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Hindi Language

 

 No.-1.हिन्दी भाषा का विकास

'हिंदी' विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में से एक है।

आकृति या रूप के आधार पर हिन्दी वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।

भाषा-परिवार के आधार पर हिन्दी भारोपीय (Indo-European) परिवार की भाषा है।

भारत में 4 भाषा-परिवार- भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रिक व चीनी-तिब्बती मिलते हैं। भारत में बोलनेवालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा-परिवार है।

भाषा-परिवार

भारत में बोलनेवालों का %

भारोपीय

73%

द्रविड़

25%

आस्ट्रिक

1.3%

चीनी-तिब्बती

0.7%

हिन्दी, भारोपीय/भारत-यूरोपीय के भारतीय-ईरानी (Indo-Iranian) शाखा के भारतीय आर्य (Indo-Aryan) उपशाखा की एक भाषा है।

भारतीय आर्यभाषा (भा. आ.) को तीन कालों में विभक्त किया जाता है।

नाम

प्रयोग काल

उदाहरण

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.)

1500 ई० पू० - 500 ई० पू०

वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत

मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.)

500 ई० पू - 1000 ई०

पालि, प्राकृत, अपभ्रंश

आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.)

1000 ई० - अब तक

हिन्दी और हिन्दीतर भाषाएं- बांग्ला, उड़िया, असमिया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी आदि

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.)

नाम

अन्य नाम

प्रयोग काल

वैदिक संस्कृत

छान्दस (यास्क, पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम)

1500 ई० पू० - 1000 ई० पू०

लौकिक संस्कृत

संस्कृत, भाषा (पाणिनी द्वारा प्रयुक्त नाम)

1000 ई० पू० - 500 ई० पू०

मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.)

नाम

प्रयोग काल

विशेष टिप्पणी

प्रथम प्राकृत काल : पालि

500 ई० पू० - 1ली ई०

भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध के सारे उपदेश पालि में ही हैं।

द्वितीय प्राकृत काल : प्राकृत

1ली ई० - 500 ई०

भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही है।

तृतीय प्राकृत काल : अपभ्रंश

500-1000 ई०

: अवहट्ट

900-1100 ई०

संक्रमणकालीन/संक्रातिकालीन भाषा

आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.)

 हिन्दी

प्राचीन हिन्दी

1100 ई० - 1400 ई०

मध्यकालीन हिन्दी

1400 ई० - 1850 ई०

आधुनिक हिन्दी

1850 ई० - अब तक

हिन्दी की आदि जननी संस्कृत है। संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी का रूप लेती है। सामान्यतः हिन्दी भाषा के इतिहास का आरंभ अपभ्रंश से माना जाता है।

हिन्दी का विकास क्रम :

 संस्कृत-पालि-प्राकृत-अपभ्रंश-अवहट्ट-प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी

(विकास चिह्न के लिए प्रयुक्त संकेत)

 अपभ्रंश

 अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई० से लेकर 1000 ई० के मध्य हुआ और इसमें साहित्य का आरंभ 8वीं सदी (स्वयंभू कवि) से हुआ, जो 13वीं सदी तक जारी रहा।

अपभ्रंश (अप + भ्रंश + घञ) शब्द का यों तो शाब्दिक अर्थ है 'पतन' किन्तु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट है- प्राकृत भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य।

प्रमुख रचनाकार : स्वयंभू- अपभ्रंश का वाल्मीकि ('पउम चरिउ' अर्थात राम काव्य), धनपाल ('भविस्सयत कहा'- अपभ्रंश का पहला प्रबंध काव्य), पुष्पदंत ('महापुराण', 'जसहर चरिउ'), सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएँ ('चरिया पद', 'दोहाकोशी') आदि।

अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास

अपभ्रंश के भेद

आधुनिक भारतीय आर्यभाषा

शौरसेनी

पश्चिमी हिन्दी
राजस्थानी
गुजराती

अर्द्धमागधी

पूर्वी हिन्दी

मागधी

बिहारी
उड़िया
बांग्ला
असमिया

खस

पहाड़ी (शौरसेनी से प्रभावित)

ब्राचड़

पंजाबी (शौरसेनी से प्रभावित)
सिन्धी

महाराष्ट्री

मराठी

अवहट्ट

 अवहट्ट 'अपभ्रष्ट' शब्द का विकृत रूप है। इसे 'अपभ्रंश का अपभ्रंश या 'परवर्ती अपभ्रंश' कह सकते हैं। अवहट्ट अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की संक्रमणकालीन/संक्रातिकालीन भाषा है। इसका कालखंड 900 ई० से 1100 ई० तक निर्धारित किया जाता है। वैसे साहित्य में इसका प्रयोग 14 वीं सदी तक होता रहा है।

अब्दुर रहमान, दामोदर पण्डित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को 'अवहट्ट' या 'अवहट्ठ' कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना में अपनी भाषा को मधुरतर बताते हैं : 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा/ते तैसन जम्पञो अवहट्ठा' अर्थात, देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है, इसे अवहट्ठा कहा जाता है।

प्रमुख रचनाकार : अद्दहमाण/अब्दुर रहमान ('संनेह रासय'/संदेश रासक'), दामोदर पण्डित ('उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण'), ज्योतिरीश्वर ठाकुर ('वर्ण रत्नाकर'), विद्यापति ('कीर्तिलता'), रोड कवि ('राउलवेल') आदि।

प्राचीन या पुरानी हिन्दी/प्रारंभिक या आरंभिक हिन्दी/आदिकालीन हिन्दी

 मध्यदेशीय भाषा-परंपरा की विशिष्ट उत्तराधिकारिणी होने के कारण हिन्दी का स्थान आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वोपरि है।

प्राचीन हिन्दी से अभिप्राय है- अपभ्रंश-अवहट्ट के बाद की भाषा।

हिन्दी का आदिकाल हिन्दी भाषा का शिशु-काल है। यह वह काल था जब अपभ्रंश-अवहट्ट का प्रभाव हिन्दी भाषा पर मौजूद था और हिन्दी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।

हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति

 'हिन्दी' शब्द की व्युत्पत्ति भारत के उत्तर-पश्चिम में प्रवहमान सिंधु नदी से संबंधित है। विदित है कि अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर-पश्चिम सिंहद्वार से ही भारत आए। भारत में आनेवाले इन विदेशियों ने जिस देश के दर्शन किए वह 'सिंधु' का देश था। ईरान (फारस) के साथ भारत के बहुत प्राचीन काल से ही संबंध थे और ईरानी 'सिंधु' को 'हिन्दू' कहते थे [सिंधु- हिन्दु, स का ह में तथा ध का द में परिवर्तन- पहलवी भाषा प्रवृति के अनुसार ध्वनि परिवर्तन। 'हिन्दु' से 'हिन्द' बना और फिर 'हिन्द' में फारसी भाषा के संबंध कारक प्रत्यय '' लगने से 'हिन्दी' बन गया। 'हिन्दी' का अर्थ है- 'हिन्द का'। इस प्रकार हिन्दी शब्द की उत्पत्ति हिन्द देश के निवासियों के अर्थ में हुई। आगे चलकर यह शब्द 'हिन्द की भाषा' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा।

 उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने आती हैं-

 No.-1. 'हिन्दी' शब्द का विकास कई चरणों में हुआ-

सिंधु - हिन्दु - हिन्द + ई - हिन्दी।

 No.-2. 'हिन्दी' शब्द मूलतः फारसी का है न कि हिन्दी भाषा का। यह ऐसे ही है जैसे बच्चा हमारे घर जन्मे और उसका नामकरण हमारा पड़ोसी करे। हालांकि कुछ कट्टर हिन्दी-प्रेमी 'हिन्दी' शब्द की व्युत्पत्ति हिन्दी भाषा में ही दिखाने की कोशिश की है, जैसे- हिन (हनन करनेवाला) + दु (दुष्ट) = हिन्दु अर्थात दुष्टों का हनन करनेवाला हिन्दु और उन लोगों की भाषा हिन्दी; हीन (हीनों) + दु (दलन) = हिन्दु अर्थात हीनों का दलन करनेवाला हिन्दु और उनकी भाषा हिन्दी। चूँकि इन व्युत्पत्तियों में प्रमाण कम, अनुमान अधिक है इसलिए सामान्यतः इन्हें स्वीकार नहीं किया जाता।

 No.-3.'हिन्दी' शब्द के दो अर्थ हैं- 'हिन्द देश के निवासी' (यथा- 'हिन्दी है हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा'- इक़बाल) और 'हिन्द की भाषा'। हाँ, यह बात अलग है कि अब यह शब्द इन दो आरंभिक अर्थो से पृथक हो गया है। इस देश के निवासियों को अब कोई 'हिन्दी' नहीं कहता बल्कि भारतवासी, हिन्दुस्तानी आदि कहते हैं। दूसरे, इस देश की व्यापक भाषा के अर्थ में भी अब 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं होता क्योंकि भारत में अनेक भाषाएँ हैं जो सब हिन्दी नहीं कहलाती। बेशक ये सभी हिन्दी की भाषाएँ हैं लेकिन केवल हिन्दी नहीं हैं। उन्हें हम पंजाबी, बांग्ला, असमिया, उड़िया, मराठी आदि नामों से पुकारते हैं इसलिए हिन्दी की इन सब भाषाओं के लिए 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता है।

 प्रमुख रचनाकार : 'हिन्दी' शब्द भाषा विशेष का वाचक नहीं है बल्कि यह भाषा-समूह का नाम है। हिन्दी जिस भाषा-समूह का नाम है उसमें आज के हिन्दी प्रदेश/क्षेत्र की 5 उपभाषाएँ तथा 17 बोलियाँ शामिल हैं। बोलियों में ब्रजभाषा, अवधी एवं खड़ी बोली को आगे चलकर मध्यकाल में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ।

ब्रजभाषा : प्राचीन हिन्दी काल में ब्रजभाषा अपभ्रंश-अवहट्ट से ही जीवन-रस लेती रही। अपभ्रंश-अवहट्ट की रचनाओं में ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का 'प्रद्युम्न चरित' (1354 ई०) हैं।

अवधी : अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद की 'चंदायन' या 'लोरकहा' (1370 ई०) मानी जाती है। इसके उपरांत अवधी भाषा के साहित्य का उत्तरोतर विकास होता गया।

खड़ी बोली : प्राचीन हिन्दी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरंभिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर खुसरो जैसे सूफियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश-अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।

मध्यकालीन हिन्दी

 मध्यकाल में हिन्दी का स्वरूप स्पष्ट हो गया तथा उसकी प्रमुख बोलियाँ विकसित हो गई। इस काल में भाषा के तीन रूप निखरकर सामने आए- ब्रजभाषा, अवधी व खड़ी बोली। ब्रजभाषा और अवधी का अत्यधिक साहित्यिक विकास हुआ तथा तत्कालीन ब्रजभाषा साहित्य को कुछ देशी राज्यों का संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में खड़ी बोली के मिश्रित रूप का साहित्य में प्रयोग होता रहा। इसी खड़ी बोली का 14वीं सदी में दक्षिण में प्रवेश हुआ, अतः वहाँ इसका साहित्य में अधिक प्रयोग हुआ। 18वीं सदी में खड़ी बोली को मुसलमान शासकों का संरक्षण मिला तथा इसके विकास को नई दिशा मिली।

प्रमुख रचनाकार

 ब्रजभाषा : हिन्दी के मध्यकाल में मध्य देश की महान भाषा परंपरा के उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह ब्रजभाषा ने किया। यह अपने समय की परिनिष्ठित व उच्च कोटि की साहित्यिक भाषा थी, जिसको गौरवान्वित करने का सर्वाधिक श्रेय हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों को है। पूर्व मध्यकाल (अर्थात भक्तिकाल)में कृष्णभक्त कवियों ने अपने साहित्य में ब्रजभाषा का चरम विकास किया। पुष्टि मार्ग/शुद्धाद्वैत संप्रदाय के सूरदास ('सूर सागर'), नंद दास, निम्बार्क संप्रदाय के श्री भट्ट, चैतन्य संप्रदाय के गदाधर भट्ट, राधा-वल्लभ संप्रदाय के हित हरिवंश (श्री कृष्ण की बाँसुरी के अवतार) एवं संप्रदाय-निरपेक्ष कवियों में रसखान, मीराबाई आदि प्रमुख कृष्णभक्त कवियों ने ब्रजभाषा के साहित्यिक विकास में अमूल्य योगदान दिया। इनमें सर्वप्रमुख स्थान सूरदास का है जिन्हें 'अष्टछाप का जहाज' कहा जाता है। उत्तर मध्यकाल (अर्थात रीतिकाल) में अनेक आचार्यो एवं कवियों ने ब्रजभाषा में लाक्षणिक एवं रीति ग्रंथ लिखकर ब्रजभाषा के साहित्य को समृद्ध किया। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, मतिराम, बिहारी, देव, पद्माकर, भिखारी दास, सेनापति, मतिराम आदि तथा रीतिमुक्त कवियों में घनानंद, आलम, बोधा आदि प्रमुख हैं। (ब्रजबुलि- बंगाल में कृष्णभक्त कवियों द्वारा प्रचारित भाषा का नाम।)

अवधी : अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफी/प्रेममार्गी कवियों को है। कुत्बन ('मृगावती'), जायसी ('पद्मावत'), मंझन ('मधुमालती'), आलम ('माधवानल कामकंदला'), उसमान ('चित्रावली'), नूर मुहम्मद ('इन्द्रावती'), कासिमशाह ('हंस जवाहिर'), शेख निसार ('यूसुफ़ जुलेखा'), अलीशाह ('प्रेम चिंगारी') आदि सूफी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा प्रदान की। इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे। अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदास ने 'राम चरित मानस' की रचना बैसबाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है जायसी और तुलसीदास में। जायसी के यहाँ अवधी का ठेठ ग्रामीण रूप में मिलता है वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप। (गोहारी/गोयारी- बंगाल में सूफियों द्वारा प्रचारित अवधी भाषा का नाम।)

