिकता, रीति निरूपण, समस्यापूर्ति जैसी पुरानी काव्य
प्रवृत्तियाँ मिलती है तो दूसरी ओर राज भक्ति,
देश भक्ति, देशानुराग
की भक्ति, समाज सुधार,
अर्थनीति का खुलासा, भाषा
प्रेम जैसी नयी काव्य प्रवृत्तियाँ भी मिलती हैं।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
No.-37.रोवहु सब मिलि, आवहु 'भारत भाई' ।
हा! हा! भारत-दुर्दशा न देखी जाई।।
-भारतेन्दु
No.-38.कठिन सिपाही द्रोह अनल जा जल बल नासी।
जिन भय सिर न हिलाय सकत कहुँ भारतवासी।।
-भारतेन्दु
No.-39.यह जीय धरकत यह न होई कहूं कोउ सुनि लेई।
कछु दोष दै मारहिं और रोवन न दइहिं।।
-प्रताप नारायण मिश्र
No.-40.अमिय की कटोरिया सी चिरजीवी रहो विक्टोरिया
रानी। -अंबिका दत्त व्यास
अँगरेज-राज सुख साज सजे सब भारी।
No.-41.पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।।
-भारतेन्दु
No.-42.भीतर-भीतर सब रस चूसै, हँसि-हँसि
के तन-मन-धन मूसै।
जाहिर बातन में अति तेय, क्यों
सखि सज्जन! नही अंगरेज।। -भारतेन्दु
No.-43.सब गुरुजन को बुरा बतावैं, अपनी
खिचड़ी अलग पकावै।
भीतर तत्व न, झूठी
तेजी, क्यों सखि साजन नहिं अँगरेज़ी।। -भारतेन्दु
No.-44.सर्वसु लिए जात अँगरेज़,
हम केवल लेक्चर के तेज। -प्रताप नारायण
मिश्र
No.-45.अभी देखिये क्या दशा देश की हो,
बदलता है रंग आसमां कैसे-कैसे -प्रताप
नारायण मिश्र
No.-46.हम आरत भारत वासिन पे अब दीनदयाल दया कीजिये।
-प्रताप नारायण मिश्र
हिन्दू मुस्लिम जैन पारसी इसाई सब जात।
No.-47.सुखि होय भरे प्रेमघन सकल 'भारती
भ्रात'। -बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन'
No.-48.कौन करेजो नहिं कसकत,
सुनि विपत्ति बाल विधवन की। -प्रताप
नारायण मिश्र
No.-49.हे धनियों !क्या दीन जनों की नहीं सुनते हो
हाहाकार।
जिसका मरे पड़ोसी भूखा उसके भोजन को
धिक्कार। -बाल मुकुन्द गुप्त
No.-50.बहुत फैलाये धर्म, बढ़ाया
छुआछूत का कर्म। -भारतेन्दु
No.-51.सभी धर्म में वही सत्य, सिद्धांत
न और विचारो। -भारतेन्दु
परदेशी की बुद्धि और वस्तुन की कर आस।
No.-52.परवस है कबलौ कहौं रहिहों तुम वै दास।। -भारतेन्दु
तबहि लख्यौ जहँ रहयो एक दिन कंचन बरसत।
No.-53.तहँ चौथाई जन रूखी रोटिहुँ को तरसत।। -प्रताप
नारायण मिश्र
No.-54.सखा पियारे कृष्ण के गुलाम राधा रानी के।
-भारतेन्दु
साँझ सवेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ
तेरा है।
No.-55.हम सब इक दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार बसेरा है।
-भारतेन्दु
समस्या : आँखियाँ दुखिया नहीं मानति है
समस्या पूर्ति : यह संग में लागिये
डोले सदा
बिन देखे न धीरज आनति है
प्रिय प्यारे तिहारे बिना
No.-56.आँखियाँ दुखिया नहीं मानति है। -भारतेन्दु की
एक समस्यापूर्ति
निज भाषा उन्नति अहै, सब
उन्नति को मूल।
No.-57.बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत
न हिय को शूल।। -भारतेन्दु
अँगरेजी पढ़ि के जदपि, सब
गुन होत प्रवीन।
No.-58.पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत
हीन को हीन।। -भारतेन्दु
पढ़ि कमाय कीन्हों कहा, हरे
देश कलेस।
No.-59.जैसे कन्ता घर रहै, तैसे
रहे विदेस।। -प्रताप नारायण मिश्र
चहहु जु साँचहु निज कल्याण, तौ
सब मिलि भारत सन्तान।
No.-60.जपो निरन्तर एक जबान, हिन्दी
हिन्दू हिन्दुस्तान।। -प्रताप नारायण मिश्र
भारतेन्दु ने गद्य की भाषा को
परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया। उनके भाषा संस्कार की
महत्ता को सब लोगों ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया और वे No.-61.वर्तमान हिन्दी गद्य के प्रवर्तक माने गए।
-रामचन्द्र शुक्ल
'भारतेन्दु ने हिन्दी साहित्य को एक नये मार्ग
पर खड़ा किया।
No.-62.वे साहित्य के नये युग के प्रवर्तक हुए।' -रामचन्द्र
शुक्ल
No.-63.इन मुसलमान जनन पर कोटिन हिंदू बारहि
-भारतेन्दु
(रसखान आदि की भक्ति पर रीझकर)
No.-64.आठ मास बीते जजमान
अब तो करो दच्छिना दान -प्रताप नारायण
मिश्र
No.-65.'साहित्य जन-समूह के हृदय का विकास है' ।
-बालकृष्ण भट्ट
No.-66.'हिन्दी नयी चाल में ढली, सन्
1873 ई० में। -भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
भारतेन्दुयुगीन रचना एवं रचनाकार
रचनाकार |
भारतेन्दुयुगीन रचना |
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र |
प्रेम मालिका, प्रेम सरोवर, गीत गोविन्दानन्द, वर्षा-विनोद, विनय-प्रेम, पचासा, प्रेम-फुलवारी, वेणु-गीति, |
बदरी नारायण चौधरी 'प्रेमघन' |
जीर्ण जनपद, आनन्द
अरुणोदय, हार्दिक हर्षादर्श, मयंक महिमा, अलौकिक लीला, वर्षा-बिन्दु, लालित्य लहरी, बृजचन्द पंचक |
प्रताप नारायण मिश्र |
प्रेमपुष्पावली, मन की लहर, लोकोक्ति शतक, तृप्यन्ताम, श्रृंगार विलास, दंगल खंड, ब्रेडला स्वागत |
जनमोहन सिंह |
प्रेमसंपत्ति लता, श्यामलता, श्यामा-सरोजिनी, देवयानी, ऋतु संहार (अ०), मेघदूत (अ०) |
अम्बिका दत्त व्यास |
पावस पचासा, सुकवि सतसई, हो हो होरी |
राधा कृष्ण दास |
कंस वध (अपूर्ण), भारत
बारहमासा, देश दशा |
द्विवेदी युग (1900ई०-1920ई०)
No.-1.द्विवेदी युग 20 वी० सदी के पहले दो दशकों का युग है।
इन दो दशकों के कालखण्ड ने हिन्दी कविता को श्रृंगारिकता से राष्ट्रीयता, जड़ता
से प्रगति तथा रूढ़ि से स्वच्छंदता के द्वार पर ला खड़ा किया।
इस कालखंड के पथ प्रदर्शक, विचारक
और सर्वस्वीकृत साहित्य नेता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर इसका नाम