खड़ी बोली : मध्यकाल में खड़ी बोली का मुख्य केन्द्र उत्तर से बदलकर दक्कनी में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल में खड़ी बोली के दो रूप हो गए- उत्तरी हिन्दी व दक्कनी हिन्दी। खड़ी बोली का मध्यकालीन रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास, रज्जब आदि संतों; गंग की 'चन्द छन्द वर्णन की महिमा', रहीम के 'मदनाष्टक', आलम के 'सुदामा चरित', जटमल की 'गोरा बादल की कथा', वली, सौदा, इन्शा, नजीर आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, 'कुतुबशतम' (17वीं सदी), 'भोगलू पुराण' (18वीं सदी), सन्त प्राणनाथ के 'कुलजमस्वरूप' आदि में मिलता है।

आधुनिककालीन हिन्दी

 हिन्दी के आधुनिक काल तक आतेआते ब्रजभाषा जनभाषा से काफी दूर हट चुकी थी और अवधी ने तो बहुत पहले से ही साहित्य से मुँह मोड़ लिया था। 19वीं सदी के मध्य तक अंग्रेजी सत्ता का महत्तम विस्तार भारत में हो चुका था। इस राजनीतिक परिवर्तन का प्रभाव मध्य देश की भाषा हिन्दी पर भी पड़ा। नवीन राजनितिक परिस्थितियों ने खड़ी बोली को प्रोत्साहन प्रदान किया। जब ब्रजभाषा और अवधी का साहित्यिक रूप जनभाषा से दूर हो गया तब उनका स्थान खड़ी बोली धीरे-धीरे लेने लगी। अंग्रेजी सरकार ने भी इसका प्रयोग आरंभ कर दिया।

हिन्दी के आधुनिक काल में प्रारंभ में एक ओर उर्दू का प्रचार होने और दूसरी ओर काव्य की भाषा ब्रजभाषा होने के कारण खड़ी बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते-आते खड़ी बोली गद्य-पद्य दोनों की साहित्यिक भाषा बन गई।

इस युग में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने में विभिन्न धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों ने बड़ी सहायता की। फलतः खड़ी बोली साहित्य की सर्वप्रमुख भाषा बन गयी।

खड़ी बोली

 भारतेन्दु-पूर्व युग : खड़ी बोली गद्य के आरंभिक रचनाकारों में फोर्ट विलियम कॉलेज के बाहर के दो रचनाकारों- सदासुख लाल 'नियाज' ('सुखसागर') व इंशा अल्ला खां ('रानी केतकी की कहानी')- तथा फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता के दो भाषा मुंशियों- लल्लू लालजी ('प्रेम सागर') व सदल मिश्र ('नसिकेतोपाख्यान')- के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु-पूर्व युग में मुख्य संघर्ष हिन्दी की स्वीकृति और प्रतिष्ठा को लेकर था। इस युग के दो प्रसिद्ध लेखकों- राजा शिव प्रसाद 'सितारे हिन्द' व राजा लक्ष्मण सिंह- ने हिन्दी के स्वरूप निर्धारण के प्रश्न पर दो सीमांतों का अनुगमन किया। राजा शिव प्रसाद ने हिन्दी का गँवारूपन दूर कर-कर उसे उर्दू-ए मुअल्ला बना दिया तो राजा लक्ष्मण सिंह ने विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया।

भारतेन्दु युग (1850 ई०-1900 ई०) : इन दोनों के बीच सर्वमान्य हिन्दी गद्य की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक कार्य भारतेन्दु युग में हुआ। हिन्दी सही मायने में भारतेन्दु के काल में 'नई चाल में ढली' और उनके समय में ही हिन्दी के गद्य के बहुमुखी रूप का सूत्रपात हुआ। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की बल्कि अपना एक लेखक मंडल भी तैयार किया, जिसे 'भारतेन्दु मंडल' कहा गया। भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम रूप में अपनाकर युगानुरूप स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया। लेकिन पद्य रचना के मामले में ब्रजभाषा या खड़ी बोली को अपनाने के प्रश्न पर विवाद बना रहा जिसका अंत द्विवेदी युग में जाकर हुआ।

द्विवेदी युग (1900 ई०-1920 ई०) : खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य से 1903 ई० में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' पत्रिका के संपादकत्व का भार संभाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। वे लेखकों की वर्तनी अथवा व्याकरण संबंधी त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे। उन्होंने हिन्दी के परिष्कार का बीड़ा उठाया और उसे बखूबी अंजाम दिया। गद्य तो भारतेन्दु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिष्ठित होने लगी। इस प्रकार ब्रजभाषा, जिसके साथ 'भाषा' शब्द जुड़ा है, अपने क्षेत्र में सीमित हो गई अर्थात 'बोली' बन गई। इसके मुकाबले में खड़ी बोली, जिसके साथ 'बोली' शब्द लगा है, 'भाषा' बन गई, और इसका सही नाम 'हिन्दी' हो गया। अब खड़ी बोली दिल्ली के आस-पास की मेरठ-जनपदीय बोली नहीं रह गई अपितु वह समस्त उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध विधाएं विकसित हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्याम सुंदर दास, पद्म सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्र, पूर्ण सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि के अवदान विशेषतः उल्लेखनीय हैं।

छायावाद युग (1918 ई०-1936 ई०) एवं उसके बाद : साहित्यिक खड़ी बोली हिन्दी के विकास में छायावाद युग का योगदान महत्वपूर्ण है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा और राम कुमार वर्मा आदि ने इसमें महती योगदान दिया। इनकी रचनाओं को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता है कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में ब्रजभाषा से कम समर्थ है। हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ। अभिव्यंजना की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, रसात्मक लालित्य छायावाद युग की भाषा की अन्यतम विशेषताएं है। हिन्दी काव्य में छायावाद युग के बाद प्रगतिवाद युग (1936 ई०-1946 ई०) प्रयोगवाद युग (1943 से) आदि आए। इस दौर में खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में उत्तरोत्तर विकास होता गया।

पद्य के ही नहीं, गद्य के संदर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जो भाषा-शैलियाँ और मर्यादाएं स्थापित की उनका अनुसरण आज भी किया जा रहा है। गद्य-साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य-साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर किया गया है, जैसे उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद-पूर्व युग, प्रेमचन्द युग, प्रेमचंदोत्तर युग; नाटक के इतिहास में प्रसाद-पूर्व युग, प्रसाद युग, प्रसादोत्तर युग; आलोचना के इतिहास में शुक्ल-पूर्व युग, शुक्ल युग, शुक्लोत्तर युग।

हिंदी के विभिन्न नाम या रूप

 No.-1. हिन्दवी/हिन्दुई/जबान-ए-हिन्दी/देहलवी : मध्यकाल में मध्यदेश के हिन्दुओं की भाषा, जिससे अरबी-फारसी शब्दों का अभाव है। [सर्वप्रथम अमीर खुसरो (1253-1325) ने मध्य देश की भाषा के लिए हिन्दवी, हिन्दी शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने देशी भाषा हिन्दवी, हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए एक फारसी-हिन्दी कोश 'खालिक बारी' की रचना की, जिसमें हिन्दवी शब्द 30 बार, हिन्दी शब्द 5 बार देशी भाषा के लिए प्रयुक्त हुआ है।]

 No.-2. भाषा/भाखा : विद्यापति, कबीर, तुलसी, केशवदास आदि ने भाषा शब्द का प्रयोग हिन्दी के लिए किया है। [19 वीं सदी के प्रारंभ तक इस शब्द का प्रयोग होता रहा है। फोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्त हिन्दी अध्यापकों को 'भाषा मुंशी' के नाम से अभिहित करना इसी बात का सूचक है।]