द्विवेदी युग रखा गया है।
यह सर्वथा उचित है क्योंकि हिन्दी के
कवियों और लेखकों की एक पीढ़ी का निर्माण करने,
हिन्दी के कोश निर्माण की पहल करने, हिन्दी
व्याकरण को स्थिर करने और खड़ी बोली का परिष्कार करने और उसे पद्य की भाषा बनाने
आदि का श्रेय बहुत हद तक महावीर प्रसाद द्विवेदी को ही है।
द्विवेदी युग को 'जागरण-सुधार
काल' भी कहा जाता है।
द्विवेदी युग में अधिकांश कवियों ने
द्विवेदी जी के दिशा निर्देश के अनुशासन में काव्य रचना की। किन्तु कुछ कवि ऐसे भी
थे जो उनके अनुशासन में नही थे और काव्य सृ जन कर रहे थे।
इस तरह, इस युग के कवियों के दो वर्ग
थे-द्विवेदी मंडल के कवि और द्विवेदी मंडल के बाहर के कवि। द्विवेदी मंडल के
कवियों की काव्यधारा को 'अनुशासन की धारा' तथा द्विवेदी मंडल के बाहर के कवियों
की काव्यधारा को 'स्वच्छंदता की धारा' कहा
जाता है।
द्विवेदी मंडल के कवियों में मैथलीशरण
गुप्त, हरिऔध, सियारामशरण गुप्त, नाथूराम
शर्मा 'शंकर', महावीर प्रसाद द्विवेदी आते हैं।
द्विवेदी मंडल के बाहर (स्वच्छंदता की
धारा) के कवियों में श्रीधर पाठक, मुकुटधर पाण्डेय, लोचन प्रसाद पांडेय, राम
नरेश त्रिपाठी आदि प्रमुख हैं। इन कवियों की विशेषताएँ है प्रकृति का पर्यवेक्षण, उसकी
स्वच्छंद भंगिमाओं का चित्रण, देशभक्ति,
कथा गीत का प्रयोग, काव्य
भाषा के रूप में खड़ी बोली की स्वीकृति आदि। स्वच्छंदता वादी काव्य की यही धारा आगे
चलकर छायावाद में गहरी हो जाती है।
द्विवेदी युग की विशेषताएँ :
No.-1. जागरण-सुधार (राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक
सुधार/सामाजिक चेतना, मानवतावाद आदि)
No.-2. सोद्देश्यता, आदर्शपरकता व नीतिमत्ता
No.-3. आधुनिकता
No.-4. समस्या पूर्ति
No.-5.प्रकृति चित्रण
No.-6. विषय-विस्तार, इतिवृत्तात्मकता/विवरणात्मकता व उपदेशात्मकता
No.-7. काव्य-रूप-प्रबंध काव्य, खंड
काव्य व मुक्तक कविता तीनों पर जोर
No.-8. गद्य और पद्य दोनों की भाषा के रूप में खड़ी
बोली की मान्यता, बोधगम्य भाषा।
राम नरेश त्रिपाठी ने अपनी रचनाओं के
माध्यम से राष्ट्रीयता की एक संकल्पना विकसित की। उनकी राय में राष्ट्रीयता के तीन
खतरे हैं-विदेशी शासन (पराधीनता), एक तंत्रीय शासन (तानाशाही शासन) और विदेशी
आक्रमण। इन्हीं तीन विषयों को लेकर त्रिपाठीजी ने काव्य त्रयी (Trio) की
रचना की 'मिलन',
'पथिक' व 'स्वप्न'
।
मैथली शरण गुप्त ने दो नारी प्रधान
काव्य- 'साकेत' व 'यशोधरा'
की रचना की।
भारतेन्दु युग में जिस तरह अम्बिका चरण
व्यास समस्यापूर्ति की राह से कविता के क्षेत्र में आये उसी तरह द्विवेदी युग में
नाथूराम शर्मा 'शंकर'।
पहली बार द्विवेदी युग में प्रकृति को
काव्य-विषय के रूप में मान्यता मिली। इसके पूर्व प्रकृति या तो उद्दीपन के रूप में
आती थी या फिर अप्रस्तुत विधान का अंग बनकर। द्विवेदी युग में प्रकृति को आलंबन
तथा प्रस्तुत विधान के रूप में मान्यता मिली। पर द्विवेदी युग में प्रकृति का
स्थिर-चित्रण हुआ है, गतिशील चित्रण नहीं।
द्विवेदी युगीन कविता कथात्मक तथा
अभिधात्मक होने के कारण इतिवृत्तात्मक/विवरणात्मक हो गई है।
प्रबंध काव्य : 'प्रिय
प्रवास' व 'वैदेही वनवास' (हरिऔध), 'साकेत' व 'यशोधरा'
(मैथली शरण गुप्त), 'उर्मिला' (बालकृष्ण
शर्मा नवीन) आदि।
खण्ड काव्य : 'रंग
में भंग', 'पंचवटी',
'जयद्रथ वध' व 'किसान' (मैथलीशरण
गुप्त), 'मिलन',
'पथिक' व 'स्वप्न'
(राम नरेश त्रिपाठी) आदि।
खड़ी बोली के स्वरूप निर्धारण और विकास
का श्रेय द्विवेदी युग को है। मैथली शरण गुप्त द्विवेदी युग के सर्वाधिक प्रसिद्ध
कवि थे। इनकी प्रथम पुस्तक 'रंग में भंग' (1909) है। इनकी ख्याति का मूलाधार 'भारत-भारती' (1912) है।
'भारत
भारती' ने हिन्दी भाषियों में जाति और देश के प्रति
गर्व और गौरव की भावनाएं जगाई और तभी से ये 'राष्ट्रकवि'
के रूप में विख्यात हुए। ये प्रसिद्ध
राम भक्त कवि थे। 'राम चरित मानस' के पश्चात हिन्दी में राम काव्य का
दूसरा प्रसिद्ध उदाहरण मैथली शरण गुप्त कृत 'साकेत' है।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
('भारत-भारती')
हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,
No.-1.ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और हैं ? -मैथली
शरण गुप्त
('भारत-भारती')
No.-2.देशभक्त वीरों, मरने से नेक नहीं डरना होगा।
प्राणों का बलिदान देश की वेदी पर करना
होगा।। -नाथूराम शर्मा 'शंकर'
धरती हिलाकर नींद भगा दे।
वज्रनाद से व्योम जगा दे।
No.-3.दैव, और कुछ लाग लगा दे।
(स्वदेश-संगीत) -मैथली शरण गुप्त
जिसको नहीं गौरव तथा निज देश का अभिमान
है।
No.-4.वह नर नहीं नरपशु निरा हैं, और
मृतक समान है।। -मैथली शरण गुप्त
वन्दनीय वह देश जहाँ के देशी निज
अभिमानी हों।
No.-5.बांधवता में बँधे परस्पर परता के अज्ञानी हों।।
-श्रीधर पाठक
पराधीन रहकर अपना सुख शोक न कह सकता
है।
No.-6.यह अपमान जगत में केवल पशु ही सह सकता है।।
-राम नरेश त्रिपाठी
सखि, वे मुझसे कहकर जाते
('यशोधरा')
-मैथली शरण गुप्त
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
No.-7.आँचल में है दूध और आँखों में पानी।। -मैथली
शरण गुप्त
No.-8.नारी पर नर का कितना अत्याचार है।
लगता है विद्रोह मात्र ही अब उसका
प्रतिकार है।। -मैथली शरण गुप्त
राम तुम मानव हो ईश्वर नहीं हो क्या ?