 No.-3. रेख्ता : मध्यकाल में मुसलमानों में प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों से मिश्रित कविता की भाषा। (जैसे- मीर, ग़ालिब की रचनाएँ)

 No.-4. दक्खिनी/दक्कनी : मध्यकाल में दक्कन के मुसलमानों द्वारा फारसी लिपि में लिखी जानेवाली भाषा। [हिन्दी में गद्य रचना परंपरा की शुरुआत करने का श्रेय दक्कनी हिन्दी के रचनाकारों को ही है। दक्कनी हिन्दी को उत्तरी भारत में लाने का श्रेय प्रसिद्ध शायर वली दक्कनी (1667-1707) को है। वह मुगल शासन काल में दिल्ली पहुँचा और उत्तरी भारत में दक्कनी हिन्दी को लोकप्रिय बनाया।]

 No.-5. खड़ी बोली

खड़ी बोली की 3 शैलियाँ

 हिन्दी/शुद्ध हिन्दी/उच्च हिन्दी/नागरी हिन्दी/आर्यभाषा : नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली (जैसे-जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ)

 उर्दू/जबान-ए-उर्दू/जबान-ए-उर्दू-मुअल्ला : फारसी लिपि में लिखित अरबी-फारसी बहुल खड़ी बोली (जैसे-मण्टो की रचनाएँ)

 हिन्दुस्तानी : हिन्दी-उर्दू का मिश्रित रूप व आम जन द्वारा प्रयुक्त (जैसे- प्रेमचंद्र की रचनाएँ)

 नोट : 13वीं सदी से 18वीं सदी तक हिन्दी-उर्दू में कोई मौलिक भेद नहीं था।

 हिन्दी के विभिन्न अर्थ

 No.-1. भाषा शास्त्रीय अर्थ : नागरी लिपि में लिखित संस्कृत बहुल खड़ी बोली।

No.-2. संवैधानिक/क़ानूनी अर्थ : संविधान के अनुसार, हिन्दी भारत संघ की राजभाषा या अधिकृत भाषा तथा अनेक राज्यों की राजभाषा है।

No.-3. सामान्य अर्थ : समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की परिनिष्ठित भाषा अर्थात शासन, शिक्षा, साहित्य, व्यापार आदि की भाषा।

No.-4. व्यापक अर्थ : आधुनिक युग में हिन्दी को केवल खड़ी बोली में ही सीमित नहीं किया जा सकता। हिन्दी की सभी उपभाषाएँ और बोलियाँ हिन्दी के व्यापक अर्थ में आ जाती हैं।

No.-2. स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिन्दी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास

राष्ट्रभाषा (National Language) क्या है ?

 No.-1. राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ है- समस्त राष्ट्र में प्रयुक्त भाषा अर्थात आम जन की भाषा (जनभाषा) । जो भाषा समस्त राष्ट्र में जन-जन के विचार-विनिमय का माध्यम हो, वह राष्ट्रभाषा कहलाती है।

No.-2. राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद-सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती हैं किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।

No.-3. स्वतंत्रता--संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की आवश्यकता होती है। भारत के संदर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिन्दी ने किया। यही कारण है कि हिन्दी स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान (विशेषतः 1900 ई०-1947 ई०) राष्ट्रभाषा बनी।

No.-4. राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता-प्राप्त शब्द है।

No.-5. राष्ट्रभाषा सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं-परंपराओं के द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है।

No.-6. राष्ट्रभाषा का प्रयोग-क्षेत्र विस्तृत और देशवासी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क-भाषा होती है। इसका व्यापक अनाधार होता है।

No.-7. राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।

 (राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी भी रूप में ढाला जा सकता है।

 No.-8. राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी भी रूप में ढाला जा सकता है।

 No.-1.अंग्रेजों का योगदान

राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क-भाषा (link-language) होती है। हिन्दी दीर्घकाल से सारे देश में जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यो- वल्लभाचार्य, रामानुज, आदि- ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त-संत कवियों (जैसे असम के शंकर देव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था।

यही कारण था कि जब जनता और सरकार के बीच संवाद-स्थापना के क्रम में फारसी या अंग्रेजी के माध्यम से दिक्कतें पेश आई तो कंपनी सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देखकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा।

सी० टी० मेटकाफ ने 1806 ई० में अपने शिक्षा गुरु जान गिलक्राइस्ट को लिखा : 'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा तक.... मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है...... मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक या जावा से सिन्धु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'

टॉमस रोबक ने 1807 ई० में लिखा : 'जैसे इंग्लैण्ड जानेवाले को लैटिन सेक्सन या फ्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'

विलियम केरी ने 1816 ई० में लिखा : 'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जानेवाली भाषा है।

एच० टी० कोलब्रुक ने लिखा : 'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े-बहुत लोग अवश्य समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।

जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को 'आम बोलचाल की महाभाषा' (Great Lingua France) कहा है।

इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि ही हिन्दी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेजों ने हिन्दी को अपनाया। उस समय हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा मानी जाती थी जो दो लिपियों में लिखी जाती थी। अंग्रेजों ने हिन्दी को प्रयोग में लाकर हिन्दी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।

No.-2. धर्म/समाज सुधारकों का योगदान

धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी संस्थाओं ने हिन्दी के महत्व को भाँपा और हिन्दी की हिमायत की।

ब्रह्म समाज (1828 ई०) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा : 'इस समग्र देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है' । ब्रह्मसमाजी केशव चन्द्र सेन ने 1875 ई० में एक लेख लिखा- 'भारतीय एकता कैसे हो', जिसमें उन्होंने लिखा : 'उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित है, उनमें हिन्दी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिन्दी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बनायी जाय, तो यह काम सहज ही और शीघ्र सम्पन्न हो सकता है' । एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चन्द्र राय ने पंजाब में हिन्दी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।

आर्य समाज (1875 ई०) के संस्थापक दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिन्दी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मजबूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिन्दी में लिखा। उनका कहना था कि 'हिन्दी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है'। वे इस 'आर्यभाषा' को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, 'मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती है जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जायँ।'

अरविंद दर्शन के प्रणेता अरविंद घोष की सलाह थी कि 'लोग अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिन्दी को ग्रहण करें।

थियोसोफिकल सोसायटी (1875 ई०) की संचालिका ऐनी बेसेंट ने कहा था : 'भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिन्दी है। हिन्दी जाननेवाला आदमी संपूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिन्दी बोलनेवाले मिल सकते हैं। ...... भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।'

उपर्युक्त धार्मिक/सामाजिक संस्थाओं के अतिरिक्त प्रार्थना समाज (स्थापना 1867 ई०, संस्थापक-आत्मारंग पाण्डुरंग), सनातन धर्म सभा (स्थापना 1895 ई०, संस्थापक-पं० दीनदयाल शर्मा), रामकृष्ण मिशन (स्थापना 1897 ई०, संस्थापक-विवेकानंद) आदि ने हिन्दी प्रचार में योग दिया।

इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिन्दी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिन्दी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत के लोगों से सिर्फ इसी भाषा में विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म/समाज सुधारकों ने किया।

No.-3.कांग्रेस के नेताओं का योगदान

1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसे-जैसे कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन जोर पकड़ता गया, वैसे-वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झंडा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता गया।

1917 ई० में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा : 'यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ जो चाहते है और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।' तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि हिन्दी सीखें।

महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था : 'राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है'। गाँधीजी हिन्दी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे : 'हिन्दी का प्रश्न स्वराज का प्रश्न है'। उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा-समस्या पर गंभीरता से विचार किया। 1917 ई० भड़ौच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा :

राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्ते होनी चाहिए-

No.-1.