No.-9.विश्व में रमे हुए सब कहीं नहीं हो क्या ? -मैथली
शरण गुप्त
मैं ढूंढ़ता तुझे था जब कुंज और वन में,
तू मुझे खोजता था जब दीन के वतन में।
तू आह बन किसी को मुझको पुकारता था,
No.-10.मैं था तुझे बुलाता संगीत के भजन में।। -राम नरेश त्रिपाठी
No.-11.साहित्य समाज का दर्पण है। -महावीर प्रसाद
द्विवेदी
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म नहीं होना
चाहिए,
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना
चाहिए।
('भारत-भारती')
-मैथली शरण गुप्त
No.-12.अधिकार खोकर बैठना यह महा दुष्कर्म है,
न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना
धर्म है।
('जयद्रथ वध')
-मैथली शरण गुप्त
No.-13.अन्न नहीं है वस्त्र नहीं है रहने का न ठिकाना
कोई नहीं किसी का साथी अपना और बिगाना।
-रामनरेश त्रिपाठी
गगन था कुछ लोहित हो चला
तरु शिखा पर थी अब राजति 'कमलिनी
कुल-वल्लभ की प्रभा
('प्रिय प्रवास') -अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
No.-14.अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है,
क्यों न इसे सबका मन चाहे। -मैथली शरण
गुप्त
No.-15.खरीफ के खेतों में जब सुनसान है,
रब्बी के ऊपर किसान का ध्यान है।
-श्रीधर पाठक
No.-16.विजन वन-प्रांत था, प्रकृति
मुख शांत था,
अटन का समय था, रजनि
का उदय था। -श्रीधर पाठक
लख अपर-प्रसार गिरीन्द में।
ब्रज धराधिप के प्रिय-पुत्र का।
सकल लोग लगे कहने, उसे
रख लिया है ऊँगली पर श्याम ने।
No.-17.('प्रियप्रवास') -हरिऔध
संदेश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया,
No.-18.इस धरती को ही स्वर्ग बनाने आया।
('साकेत')
-मैथली शरण गुप्त
'मैथली शरण गुप्त की प्रतिभा की सबसे बड़ी
विशेषता है कालानुसरण की क्षमता अर्थात उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्य
प्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति। इस दृष्टि से हिन्दी भाषी जनता के
प्रतिनिधि कवि ये निस्संदेह कहे जा सकते हैं। -रामचन्द्र शुक्ल
मैं आया उनके हेतु कि जो शापित हैं,
जो विवश, बलहीन दीन शापित है
No.-19.('साकेत' में राम की उक्ति) -मैथलीशरण गुप्त
No.-20.हम राज्य लिये मरते हैं -मैथलीशरण गुप्त
द्विवेदीयुगीन रचना एवं रचनाकार
रचनाकार |
द्विवेदीयुगीन रचना |
नाथूराम शर्मा 'शंकर' |
अनुराग रत्न, शंकर सरोज, गर्भरण्डा रहस्य, शंकर सर्वस्व |
श्रीधर पाठक |
वनाष्टक, काश्मीर
सुषमा, देहरादून, भारत गीत, जार्ज वंदना (कविता), बाल विधवा
(कविता) |
महावीर प्रसाद द्विवेदी |
काव्य मंजूषा, सुमन, कान्यकुब्ज अबला-विलाप |
'हरिऔध' |
प्रियप्रवास, पद्यप्रसून, चुभते चौपदे, चोखे चौपदे, बोलचाल, रसकलस, वैदही वनवास |
राय देवी प्रसाद 'पूर्ण' |
स्वदेशी कुण्डल, मृत्युंजय, राम-रावण विरोध, वसन्त-वियोग |
रामचरित उपाध्याय |
राष्ट्र भारती, देवदूत, देवसभा, विचित्र विवाह, रामचरित-चिन्तामणि
(प्रबंध) |
गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' |
कृषक-क्रन्दन, प्रेम
प्रचीसी, राष्ट्रीय वीणा, त्रिशूल तरंग, करुणा कादंबिनी |
मैथली शरण गुप्त |
रंग में भंग, जयद्रथ वध, भारत भारती, पंचवटी, झंकार, साकेत, यशोधरा, द्वापर, जय भारत, विष्णु
प्रिया |
रामनरेश त्रिपाठी |
मिलन, पथिक, स्वप्न, मानसी |
बाल मुकुन्द गुप्त |
स्फुट कविता |
लाला भगवानदीन 'दीन' |
वीर क्षत्राणी, वीर बालक, वीर पंचरत्न, नवीन बीन |
लोचन प्रसाद पाण्डेय |
प्रवासी, मेवाड़ गाथा, महानदी, पद्य पुष्पांजलि |
मुकुटधर पाण्डेय |
पूजा फूल, कानन कुसुम |
छायावाद युग (1918ई०
- 1936 ई०)
'छायावाद'
के वास्तविक अर्थ को लेकर विद्वानों
में मतभेद है।
छायावाद का अर्थ मुकुटधर पाण्डेय ने 'रहस्यवाद', सुशील
कुमार ने 'अस्पष्टता',
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'अन्योक्ति
पद्धति', रामचन्द्र शुक्ल ने 'शैली
वैचित्र्य', नंद दुलारे बाजपेयी ने 'आध्यात्मिक
छाया का भान', डॉ० नगेन्द्र ने 'स्थूल
के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह' बताया है।
नामवर सिंह के शब्दों में, 'छायावाद
शब्द का अर्थ चाहे जो हो परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत
और महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है जो 1918 ई० से लेकर 1936ई०
('उच्छवास' से 'युगान्त') तक
लिखी गई'।
सामान्य तौर पर किसी कविता के भावों की
छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो वह 'छायावादी कविता' है। उदाहरण के तौर पर पंत की निम्न
पंक्तियाँ देखी जा सकती है जो कहा तो जा रहा है छाँह के बारे में लेकिन अर्थ निकल
रहा है नारी स्वातंत्र्य संबंधी :
कहो कौन तुम दमयंती सी इस तरु के नीचे सोयी, अहा तुम्हें भी त्याग गया क्या अलि नल-सा निष्ठुर कोई।
छायावाद युग की विशेषताएँ :
No.-1. आत्माभिव्यक्ति अर्थात 'मैं' शैली/उत्तम
पुरुष शैली
No.-2. आत्म-विस्तार/सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति
No.-3. प्रकृति प्रेम
No.-4. नारी प्रेम एवं उसकी मुक्ति का स्वर
No.-5. अज्ञात व असीम के प्रति जिज्ञासा (रहस्यवाद)
No.-6. सांस्कृतिक चेतना व सामाजिक चेतना/मानवतावाद
No.-7. स्वच्छंद कल्पना का नवोन्मेष
No.-8. विविध काव्य-रूपों का प्रयोग
No.-9. काव्य-भाषा-ललित-लवंगी कोमल कांत पदावली वाली
भाषा
No.-10. मुक्त छंद का प्रयोग
No.-11. प्रकृति संबंधी बिम्बों की बहुलता
No.-12. भारतीय अलंकारों के साथ-साथ अंग्रेजी साहित्य
के मानवीकरण व विशेषण विपर्यय अलंकारों का विपुल प्रयोग
छायावाद के कवि चातुष्टय -प्रसाद, निराला, पंत
व महादेवी
छायावादी काव्य में प्रसाद ने यदि
प्रकृति को मिलाया, निराला ने मुक्तक छन्द दिया, पंत
ने शब्दों को खराद पर चढ़ाकर सुडौल और सरस बनाया, तो महादेवी ने उसमें प्राण डाले।
छायावाद को हिन्दी साहित्य में भक्ति
काव्य के बाद स्थान दिया जाता है।
No.-13.प्रसाद की प्रथम काव्य कृति -उर्वशी (1909ई०)
No.-14.प्रसाद की प्रथम छायावादी काव्य कृति -झरना (1918
ई०)
No-15.प्रसाद की अंतिम काव्य कृति कामायनी (1937
ई०) -सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्य कृति
कामायनी के पात्र -मनु, श्रद्धा
व इड़ा
No.-16.पंत की प्रथम छायावादी काव्य कृति -उच्छवास (1918
ई०)
No.-17.पंत की अंतिम छायावादी काव्य कृति -गुंजन (1932 ई०)
छायावाद युग में विविध काव्य रूपों का
प्रयोग हुआ
मुक्तिक काव्य |
सर्वाधिक लोकप्रिय |
गीति काव्य |
'करुणालय' (प्रसाद), |
प्रबंध काव्य |
'कामायनी' व 'प्रेम पथिक' (प्रसाद), |
लंबी कविता |
'प्रलय की
छाया' व 'शेर सिंह का
शस्त्र समर्पण' (प्रसाद) |
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
मैंने मैं शैली अपनाई
No.-1.देखा एक दुःखी निज भाई। -निराला
व्यर्थ हो गया जीवन
No.-2.मैं रण में गया हार। ('वनवेला') -निरालाा
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित न कर सका।
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
No.-3.हारता रहा मैं स्वार्थ समर। ('सरोज
स्मृति') -निराला
छोटे से घर की लघु सीमा में
बंधे है क्षुद्र भाव,
यह सच है प्रिय
प्रेम का पयोनिधि तो उमड़ता है
No.-4.सदा ही निःसीम भू पर। ('पंचवटी
प्रसंग') -निराला
ताल-ताल से रे सदियों के जकड़े हृदय
कपाट
खोल दे कर-कर कठिन प्रहार
आए अभ्यन्तर संयत चरणों से नव्य विराट
No.-5.करे दर्शन पाये आभार। -निराला
हाँ सखि ! आओ बाँह खोलकर हम
लगकर गले जुड़ा ले प्राण
फिर तुम तम में, मैं
प्रियतम में
No.-6.हो जावें द्रुत अंतर्धान। -पंत
बीती विभावरी जाग री !
अम्बर-पनघट में डूबो रही
No.-7.तारा-घट-ऊषा-नागरी। -प्रसाद
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या सुंदरी परी-सी
No.-8.धीरे-धीरे-धीरे। ('संध्या
सुंदरी') -निराला
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल-जाल में
No.-9.कैसे उलझा दूँ लोचन ? -पंत
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास
रजत नग पग तल में पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।
No.- 10.('कामायनी') -प्रसाद
No.-11.मैं नीर भरी दुःख की बदली -महादेवी
तुमको पीड़ा में ढूँढा
No.-12.तुमको ढूँढेगी पीड़ा -महादेवी
नील परिधान बीच सुकुमार
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग
खिला हो ज्यों बिजली का फूल
No.-13.मेघ बीच गुलाबी रंग। ('कामायनी') -प्रसाद
तोड़ दो यह झितिज, मैं
भी देख लूं उस ओर क्या है ?
No.-14.जा रहे जिस पंथ से युग कल्प, उसका
छोर क्या है ? -महादेवी
स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
चकित रहता शिशु सा नादान,
विश्व के पलकों पर सुकुमार
विचरते है स्वप्न अजान !
न जाने, नक्षत्रों से कौन ?
No.-15.निमंत्रण देता मुझको मौन !! ('मौन
निमंत्रण') -पंत
ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम कथा कहती हो
No.-16.तज कोलाहल की अवनी रे। ('लहर') -प्रसाद
No.-17.हिमालय के आंगन में जिसे प्रथम किरणों का दे उपहार
-प्रसाद
राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज
No.-18.जगत के सम्मुख एक वृहत सांस्कृतिक समस्या जग के
निकट उपस्थित -पंत
No.-19.छोड़ो मत ये सुख का कण है। -प्रसाद
No.-20.आह ! वेदना मिली विदाई। ('स्कंदगुप्त') -प्रसाद
No.-21.जिए तो सदा उसी के लिए यही अभिमान रहे यह हर्ष
निछावर कर दे हम सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष। ('स्कंदगुप्त') -प्रसाद
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
No.-22.जहाँ पहुँच अनजान झितिज को मिलता एक सहारा।
('चन्द्रगुप्त') -प्रसाद
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्जवला
स्वतंत्रता पुकारती
No.-23.अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़
प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है-बढ़े चलो, बढ़े
चलो। ('चन्द्रगुप्त') -प्रसाद
No.-24.भारत माता ग्रामवासिनी। -पंत
No.-25.भारति जय विजय करे। -निराला
शेरो की माँद में
आया है आज स्यार
No.-26.जागो फिर एक बार। -निराला
वह आता
No.-27.दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
-निराला
वह तोड़ती पत्थर।
No.-28.देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर। -निराला
वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा
गान।
No.-29.उमड़ कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।।
-पंत
विजय-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग भरी
स्नेह-स्वप्न-मग्न-अमल-कोमल तन तरुणी
जूही की कली
No.-30.दृग बंद किए, शिथिल पत्रांक में। ('जूही
की कली') -निराला
खुल गये छंद के बंध
No.-31.प्रास के रजत पाश। -पंत
मुक्त छंद
सहज प्रकाशन वह मन का
No.-32.निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र। -निराला
तुमुल कोलाहल में
No.-33.मैं हृदय की बात रे मन। ('कामायनी') -प्रसाद
प्रथम रश्मि का आना रंगिणि ! तूने कैसे
पहचाना ? -पंत
जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छाई,
दुर्दिन में आँसू बनकर
No.-34.वह आज बरसने आई। ('आँसू') -प्रसाद
बाँधों न नाव इस ठाँव, बंधु
!
No.-35.पूछेगा सारा गाँव, बंधु
! -निराला
No.-36.हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन।
जब विषण्ण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन।
(ताज -'युगांत')
-पंत
No.-37.'प्रसाद
पढ़ाने योग्य हैं, निराला पढ़े जाने योग्य है और पंतजी से
काव्यभाषा सीखने योग्य है' । -अज्ञेय
No.-38.छायावादी कविता का गौरव अक्षय है उसकी समृद्धि
की समता केवल भक्ति काव्य ही कर सकता है। -डॉ० नगेन्द्र
No.-39.'निराला
से बढ़कर स्वच्छंदतावादी कवि हिन्दी में नहीं है'। -हजारी प्रसाद द्विवेदी
No.-40.'मैं मजदूर हूँ, मजदूरी किए बिना मुझे भोजन करने का अधिकार नहीं'। -प्रेमचंद्र
No.-41.'यदि
प्रबंध काव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक चुना हुआ गुलदस्ता'।
-रामचन्द्र शुक्ल
No.-42.अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है
(स्कंदगुप्त') -प्रसाद
No.-43.स्नेह निर्झर बह गया है -निराला
No.-44.औ वरुणा की शांत कछार -प्रसाद
No.-45.सजनि मधुर निजत्व दे कैसे मिलू अभिमानिनी मैं
-महादेवी वर्मा
No.-46.प्रिय के हाथ लगाए जागी, ऐसी
मैं सो गई अभागी -निराला
No.-47.अधरों में राग अमंद पिये, अलकों
में मलयज बंद किये तू अब तक सोई है आली, आँखों में भरे विहाग री -प्रसाद
No.-48.कहो तुम रूपसि कौन, व्योम
से उत्तर रही चुपचाप -पंत
No.-49.शैया सैकत पर दुग्ध धवल तन्वंगी गंगा ग्रीष्म
विकल -पंत
'साहित्य,
राजनीति के पीछे चलनेवाली सच्चाई नहीं, बल्कि
उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सच्चाई है'।
-प्रेमचंद (प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष पद से
बोलते हुए, 1936)
छायावादयुगीन रचना एवं रचनाकार
A) छायावादी
काल धारा |
रचनाकार |
उर्वशी, वनमिलन, प्रेमराज्य, अयोध्या का
उद्धार, शोकोच्छवास, बभ्रूवाहन, |
जयशंकर प्रसाद |
अनामिका, परिमल, गीतिका, तुलसीदास, सरोज |
सूर्यकान्त त्रिपाठी |
स्मृति (कविता), राम की शक्ति
पूजा (कविता) |
'निराला' |
उच्छवास, ग्रन्थि, वीणा, पल्लव, गुंजन
(छायावादयुगीन); युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, रजतशिखर, उत्तरा, वाणी, पतझर, स्वर्ण काव्य, लोकायतन |
सुमित्रानंदन पंत |
नीहार, रश्मि, नीरजा व सांध्य गीत (सभी का संकलन 'यामा' नाम से) |
महादेवी वर्मा |
रूपराशि, निशीथ, चित्ररेखा, आकाशगंगा |
राम कुमार वर्मा |
राका, मानसी, विसर्जन, युगदीप, अमृत और विष |
उदय शंकर भट्ट |
निर्माल्य, एकतारा, कल्पना |
'वियोगी' |
अन्तर्जगत |
लक्ष्मी नारायण मिश्र |
अनुभूति, अन्तर्ध्वनि |
जनार्दन प्रसाद झा 'द्विज' |
B) राष्ट्रवादी सांस्कृतिक काव्य धारा |
रचनाकार |
कैदी और कोकिला, हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिनी, पुष्प की अभिलाषा (क०) |