अमलदारों (राजकीय अधिकारियों) के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए।

No.-2.

यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों।

No.-3.

उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए।

No.-4.

राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए।

No.-5.

उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर जोर नहीं देनी चाहिए।‘’

वर्ष 1918 ई० में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशनमें सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया : मेरा यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए। इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिन्दी सीखने को प्रयाग भेजे जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिणी भाषाएँ सीखने तथा हिन्दी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिन्दी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में मद्रास भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927 ई०) एवं वर्धा (1936 ई०) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की गई।

वर्ष 1925 ई० में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम-काज आमतौर पर हिन्दी में चलाया जाएगा। इस प्रस्ताव से हिन्दी-आंदोलन को बड़ा बल मिला।

वर्ष 1927 ई० में गाँधीजी ने लिखा : वास्तव में ये अंग्रेजी में बोलनेवाले नेता हैं जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिन्दी सीखने से इंकार करते हैं जबकि हिन्दी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अंदर सीखी जा सकती है।

वर्ष 1927 ई० में सी० राजगोपालाचारी ने दक्षिणवालों को हिन्दी सीखने की सलाह दी और कहा : हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी

वर्ष 1928 ई० में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा संबंधी सिफारिश में कहा गया था : देवनागरी अथवा फारसी में लिखी जानेवाली हिन्दुस्तानी भारत की राजभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेजी का उपयोग जारी रहेगा। सिवाय देवनागरी या फारसीकी जगह देवनागरीतथा हिन्दुस्तानीकी जगह हिन्दीरख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।

वर्ष 1929 ई० में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा : प्रांतीय ईष्र्या-द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रांतीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रांतों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है

वर्ष 1931 ई० में गाँधीजी ने लिखा : यदि स्वराज्य अंग्रेजी-पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताये हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिन्दी हो सकती है

गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे।

वर्ष 1936 ई० में गाँधीजी ने कहा : अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिन्दी ही बन सकती है क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता

वर्ष 1937 ई० में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिन्दी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया।

जैसे-जैसे स्वतंत्रता-संग्राम तीव्रतर होता गया वैसे-वैसे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन जोर पकड़ता गया। 20 वीं सदी के चौथे दशक तक हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत-प्रोत जितनी रचनाएँ हिन्दी में लिखी गई उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा के प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेजी को भारत छोड़ना पड़ा।

 राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित धार्मिक सामाजिक संस्थाएँ

नाम

मुख्यालय

स्थापना

संस्थापक

ब्रह्म समाज

कलकत्ता

1828 ई०

राजा राम मोहन राय

प्रार्थना समाज

बंबई

1867 ई०

आत्मारंग पाण्डुरंग

आर्य समाज

बंबई

1875 ई०

दयानंद सरस्वती

थियोसोफिकल सोसायटी

अडयार मद्रास

1882 ई०

कर्नल एच.एस.आलकाट एवं मैडम बलावत्सकी

सनातन धर्म सभ (भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन)

वाराणसी

1895 ई०

पं० दीन दयाल शर्मा

रामकृष्ण मिशन

बेलुर

1897 ई०

विवेकानंद

राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित साहित्यिक संस्थाएँ

नाम

मुख्यालय

स्थापना

नागरी प्रचारिणी सभा

काशी/वाराणसी

1893 ई०
संस्थापक-त्रयी-श्याम सुंदर दास, राम नारायण मिश्र व शिव कुमार सिंह

हिन्दी साहित्य सम्मेलन

प्रयाग

1910 ई० (प्रथम सभापति-मदन मोहन मालवीय)

गुजरात विद्यापीठ

अहमदाबाद

1920 ई०

बिहार विद्यापीठ

पटना

1921 ई०

हिन्दुस्तानी एकेडमी

इलाहाबाद

1927 ई०

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (पूर्व नाम-हिन्दी साहित्य सम्मेलन)

मद्रास

1927 ई०

हिन्दी विद्यापीठ

देवघर

1929 ई०

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति

वर्धा

1936 ई०

महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा

पुणे

1937 ई०

बंबई हिन्दी विद्यपीठ

बंबई

1938 ई०

असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति

गुवाहटी

1938 ई०

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद

पटना

1951 ई०

अखिल भारतीय हिन्दी संस्था संघ

नई दिल्ली

1964 ई०

नागरी लिपि परिषद

नई दिल्ली

1975 ई०

राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित व्यक्तित्व

 बंगाल : राजा राम मोहन राय, केशवचन्द्र सेन, नवीन चन्द्र राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, तरुणी चरण मित्र, राजेन्द्र लाल मित्र, राज नारायण बसु, भूदेव मुखर्जी, बंकिम चन्द्र चटर्जी (हिन्दी भाषा की सहायता से भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों के मध्य में जो ऐक्यबंधन संस्थापन करने में समर्थ होंगे वही सच्चे भारतबंधु पुकारे जाने योग्य है।), सुभाष चन्द्र बोस (अगर आज हिन्दी भाषा मान ली गई है तो वह इसलिए नहीं कि वह किसी प्रांत विशेष की भाषा है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी सरलता, व्यापकता तथा क्षमता के कारण सारे देश की भाषा हो सकती है।‘), रवीन्द्र नाथ टैगोर (यदि हम प्रत्येक भारतीय के नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, तो हमें राष्ट्रभाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश के सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और जिसे स्वीकार करने की सिफारिश महात्मा गाँधी ने हमलोगों से की है। इसी विचार से हमें एक भाषा की आवश्यकता है और वह हिन्दी है।‘), रामानंद चटर्जी, सरोजनी नायडू, शारदा चरण मित्र (अखिल भारतीय लिपि के रूप में देवनागरी लिपि के प्रथम प्रचारक), आचार्य क्षिति मोहन सेन (हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु जो अनुष्ठान हुए हैं, उनको मैं संस्कृति का राजसूय यज्ञ समझता हूँ।आदि।

 

महाराष्ट्र : बाल गंगाधर तिलक (यह आंदोलन उतर भारत में केवल एक सर्वमान्य लिपि के प्रचार के लिए नहीं है। यह तो उस आंदोलन का एक अंग है, जिसे मैं राष्ट्रीय आंदोलन कहूँगा और जिसका उद्देश्य समस्त भारतवर्ष के लिए एक राष्ट्रीय भाषा की स्थापना करना है, क्योंकि सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण अंग है। अतएव यदि आप किसी राष्ट्र के लोगों को एक दूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा से बढ़कर सशक्त अन्य कोई बल नहीं है।‘), एन.सी.केलकर, डॉ भण्डारकर, वी० डी० सावरकर, गोपाल कृष्ण गोखले, गाडगिल, काका कालेलकर आदि।