माखन लाल चतुर्वेदी |
मौर्य विजय, अनाथ, दूर्वादल, विषाद, आर्द्रा, पाथेय, मृण्मयी, बापू, दैनिकी |
सिया राम शरण गुप्त |
त्रिधारा, मुकुल, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी (क०), वीरों का कैसा हो वसंत |
सुभद्रा कुमारी चौहान |
छायावादोत्तर युग (1936 ई०
के बाद)छायावादोत्तर युग में हिन्दी काव्यधारा
बहुमुखी हो जाती है-
A) पुरानी
काव्यधारा |
रचनाकार |
राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्यधारा |
सियाराम शरण गुप्त, माखन लाल
चतुर्वेदी, दिनकर, बालकृष्ण
शर्मा 'नवीन', सोहन लाल
द्विवेदी, श्याम नारायण पाण्डेय आदि। |
उत्तर-छायावादी काव्यधारा |
निराला, पंत, महादेवी, जानकी वल्लभ शास्त्री आदि। |
B) नवीन काव्यधारा |
रचनाकार |
वैयक्तिक गीति कविता धारा |
बच्चन, नरेंद्र
शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', भगवती चरण वर्मा, नेपाली, |
प्रगतिवादी काव्यधारा |
केदारनाथ अग्रवाल, राम विलास
शर्मा, नागार्जुन, रांगेय राघव, शिवमंगल सिंह |
प्रयोगवादी काव्य धारा |
अज्ञेय, गिरिजा कुमार
माथुर, मुक्तिबोध, भवानी प्रसाद
मिश्र, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर
भारती आदि। |
प्रगतिवाद (1936 ई०
से.... )
1935 ई० में इ० एम० फोस्टर ने प्रोग्रेसिव राइटर्स
एसोसिएशन नामक एक संस्था की नींव पेरिस में रखी थी। इसी की देखा-देखी सज्जाद जहीर
और मुल्क राज आनंद ने भारत में 1936 ई० में 'प्रगतिशील लेखक संघ' की
स्थापना की।
एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में
प्रगतिवाद का इतिहास मोटे तौर पर 1936 ई० से लेकर 1956 ई० तक का इतिहास है, जिसके
प्रमुख कवि हैं- केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन,
राम विलास शर्मा, रांगेय
राघव, शिव मंगल सिंह, 'सुमन', त्रिलोचन आदि।
किन्तु व्यापक अर्थ में प्रगतिवाद न तो
स्थिर मतवाद है और न ही स्थिर काव्य रूप बल्कि यह निरंतर विकासशील साहित्य धारा
है। प्रगतिवाद के विकास में अपना योगदान देनेवाले परवर्ती कवियों में केदारनाथ
सिंह, धूमिल, कुमार विमल,
अरुण कमल, राजेश
जोशी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
प्रगतिवाद काव्य का मूलाधार
मार्क्सवादी दर्शन है पर यह मार्क्सवादी का साहित्यिक रूपांतर मात्र नहीं है।
प्रगतिवाद आंदोलन की पहचान जीवन और जगत के प्रति नये दृष्टिकोण में निहित है।
यह नया दृष्टिकोण था : पुराने रूढ़िबद्ध
जीवन-मूल्यों का त्याग; आध्यात्मिक व रहस्यात्मक अवधारणाओं के स्थान पर
लोक आधारित अवधारणाओं को मानना; हर तरह के शोषण और दमन का विरोध; धर्म, लिंग, नस्ल, भाषा, क्षेत्र
पर आधृत गैर-बराबरी का विरोध; स्वतंत्रता,
समानता तथा लोकतंत्र में विश्वास; परिवर्तन
व प्रगति में विश्वास; मेहनतकश लोगों के प्रति गहरी सहानुभूति; नारी
पर हर तरह के अत्याचार का विरोध; साहित्य का लक्ष्य सामाजिकता में मानना आदि।
प्रगतिवाद वैसी साहित्यिक प्रवृत्ति है
जिसमें एक प्रकार की इतिहास चेतना, सामाजिक यथार्थ दृष्टि, वर्ग
चेतन विचारधारा, प्रतिबद्धता या पक्षधरता, गहरी
जीवनासक्ति, परिवर्तन के लिए सजगता और एक प्रकार की
भविष्योन्मुखी दृष्टि मौजूद हो।
प्रगतिवादी काव्य एक
सीधी-सहज-तेज-प्रखर, कभी व्यंग्यपूर्ण आक्रामक काव्य-शैली का वाचक
है।
प्रगतिवादी साहित्य को सोद्देश्य मानता
है और उसका उद्देश्य है 'जनता के लिए जनता का चित्रण' करना।
दूसरे शब्दों में, वह कला 'कला के लिए'
के सिद्धांत में यकीन नहीं करता बल्कि
उसका यकीन तो 'कला जीवन के लिए' के फलसफे में है। मतलब कि प्रगतिवाद
आनंदवादी मूल्यों के बजाय भौतिक उपयोगितावादी मूल्यों में विश्वास करता है।
राजनीति में जो स्थान 'समाजवाद' का है वही स्थान साहित्य में 'प्रगतिवाद' का है।
प्रगतिवादी काव्य की विशेषताएं :
No.-1. समाजवादी यथार्थवाद सामाजिक यथार्थ का चित्रण
No.-2. प्रकृति के प्रति लगाव
No.-3. नारी प्रेम
No.-4. राष्ट्रीयता
No.-5. सांप्रदायिकता का विरोध
No.-6. बोधगम्य भाषा (जनता की भाषा में जनता की बातें)
व व्यंग्यात्मकता
No.-7. मुक्त छंद का प्रयोग (मुक्त छंद का आधार कजरी, लावनी, ठुमरी
जैसे लोक गीत)
No.-8. मुक्तक काव्य रूप का प्रयोग।
छायावाद व प्रगतिवाद में अंतर
No.-1. छायावाद में कविता करने का उद्देश्य 'स्वान्तः
सुखाय' है जबकि प्रगतिवाद में 'बहुजन
हिताय बहुजन सुखाय' है।
No.-2. छायावाद में वैयक्तिक भावना प्रबल है जबकि
प्रगतिवाद में सामाजिक भावना।
No.-3. छायावाद में अतिशय कल्पनाशीलता है जबकि
प्रगतिवाद में ठोस यथार्थ।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
No.-1.मार हथौड़ा कर-कर चोट
लाल हुए काले लोहे को
जैसा चाहे वैसा मोड़। -केदारनाथ अग्रवाल
No.-2.घुन खाए शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बाँचे
फटी भीत है छत चूती है, आले
पर विसतुइया नाचे
बरसाकर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में
पाँच तमाचे
दुखरन मास्टर गढ़ते रहते किसी तरह आदम
के साँचे। -नागार्जुन
No.-3.बापू के भी ताऊ निकले
तीनों बंदर बापू के
सरल सूत्र उलझाऊ निकले
तीनों बंदर बापू के। -नागार्जुन
No.-4.काटो-काटो-काटो करवी
साइत और कुसाइत क्या है ?
मारो-मारो-मारो हंसिया
हिंसा और अहिंसा क्या है ?
जीवन से बढ़ हिंसा क्या है। -केदार नाथ
अग्रवाल
No.-5.भारत माता ग्रामवासिनी। -पंत
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिंगना चना
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल
सजकर खड़ा है। -केदार नाथ अग्रवाल
No.-6.हवा हूँ,
हवा हूँ
मैं वसंती हवा हूँ। -केदार नाथ अग्रवाल
No.-7.तेज धार का कर्मठ पानी
चट्टानों के ऊपर चढ़कर
मार रहा है घूंसे कसकर
तोड़ रहा है तट चट्टानी। -केदार नाथ
अग्रवाल
No.-8.मुझे जगत जीवन का प्रेमी
बना रहा है प्यार तुम्हारा। -त्रिलोचन
No.-9.खेत हमारे,
भूमि हमारी
सारा देश हमारा है
इसलिए तो हमको इसका
चप्पा-चप्पा प्यारा है। -नागार्जुन
No.-10.झुका यूनियन जैक
तिरंगा फिर ऊँचा लहराया
बांध तोड़ कर देखो कैसे
जन समूह लहराया। -राम विलास शर्मा
No.-11.जाने कब तक घाव भरेंगे इस घायल मानवता के
जाने कब तक सच्चे होंगे सपने सबकी समता
के। -नरेंद्र शर्मा
No.-12.मांझी न बजाओ वंशी मेरा मन डोलता
मेरा मन डोलता है जैसे जल डोलता
जल का जहाज जैसे हल-हल डोलता। -केदार
नाथ अग्रवाल
प्रयोगवाद (1943 ई०
से......)
यों तो प्रयोग हरेक युग में होते आये
हैं, किन्तु 'प्रयोगवाद'
नाम उन कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है
जो कुछ नये बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करनेवाले शिल्पगत
चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में 'तार सप्तक'
के माध्यम से वर्ष 1943 ई०
में प्रकाशन जगत में आई और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित होती गयी तथा जिनका
पर्यावसान 'नयी कविता'
में हो गया।
इस तरह की कविताओं को सबसे पहले नंद
दुलारे बाजपेयी ने 'प्रयोगवादी कविता' कहा।
प्रगतिवाद की प्रतिक्रिया में उभरे और 1943 ई०
के बाद की अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, मुक्तिबोध, नेमिचंद
जैन, भारत भूषण अग्रवाल, रघुवीर
सहाय, धर्मवीर भारती आदि तथा नकेनवादियों -नलिन
विलोचन शर्मा, केसरी कुमार व नरेश-की कविताएँ प्रयोगवादी कविताएँ
हैं। प्रयोगवाद के अगुआ कवि अज्ञेय को 'प्रयोगवाद का प्रवर्तक' कहा
जाता है।
चूँकि नकेनवादियों ने अपने काव्य को 'प्रयोग
पद्य' यानी 'प्रपद्य'
कहा है, इसलिए नकेनवाद को 'प्रपद्यवाद' भी
कहा जाता है।
चूँकि प्रयोगवाद का उदय प्रगतिवाद की
प्रतिक्रिया में हुआ इसलिए यह स्वाभाविक था कि प्रयोगवाद समाज की तुलना में
व्यक्ति को, विचार धारा की तुलना में अनुभव को, विषय
वस्तु की तुलना में कलात्मकता को महत्व देता। मतलब कि प्रयोगवाद भाव में
व्यक्ति-सत्य तथा शिल्प में रूपवाद का पक्षधर है।
प्रयोगवाद की विशेषताएँ :
No.-1. अनुभूति व यथार्थ का संश्लेषण/बौद्धिकता का
आग्रह
No.-2. वाद या विचार धारा का विरोध
No.-3. निरंतर प्रयोगशीलता
No.-4. नई राहों का अन्वेषण
No.-5. साहस और जोखिम
No.-6. व्यक्तिवाद
No.-7. काम संवेदना की अभिव्यक्ति
No.-8. शिल्पगत प्रयोग
No.-9. भाषा-शैलीगत प्रयोग।
शिल्प sके
प्रति आग्रह देखकर ही इन्हें आलोचकों ने रूपवादी (Formist) तथा इनकी कविताओं को 'रूपाकाराग्रही
कविता' कहा।
प्रगतिवाद ने जहाँ शोषित वर्ग/निम्न
वर्ग के जीवन को अपनी कविता के केन्द्र में रखा था जो उनके लिए अनजीया, अनभोगा
था वहाँ मध्यवर्गीय प्रयोगवादी कवियों ने उस यथार्थ का चित्रण किया जो स्वयं उनका
जीया हुआ, भोगा हुआ था। इसी कारण उनकी कविता में विस्तार
कम है लेकिन गहराई अधिक।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
पर झरे तो झर जाने दो
जीवन का रस लो
देह, मन,
आत्मा की रसना से
पर मरे तो मर जाने दो। -अज्ञेय
No.-2.नहीं,
सांझ
एक असभ्य आदमी की जम्हाई है .....< br> नहीं,
सांझ
एक शरीर लड़की है.....
नहीं,
सांझ
एक रद्दी स्याहसोख है -केसरी कुसार
No.-3.कन्हाई ने प्यार किया
कितनी गोपियों को कितनी बार
पर उड़ेलते रहे अपना सदा एक रूप पर
जिसे कभी पाया नहीं
जो किसी रूप में समाया नहीं
यदि किसी प्रेयसी में उसे पा लिया होता
तो फिर दूसरे को प्यार क्यों करता।
-अज्ञेय
No.-4.किन्तु हम है द्वीप
हम धारा नहीं हैं
स्थिर समर्पण है हमारा
द्वीप हैं हम। -अज्ञेय
No.-5.उड़ चल हारिल, लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा
किनका ! -अज्ञेय
No.-6.ये उपमान मैले हो गये हैं
देवता इन प्रतीकों से कर गये हैं कूच
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट
जाता है -अज्ञेय
No.-7.'प्रयोगवाद'
हिन्दी में बैठे-ठाले का धंधा बनकर आया
था।
प्रयोक्ताओं के पास न तो काव्य संबंधी
कोई कौशल था
और न किसी प्रकार की कथनीय वस्तु थी।
No.-8.('नयी साहित्य : नये प्रश्न') -नंददुलारे
वाजपेयी
नयी कविता (1951 ई०
से ....)
जिस तरह प्रयोगवादी काव्यांदोलन को
शुरू करने का श्रेय अज्ञेय की पत्रिका 'प्रतीक'
को प्राप्त है उसी तरह नयी कविता
आंदोलन को शुरू करने का श्रेय जगदीश प्रसाद गुप्त के संपादकत्व में निकलनेवाली
पत्रिका 'नयी कविता'
को जाता है।
'नयी कविता'
भारतीय स्वतंत्रता के बाद लिखी गयी उन
कविताओं को कहा जाता है, जिनमें परम्परागत कविता से आगे नये भाव बोधों
की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों और शिल्प विधान का अन्वेषण किया गया।
अज्ञेय को 'नयी
कविता का भारतेन्दु' कहा सकते हैं क्योंकि जिस प्रकार भारतेन्दु ने
जो लिखा ही, साथ ही उन्होंने समकालीनों को इस दिशा में
प्रेरित किया उसी प्रकार अज्ञेय ने भी स्वयं पृथुल साहित्य सृजन किया तथा औरों को
प्रेरित-प्रोत्साहित किया।
आम तौर पर 'दूसरा
सप्तक' और 'तीसरा सप्तक' के कवियों को नयी कविता के कवियों में
शामिल किया जाता है। 'दूसरा सप्तक' के कविगण : रघुवीर सहाय, धर्मवीर
भारती, नरेश मेहता,
शमशेर बहादुर सिंह, भवानी
प्रसाद मिश्र, शकुंतला माथुर व हरि नारायण व्यास। 'तीसरा
सप्तक' के कविगण : कीर्ति चौधरी, प्रयाग
नारायण त्रिपाठी, केदार नाथ सिंह, कुँवर नारायण, विजयदेव
नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना व मदन वात्स्यायन। अन्य
कवि : श्रीकांत वर्मा, दुष्यंत कुमार, मलयज, सुरेंद्र तिवारी, धूमिल, लक्ष्मीकांत
वर्मा, अशोक बाजपेयी, चंद्रकांत देवताले आदि।
नयी कविता आंदोलन में एक साथ
भिन्न-भिन्न वाद/दर्शन से जुड़े रचनाकार शामिल हुए। यदि अज्ञेय आधुनिक भावबोध
वादी-अस्तित्ववादी या व्यक्तिवादी हैं तो मुक्तिबोध, केदार नाथ सिंह आदि
मार्क्सवादी/समाजवादी; भवानी प्रसाद मिश्र यदि गाँधीवादी हैं तो रघुवर
सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि
लोहियावादी-समाजवादी और धर्मवीर भारती की रुचि सिर्फ देहवाद में हैं।