 पंजाब : लाला लाजपत राय, श्रद्धाराम फिल्लौरी आदि।

 गुजरात : दयानंद सरस्वती, महात्मा गाँधी, वल्लभभाई पटेल, कन्हैयालाल माणिकलाल (के० एम०) मुंशी (हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना नहीं है; वह तो है ही।) आदि।

 दक्षिण भारत : सी० राजागोपालाचारी, टी० विजयराघवाचार्य (हिन्दुस्तान की सभी जीवित और प्रचलित भाषाओं में मुझे हिन्दी ही राष्ट्रभाषा बनने के लिए सबसे अधिक योग्य दीख पड़ती है।), सी० पी० रामास्वामी अय्यर (देश के विभिन्न भागों के निवासियों के व्यवहार के लिए सर्वसुगम और व्यापक तथा एकता स्थापित करने के साधन के रूप में हिन्दी का ज्ञान आवश्यक है।‘), अनन्त शयनम आयंगर (हिन्दी ही उत्तर और दक्षिण को जोड़नेवाली समर्थ भाषा है।‘), एस० निजलिंगप्पा (दक्षिण की भाषाओं ने संस्कृत से बहुत कुछ लेन-देन किया है, इसलिए उसी परंपरा में आई हुई हिन्दी बड़ी सरलता से राष्ट्रभाषा होने लायक है।‘), रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर (जो राष्ट्रप्रेमी है, उसे राष्ट्रभाषा प्रेमी होना चाहिए।‘), के० टी० भाष्यम, आर० वेंकटराम शास्त्री, एन० सुन्दरैया आदि।

 अन्य : मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन (उपनाम- हिन्दी का प्रहरी’, कथन : मैं हिन्दी का और हिन्दी मेरी है।‘), राजेन्द्र प्रसाद, सेठ गोविंद दास आदि।

 महात्मा गाँधी के भाषा-संबंधी विचार

No.-1.  करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी'। ('हिन्द स्वराज्य' 1909)

No.-2.  'अंग्रेजी भाषा हमारे राष्ट्र के पांव में बेड़ी बनकर पड़ी हुई है। ...... भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी के मार्फत ज्ञान अर्जित करने पर कम-से-कम 6 वर्ष अधिक बर्बाद करने पड़ते हैं। .... यदि हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़े, तो फिर और क्या हो सकता है' । (1914)

No.-3.'जिस भाषा में तुलसीदास जैसे कवि ने कविता की हो, वह अत्यंत पवित्र है और उसके सामने कोई भाषा ठहर नहीं सकती'। (1916)

No.-4.  'हिन्दी ही हिन्दुस्तान के शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है यह बात निर्विवाद सिद्ध है। .... जिस स्थान को अंग्रेजी भाषा आजकल लेने का प्रयत्न कर रही है और जिसे लेना उसके लिए असंभव है, वही स्थान हिन्दी को मिलना चाहिए क्योंकि हिन्दी का उस पर पूर्ण अधिकार है। यह स्थान अंग्रेजी को नहीं मिल सकता क्योंकि वह विदेशी भाषा है और हमारे लिए बड़ी कठिन है' । (1917)

No.-5.'हिन्दी भाषा वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू व मुसलमान बोलते है और जो नागरी और फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिन्दी एकदम संस्कृतमयी नहीं है और न ही वह एकदम फारसी शब्दों से लदी है'। (1918)

No.-6.'हिन्दी और उर्दू नदियाँ है और हिन्दुस्तानी सागर है। हिन्दी और उर्दू दोनों को आपस में झगड़ा नहीं करना चाहिए। दोनों का मुकाबला तो अंग्रेजी से है' ।(1917)

No.-7.'अंग्रेजी के व्यामोह से पिंड छुड़ाना स्वराज्य का एक अनिवार्य अंग है'

No.-8.'मैं यदि तानाशाह होता (मेरा बस चलता) तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता, सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएँ अपनाने पर मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता। मैं पाठ्य-पुस्तकों की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा, वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने-आप चली आएगी। यह एक ऐसी बुराई है, जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिए'

No.-9.'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न हों, मैं इससे इसी तरह चिपटा रहूँगा जिस तरह बच्चा अपनी माँ की छाती से, जो मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है। अगर अंग्रेजी उस जगह को हड़पना चाहती है जिसकी वह हकदार नहीं है, तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा- वह कुछ लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों-करोड़ो की नहीं'

No.-10.'लिपियों में सबसे अव्वल दरजे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ। मैं मानता हूँ कि नागरी और उर्दू लिपि के बीच अंत में जीत नागरी लिपि की ही होगी'

 स्वतंत्रता के बाद हिन्दी का राजभाषा के रूप में विकास

राजभाषा (Official Language) क्या है ?

 No.-1. राजभाषा का शाब्दिक अर्थ है- राज-काज की भाषा। जो भाषा देश के राजकीय कार्यों के लिए प्रयुक्त होती है, वह 'राजभाषा' कहलाती है। राजाओं-नवाबों के जमाने में इसे 'दरबारी भाषा' कहा जाता था।

No.-2. राजभाषा सरकारी काम-काज चलाने की आवश्यकता की उपज होती है।

No.-3. स्वशासन आने के पश्चात राजभाषा की आवश्यकता होती है प्रायः राष्ट्रभाषा ही स्वशासन आने के पश्चात राजभाषा बन जाती है। भारत में भी राष्ट्रभाषा हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ।

No.-4. राजभाषा एक संवैधानिक शब्द है। हिन्दी को 14 सितम्बर 1949 ई० को संवैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया गया। इसलिए प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को 'हिन्दी दिवस' के रूप में मनाया जाता है।

No.-5. राजभाषा देश को अपने प्रशासनिक लक्ष्यों के द्वारा राजनीतिक-आर्थिक इकाई में जोड़ने का काम करती है। अर्थात राजभाषा की प्राथमिक शर्त राजनीतिक प्रशासनिक एकता कायम करना है।

No.-6. राजभाषा का प्रयोग-क्षेत्र सीमित होता है, यथा : वर्तमान समय में भारत सरकार के कार्यालयों एवं कुछ राज्यों- हिन्दी क्षेत्र के राज्यों-में राज-काज हिन्दी में होता है। अन्य राज्य सरकारें अपनी-अपनी भाषा में कार्य करती हैं, हिन्दी में नहीं; महाराष्ट्र मराठी में, पंजाब पंजाबी में, गुजरात गुजराती में आदि।

No.-7. राजभाषा कोई भी भाषा हो सकती है स्वभाषा या परभाषा। जैसे, मुगल शासक अकबर के समय से लेकर मैकाले के काल तक फारसी राजभाषा तथा मैकाले के काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक अंग्रेजी राजभाषा थी जो कि विदेशी भाषा थी। जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। जो कि स्वभाषा है।

No.-8. राजभाषा का एक निश्चित मानक स्वरूप होता है जिसके साथ छेड़छाड़ या प्रयोग नहीं किया जा सकता।

No.-1. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति व उसकी समीक्षा

 स्वतंत्रता के पूर्व जो छोटे-बड़े राष्ट्रनेता राष्ट्रभाषा या राजभाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने के मुद्दे पर सहमत थे, उनमें से अधिकांश गैर-हिन्दी भाषी नेता स्वतंत्रता मिलने के वक्त हिन्दी के नाम पर बिदकने लगे।

यही वजह थी कि संविधान सभा में केवल हिन्दी पर विचार नहीं हुआ; राजभाषा के नाम पर जो बहस वहाँ 11 सितम्बर, 1949 ई० से 14 सितम्बर, 1949 ई० तक हुई, उसमें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत एवं हिन्दुस्तानी के दावे पर विचार किया गया।

किन्तु संघर्ष की स्थिति सिर्फ हिन्दी एवं अंग्रेजी के समर्थक के बीच ही देखने को मिली। हिन्दी समर्थक वर्ग में भी दो गुट थे। एक गुट देवनागरी लिपि वाली हिन्दी का समर्थक था; दूसरा गुट (महात्मा गाँधी, जे.एल.नेहरू, अब्दुल कलाम आजाद आदि) दो लिपियों वाली हिन्दुस्तानी के पक्ष में था।

आजाद भारत में एक विदेशी भाषा, जिसे देश का बहुत थोड़ा-सा अंश (अधिक-से-अधिक 1 या 2%) ही पढ़-लिख और समझ सकता था, देश की राजभाषा नहीं बन सकती थी। लेकिन यकायक अंग्रेजी को छोड़ने में भी दिक्कतें थीं। प्रायः 150 वर्षों से अंग्रेजी प्रशासन और उच्च शिक्षा की भाषा रही थी। हिन्दी देश की 46% जनता की भाषा थी। राजभाषा बनने के लिए हिन्दी का दावा न्याययुक्त था। साथ ही, प्रादेशिक भाषाओं की भी सर्वथा उपेक्षा नहीं की जा सकती थी।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने राजभाषा की समस्या को हल करने की कोशिश की। संविधान सभा के भीतर और बाहर हिन्दी के विपुल समर्थन को देखकर संविधान सभा ने हिन्दी के पक्ष में अपना फैसला दिया। यह फैसला हिन्दी विरोधी एवं हिन्दी समर्थकों के बीच 'मुंशी-आयंगार फॉर्मूले' के द्वारा समझौते के परिणामस्वरूप सामने आया, जिसकी प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं-

No.-1. हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा है।

No.-2. संविधान के लागू होने के दिन से 15 वर्षो की अवधि तक अंग्रेजी बनी रहेगी।

No.-3. एक अस्पष्ट निर्देश (अनु० 351) के आधार पर हिन्दी एवं हिन्दुस्तानी के विवाद को दूर कर लिया गया।

संविधान में भाषा-विषयक उपबंध अनु० 120 अनु० 210 एवं भाषा-विषयक एक पृथक भाग- भाग 17 (राजभाषा) के अनु० 343 से 351 तक एवं 8वीं अनुसूची में दिए गए हैं। संविधान के ये भाषा-विषयक उपबंध हिन्दी, अंग्रेजी एवं प्रादेशिक भाषाओं के परस्पर विरोधी दावों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

अनु 120 : संसद में प्रयोग की जानेवाली भाषा

 संसद का कार्य हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परन्तु यथास्थिति लोकसभाध्यक्ष या राज्य सभा का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात 'या अंग्रेजी में' शब्दों का लोप किया जा सकेगा।

 अनु 210 : राज्य विधानमंडल में प्रयोग की जानेवाली भाषा

 

राज्यों के विधानमण्डलों का कार्य अपने-अप राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया जाएगा, परन्तु यथास्थिति विधानसभाध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15 वर्ष की अवधि के पश्चात 'या अंग्रजी में' शब्दों का लोप किया जा सकेगा।

 भाग-17

राजभाषा

अध्याय 1 : संघ की भाषा

अनु० 343 : संघ की राजभाषा

 No.-1. संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। अंकों का रूप भारतीय अंकों का अन्तराष्ट्रीय रूप होगा।

No.-2. इस संविधान के प्रारंभ से 15 वर्ष की अवधि तक (अर्थात 1965 तक) उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए पहले प्रयोग किया जा रहा था।

परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी भाषा का और भारतीय अंकों के अन्तराष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।

 No.-3. संसद उक्त 15 वर्ष की अवधि के पश्चात, विधि द्वारा

No.-1. अंग्रेजी भाषा का; या

No.-2. अंकों के देवनागरी रूप का,

ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएँ।

 अनु० 344 : राजभाषा के संबंध में आयोग (5 वर्ष के उपरांत राष्ट्रपति द्वारा) और संसद की समिति (10 वर्ष के उपरांत)

 अध्याय 2 : प्रादेशिक भाषाएँ

अनु० 345 : राज्य की राजभाषा या राजभाषाएँ (प्रादेशिक भाषा/ भाषाएँ या हिन्दी; ऐसी व्यवस्था होने तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी)

 अनु० 346 : एक राज्य और दूसरे राज्य के बीच या किसी राज्य और संघ के बीच पत्रादि की राजभाषा (संघ द्वारा तत्समय प्राधिकृत भाषा; आपसी करार होने पर दो राज्यों के बीच हिन्दी)

 अनु० 347 : किसी राज्य की जनसंख्या के किसी अनुभाग द्वारा बोली जानेवाली भाषा के संबंध में विशेष उपबंध

 अध्याय 3 : SC, HC आदि की भाषा

अनु० 348 : SC और HC में और संसद व राज्य विधान मंडल में विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जानेवाली भाषा (उपबंध होने तक अंग्रेजी जारी)

 अनु० 349 : भाषा से संबंधित कुछ विधियाँ अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रकिया (राजभाषा संबंधी कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी के बिना पेश नहीं की जा सकती और राष्ट्रपति भी आयोग की सिफारिशों पर विचार करने के बाद ही मंजूरी दे सकेगा)

 अध्याय 4 : विशेष निदेश

अनु० 350 : व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयोग की जानेवाली भाषा (किसी की भाषा में)

 No.-1.भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ

No.-2. भाषाई अल्पसंख्यक वर्गो के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति (राष्ट्रपति द्वारा)

 अनु० 351 : हिन्दी के विकास के लिए निर्देश

 संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और 8वीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।

8वीं अनुसूची

भाषाएँ

 8वीं अनुसूची में संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 22 प्रादेशिक भाषाओं का उल्लेख है। इस अनुसूची में आरंभ में 14 भाषाएँ

 No.-1. असमिया

No.-2. बांग्ला

No.-3. गुजराती

No.-4. हिन्दी

No.-5. कन्नड़

No.-6. कश्मीरी

No.-7. मलयालम

No.-8. मराठी

No.-9.उड़िया

No.-10.पंजाबी

No.-11. संस्कृत

No.-12. तमिल

No.-13. तेलुगू

(14) उर्दू ] थीं। बाद में सिंधी को (21 वां संशोधन, 1967 ई०), तत्पश्चात कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली को (71वां संशोधन, 1992 ई०) शामिल किया गया, जिससे इसकी संख्या 18 हो गई। तदुपरांत बोडो, डोगरी, मैथली, संथाली को (92 वां संशोधन, 2003) शामिल किया गया और इस प्रकार इस अनुसूची में 22 भाषाएँ हो गई।