नयी कविता के रचनाकारों पर दो वाद या विचारधाराओं अस्तित्ववाद व आधुनिकतावाद का प्रभाव विशेष रूप से पड़ा। 'अस्तित्ववाद' एक आधुनिक दर्शन है जिसमें यह विश्वास किया जाता है कि मनुष्य के अनुभव महत्वपूर्ण होते हैं और प्रत्येक कार्य के लिए वह खुद उत्तरदायी होता है। वैयक्तिकता, आत्मसम्बद्धता, स्वतंत्रता, अजनबियत, संवेदना, मृत्यु, त्रास, ऊब आदि इसके मुख्य तत्व हैं। 'आधुनिकतावाद' का संबंध पूँजीवाद विकास से है। पूँजीवाद विकास के साथ उभरे नये जीवन-मूल्यों एवं नयी जीवन पद्धति को आधुनिकतावाद की संज्ञा दी जाती है। इतिहास और परम्परा से विच्छेद, गहन स्वात्म चेतना, तटस्थता और अप्रतिबद्धता, व्यक्ति स्वातंत्र्य, अपने-आप में बंद दुनिया आदि इसके मुख्य तत्व हैं।
नयी कविता की विशेषताएँ :
No.-1. कथ्य की व्यापकता
No.-2. अनुभूति की प्रमाणिकता
No.-3. लघुमानववाद,
क्षणवाद तथा तनाव व द्वन्द्व
No.-4. मूल्यों की परीक्षा (वैयक्तिकता का एक मूल्य के
रूप में स्थापना, निरर्थकता बोध, विसंगति बोध, पीड़ावाद
सामाजिकता)
No.-5. लोक-सम्पृक्ति
No.-6. काव्य संरचना (दो तरह की कविताएं : छोटी
कविताएं-प्रगीतात्मक, लंबी कविताएं-नाटकीय, क्रिस्टलीय
संरचना, छंदमुक्त कविता, फैंटेसी/स्वप्न कथा का भरपूर प्रयोग)
No.-7. काव्य-भाषा-बातचीत की भाषा, शब्दों
पर जोर
No.-8.नये उपमान,
नये प्रतीक, नये
बिम्बों का प्रयोग।
यदि छायावादी कविता का नायक 'महामानव' था, प्रगतिवादी
कविता का नायक 'शोषित मानव'
तो नयी कविता का नायक है 'लघुमानव' ।
1950 ई० का साल ऐतिहासिक दृस्टि से नयी कविता के
विकास का प्रायः चरम बिन्दु था। इस बिन्दु से एक रास्ता नयी कविता की रूढ़ियों की
ओर जाता था जिसमें बिम्ब आदि विज्ञापित नुस्खों का अंधानुकरण किया जाता या फिर
दूसरा रास्ता सच्चे सृजन का था जो बिम्बवादी प्रवृत्ति को तोड़ता। नये कवियों ने
दूसरा रास्ता अपनाया। फलतः धीरे-धीरे काव्य सृजन बिम्ब के दायरे से निकलकर सीधे
सपाट कथन की ओर अभिमुख हुआ, जिसे अशोक वाजपेयी 'सपाट
बयानी' की संज्ञा देते हैं।
प्रसिद्ध पंक्तियाँ
'कम-से-कम'
वाली बात न हमसे कहिए। -रघुवीर सहाय
No.-2.मौन भी अभिव्यंजना है
जितना तुम्हारा सच है, उतना
ही कहो
तुम व्याप नहीं सकते
तुममें जो व्यापा है उसे ही निबाहो।
-अज्ञेय
No.-3.जी हाँ,
हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ।
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ
मैं किसिम -किसिम के
No.-4.गीत बेचता हूँ। ('गीतफरोश') -भवानी
प्रसाद मिश्र
No.-5.हम सब बौने है, मन से, मस्तिष्क से
भावना से, चेतना
से भी बुद्धि से, विवेक से भी क्योंकि हम जन हैं
साधारण हैं
हम नहीं विशिष्ट। -गिरिजा कुमार माथुर
No.-6.मैं प्रस्तुत हूँ
यह क्षण भी कहीं न खो जाय
अभिमान नाम का, पद
का भी तो होता है। -कीर्ति चौधरी
No.-7.कुछ होगा,
कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा
न टूटे, न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अंदर एक
कायर टूटेगा, टूट ! -रघुवीर सहाय
जो कुछ है, उससे
बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए एक मेहतर
चाहिए
जो मैं हो नहीं सकता। -मुक्तिबोध
घूम गया कई मोड़। ('अंधेरे
में') -मुक्तिबोध
No.-9.दुखों के दागों को तमगों सा पहना
('अंधेरे में')
-मुक्तिबोध
No.-10.कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
('अंधेरे में')
-मुक्तिबोध
No.-11.मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ
लेकिन मुझे फ़ेंक मत
इतिहासों की सामूहिक गति
सहसा झूठी पड़ जाने पर क्या जाने
No.-12.सच्चाई टूटे हुए पहिये का आश्रय ले।
('टूटा पहिया')
-धर्मवीर भारती
No.-13.जिंदगी,
दो उंगलियों में दबी
सस्ती सिगरेट के जलते हुए टुकड़े की तरह
है
जिसे कुछ लम्हों में पीकर
गली में फ़ेंक दूँगा। -नरेश मेहता
No.-14.मैं यह तुम्हारा अश्वत्थामा हूँ
शेष हूँ अभी तक
जैसे रोगी मुर्दे के मुख में शेष रहता
है
गंदा कफ बासी पीप के रूप में
शेष अभी तक मैं ('अंधा
युग') -धर्मवीर भारती
No.-15.दुःख सबको मांजता है और
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु
जिनको माँजता है
उन्हें यह सीख देता है सबको मुक्त रखे।
-अज्ञेय
No.-16.अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब। ('अंधेरे
में') -मुक्तिबोध
No.-17.साँप !
तुम सभ्य हुए तो नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ (उत्तर दोगे ?)
तब कैसे सीखा डँसना
विषकहाँ पाया ? -अज्ञेय
No.-18.पर सच तो यह है
कि यहाँ या कहीं भी फर्क नहीं पड़ता।
तुमने जहाँ लिखा है 'प्यार'
वहाँ लिख दो 'सड़क'
फर्क नहीं पड़ता।
मेरे युग का मुहावरा है :
'फर्क नहीं पड़ता' । -केदार नाथ सिंह
No.-19.मैं मरूँगा सुखी
मैंने जीवन की धज्जियाँ उड़ाई है।
-अज्ञेय
छायावादोत्तर युगीन
प्रसिद्ध पंक्तियाँ (विविध) :
भूखे बालक अकुलाते हैं -दिनकर
लेकिन होता भूडोल, बवंडर
उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहसान खाली करो कि जनता आती है।
-दिनकर
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओं, जिससे
उथल-पुथल मच जाए
एक हिलोर इधर से आये, एक
हिलोर उधर से आए। -बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
No.-2.एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है, जो
न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ .... 'यह
तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है। (रोटी और संसद) -धूमिल
No.-3.क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है ?
(बीस साल बाद- 'संसद से सड़क तक') -धूमिल
No.-4.बाबूजी ! सच कहूँ- मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए, हर
आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है
(मोचीराम- 'संसद से सड़क तक') -धूमिल
No.-5.मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर 'आग' लिखा
है
और उनमें बालू और पानी भरा है।
(पटकथा- 'संसद से सड़क तक') -धूमिल
No.-6.अपने यहाँ संसद
तेल की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
(पटकथा- 'संसद से सड़क तक') -धूमिल
No.-7.अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार ('अपनी
केवल धार') -अरुण कमल
छायावादोत्तर युगीन रचना एवं रचनाकार
रचनाकार |
छायावादोत्तर युगीन रचना |
स्वयंभू |
पउम चरिउ, रिट्ठणेमि
चरिउ (अरिष्टनेमि चरित) |
रामधारी सिंह 'दिनकर' |
हुंकार, रेणुका, द्वंद्वगीत, कुरुक्षेत्र, इतिहास के आँसू, रश्मिरथी, धूप और धुआँ, दिल्ली, रसवंती, उर्वशी |
बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' |
कुंकुम, उर्मिला, अपलक, रश्मिरेखा, क्वासि, हम विषपायी जनम के |
हरिवंशराय 'बच्चन' |
मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, सूत की माला, निशा-निमंत्रण, एकांत संगीत, सतरंगिनी, मिलन-यामिनी, आरती और
अंगारे, आकुल अंतर |
सुमित्रा नंदन पंत |
शिल्पी, अतिमा, कला और बूढा चाँद, लोकायतन, सत्यकाम |
जानकी वल्लभ शास्त्री |
मेघगीत, अवंतिका |
नरेंद्र शर्मा |
प्रभातफेरी, प्रवासी के
गीत, पलाश वन, मिट्टी और
फूल, कदलीवन |
रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' |
मधूलिका, अपराजिता, किरणबेला, लाल चूनर |
आरसी प्रसाद सिंह |
कलापी, पांचजन्य |
केदारनाथ सिंह |
नींद के बादल, फूल नहीं रंग
बोलते हैं, अपूर्व, युग की गंगा |
नागार्जुन |
प्यासी पथराई आँखें, युगधारा, भस्मांकुर, सतरंगे पंखों
वाली; ऐसे भी हम क्या, ऐसे भी तुम
क्या; खिचड़ी विप्लव देखा हमने, हजार-हजार
बाँहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, हरिजन गाथा
(क०) |
रांगेय राघव |
राह का दीपक, अजेय खँडहर, पिघलते पत्थर, मेधावी, पांचाली |
गिरिजाकुमार माथुर |
मंजीर, कल्पांतर, शिलापंख चमकीले, नाश और
निर्माण, मशीन का पुर्जा, धूप के धान, मैं वक्त के हूँ सामने, छाया मत छूना
मन |
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' |
भूरी-भूरी खाक धूल, चाँद का मुँह
टेढ़ा है |
भवानीप्रसाद मिश्र |
सतपुड़ा के जंगल, गीतफरोश, खुशबू के शिलालेख, बुनी हुई
रस्सी, कालजयी, गाँधी पंचशती, कमल के फूल, इदं न मम, चकित है दुःख, वाणी की
दीनता |
सचिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' |
भग्नदूत, चिंता, इत्यलम, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्रधनुष रौंदे हुए ये, अरी ओ करुणा
प्रभामय, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों
में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जनता हूँ, सागर-मुद्रा, पहले मैं
सन्नाटा बुनता हूँ, महावृक्ष के नीचे, नदी की बाँक
पर छाया, प्रिजन डेज एंड अदर पोएम्स (अंग्रेजी में), असाध्य वीणा, रूपाम्बरा |
धर्मवीर भारती |
अंधायुग, कनुप्रिया, ठंडा लोहा, सात गीत वर्ष |
शमशेर बहादुर सिंह |
अमन का राग, चुका भी नहीं
हूँ मैं, इतने पास अपने |
कुँवर नारायण |
परिवेश, हम तुम, चक्रव्यूह, आत्मजयी, आमने-सामने |
नरेश मेहता |
संशय की एक रात, वनपाखी सुनो, मेरा समर्पित एकांत, बोलने दो चीड़
को |
त्रिलोचन |
मिट्टी की बारात, धरती, गुलाब और बुलबुल, दिगंत, ताप के ताये हुए दिन, सात शब्द, उस जनपद का कवि हूँ |
भारत भूषण अग्रवाल |
कागज के फूल, जागते रहो, मुक्तिमार्ग, ओ अप्रस्तुत
मन, उतना वह सूरज है |
दुष्यंत कुमार |
साये में धूप, सूर्य का
स्वागत, एक कंठ विषपायी, आवाज के घंटे |
प्रभाकर माचवे |
जहाँ शब्द हैं, तेल की
पकौड़ियाँ, स्वप्नभंग, अनुक्षण, मेपल |
रघुवीर सहाय |
सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के
विरुद्ध, लोग भूल गए हैं, मेरा
प्रतिनिधि, हँसो-हँसो जल्दी हँसो |
शंभूनाथ सिंह |
मन्वंतर, खण्डित सेतु |
शिवमंगल सिंह 'सुमन' |
हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय-सृजन, विश्वास बढ़ता
ही गया |
शकुंतला माथुर |
अभी और कुछ इनका, चाँदनी और
चूनर, दोपहरी, सुनसान गाड़ी |
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना |
खूँटियों पर टँगे लोग, कुआनो नदी, बाँस के पुल, काठ की
घंटियाँ, एक सूनी नाव, गर्म हवाएँ, जंगल का दर्द |
विजयदेव नारायण साही |
मछलीघर, संवाद तुम से
साखी |
जगदीश गुप्त |
नाव के पाँव, शब्दशः, हिमबिद्ध, युग्म |
हरिनारायण व्यास |
मृग और तृष्णा, एक नशीला
चाँद, उठे बादल झुके बादल, त्रिकोण पर
सूर्योदय |
श्रीकांत वर्मा |
मायदर्पण, मगध, शब्दों की शताब्दी, दीनारंभ |
राजकमल चौधरी |
कंकावती, मुक्तिप्रसंग |
अशोक वाजपेयी |
एक पतंग अनंत में, शहर अब भी
संभावना है |
बालस्वरूप राही |
जो नितांत मेरी है |
'धूमिल' |
संसद से सड़क तक, कल सुनना
मुझे, सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र |
अजित कुमार |
अंकित होने दो, अकेले कंठ की
पुकार |
रामदरश मिश्र |
पक गई है धूप, बैरंग बेनाम
चिट्ठियाँ |
डॉ० विनय |
एक पुरुष और, कई अंतराल, दूसरा राग |
जगदीश चतुर्वेदी |
इतिहास हंता |
प्रमोद कौंसवाल |
अपनी तरह का आदमी |
संजीव मिश्र |
कुछ शब्द जैसे मेज |
'निराला' |
कुकुरमुत्ता, गर्म पकौड़ी, प्रेम-संगीत, रानी और कानी
खजोहरा, मास्को डायलाग्स, स्फटिक शिला, नये पत्ते, गीत गुंज, सांध्य काकली (प्रकाशन मरणोपरांत- 1969 ई०) |
उदयप्रकाश |
सुनो कारीगर, क से कबूतर |
प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ
रचनाकार |
प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ |
देवराज |
आत्महत्याएँ, इला और
अमिताभ |
नरेश मेहता |
प्रवाद पर्व, महाप्रस्थान, शबरी |
भवानीप्रसाद मिश्र |
कालजयी |
भारतभूषण अग्रवाल |
अग्निलीक |
डॉ० विनय |
पुनर्वास का दण्ड, एक मृत्यु
प्रश्न |
जगदीश चतुर्वेदी |
सूर्यपुत्र |
रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' |
अपराधिता |
शैलेश जैदी |
अब किसे बनवास दोगे |
सप्तक के कवि
तार सप्तक' (1943 ई०) |
अज्ञेय, मुक्तिबोध, गिरिजाकुमार माथुर, प्रभाकर
माचवे, भारत भूषण अग्रवाल, नेमिचंद्र
जैन, रामविलास शर्मा |
दूसरा सप्तक (1951 ई०) |
रघुवीर सहाय, धर्मवीर
भारती, नरेश मेहता, शमशेर बहादुर
सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, शकुंतला माथुर, हरिनारायण व्यास |
तीसरा सप्तक (1959 ई०) |
कीर्ति चौधरी, प्रयाग
नारायण त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह, कुँवरनारायण, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वरदयाल
सक्सेना, मदन वात्स्यायन |
चौथा सप्तक (1979 ई०) |
अवधेश कुमार, राजकुमार
कुम्भज, स्वदेश भारती, नंद किशोर
आचार्य, सुमन राजे, श्रीराम
वर्मा व राजेंद्र किशोर |
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