 अध्याय 1 (संघ की भाषा) की समीक्षा

अनु० 343 के संदर्भ में : संविधान के अनु० 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी घोषित की गई है। इससे देश के बहुमत की इच्छा ही प्रतिध्वनित होती है। अनु० 343 (2) के अनुसार इसे भारतीय संविधान लागू होने की तारीख अर्थात 26 जनवरी, 1950 ई० से लागू नहीं किया जा सकता था। इसे लागू करने के लिए संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद की अवधि रखी तो गई, परन्तु फिर अनु० 343 (3) के द्वारा सरकार ने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह इस 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रख सकती है। रही-सही कसर, बाद में राजभाषा अधिनियम, 1963 ने पूरी कर दी क्योंकि इस अधिनियम ने सरकार के इस उद्देश्य को साफ कर दिया कि अंग्रेजी की हुकूमत देश पर अनंत काल तक बनी रहेगी।

 इस प्रकार, संविधान में की गई व्यवस्था 343 (1) हिन्दी के लिए वरदान थी। परन्तु 343 (2) एवं 343 (3) की व्यवस्थाओं ने इस वरदान को अभिशाप में बदल दिया। वस्तुतः संविधान निर्माणकाल में संविधान निर्माताओं में जन साधारण की भावना के प्रतिकूल व्यवस्था करने का साहस नहीं था, इसलिए 343 (1) की व्यवस्था की गई। परन्तु अंग्रेजियत का वर्चस्व बनाये रखने के लिए 343 (2) एवं 343 (3) से उसे प्रभावहीन कर देश पर मानसिक गुलामी लाद दी गई।

 अनु० 344 के संदर्भ में : अनु० 344 के अधीन प्रथम राजभाषा आयोग/बी० जी० खेर आयोग का 1955 में तथा संसदीय राजभाषा समिति/जी० बी० पंत समिति का 1957 में गठन हुआ। जहाँ खेर आयोग ने हिन्दी को एकान्तिक व सर्वश्रेष्ठ स्थिति में पहुँचाने पर जोर दिया वहाँ पंत समिति ने हिन्दी को प्रधान राजभाषा बनाने पर जोर तो दिया लेकिन अंग्रेजी को हटाने की बजाय उसे सहायक राजभाषा बनाये रखने की वकालत की। हिन्दी के दुर्भाग्य से सरकार ने खेर आयोग को महज औपचारिक माना और हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए; जबकि सरकार ने पंत समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया, जो आगे चलकर राजभाषा अधिनियम 1963/67 का आधार बनी जिसने हिन्दी का सत्यानाश कर दिया।

 समग्रता से देखें तो स्वतंत्रता-संग्राम काल में हिन्दी देश में राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक थी अतएव राष्ट्रभाषा बनी, और राजभाषा अधिनियम 1963 के बाद यह केवल संपर्क भाषा होकर रह गयी।

  अध्याय 2 (प्रादेशिक भाषाएँ) एवं 8वीं अनुसूची की समीक्षा

अनु० 345, 346 से स्पष्ट है कि भाषा के संबंध में राज्य सरकारों को पूरी छूट दी गई। संविधान की इन्हीं अनुच्छदों के अधीन हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी राजभाषा बनी। हिन्दी इस समय 9 राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हरियाणा, व हिमाचल प्रदेश-तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश-दिल्ली-की राजभाषा है। उक्त प्रदेशों में आपसी पत्र-व्यवहार की भाषा हिन्दी है। दिनोंदिन हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी का प्रयोग सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए बढ़ता जा रहा है। इनके अतिरिक्त, अहिन्दी भाषी राज्यों में महाराष्ट्र, गुजरात व पंजाब की एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में चंडीगढ़ व अंडमान निकोबार की सरकारों ने हिन्दी को द्वितीय राजभाषा घोषित कर रखा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों से पत्र-व्यवहार के लिए हिन्दी को स्वीकार कर लिया है।

 अनु० 347 के अनुसार यदि किसी राज्य का पर्याप्त अनुपात चाहता है कि उसके द्वारा बोली जानेवाली कोई भाषा राज्य द्वारा अभिज्ञात की जाय तो राष्ट्रपति उस भाषा को सरकारी अभिज्ञा दे सकता हैं। समय-समय पर राष्ट्रपति ऐसी अभिज्ञा देते रहे हैं, जो 8वीं अनुसूची में स्थान पाते रहे हैं, जैसे 1967 में सिंधी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली एवं 2003 में बोडो, डोगरी, मैथली व संथाली। यही कारण है कि संविधान लागू होने के समय जहाँ 14 प्रादेशिक भाषाओं को मान्यता प्राप्त थी वहीं अब यह संख्या बढ़कर 22 हो गई है।

 अध्याय 3 (SC, HC आदि की भाषा अर्थात न्याय व विधि/कानून की भाषा) की समीक्षा

अनु० 348, 349 से स्पष्ट हो जाता है कि न्याय व कानून की भाषा, उन राज्यों में भी जहाँ हिन्दी को राजभाषा मान लिया गया है, अंग्रेजी ही है। नियम, अधिनियम, विनियम तथा विधि का प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में होने के कारण सारे नियम अंग्रेजी में ही बनाये जाते हैं। बाद में उनका अनुवाद मात्र कर दिया जाता है। इस प्रकार, न्याय व कानून के क्षेत्र में हिन्दी का समुचित प्रयोग हिन्दी राज्यों में भी अभी तक नहीं हो सका है।

 अध्याय 4 (विशेष निदेश) की समीक्षा

अनु० 350 : भले ही संवैधानिक स्थिति के अनुसार व्यक्ति को अपनी व्यथा के निवारण हेतु किसी भी भाषा में अभ्यावेदन करने का हकदार माना गया है लेकिन व्यावहारिक स्थिति यही है कि आज भी अंग्रेजी में अभ्यावेदन करने पर ही अधिकारी तवज्जो/ध्यान देना गवारा करते हैं।

 अनु० 351 : (हिन्दी के विकास के लिए निदेश) : अनु० 351 राजभाषा विषयक उपबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें हिन्दी के भावी स्वरूप के विकास की परिकल्पना सन्निहित है। हिन्दी को विकसित करने की दिशाओं का इसमें संकेत है। इस अनुच्छेद के अनुसार संघ सरकार का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दी भाषा के विकास और प्रसार के लिए समुचित प्रयास करे ताकि भारत में राजभाषा हिन्दी के ऐसे स्वरूप का विकास हो, जो समूचे देश में प्रयुक्त हो सके और जो भारत की मिली-जुली संस्कृति की अभिव्यक्ति की वाहिका बन सके। इसके लिए संविधान में इस बात का भी निर्देश दिया गया है कि हिन्दी में हिन्दुस्तानी और मान्यताप्राप्त अन्य भारतीय भाषाओं की शब्दावली और शैली को भी अपनाया जाय और मुख्यतः संस्कृत तथा गौणतः अन्य भाषाओं (विश्व की किसी भी भाषा) से शब्द ग्रहण कर उसके शब्द-भंडार को समृद्ध किया जाय।

 संविधान के निर्माताओं की यह प्रबल इच्छा थी कि हिन्दी भारत में ऐसी सर्वमान्य भाषा के स्वरूप को ग्रहण करें, जो सब प्रांतों के निवासियों को स्वीकार्य हो। संविधान के निर्माताओं को यह आशा थी कि हिन्दी अपने स्वाभाविक विकास में भारत की अन्य भाषाओं से वरिष्ठ संपर्क स्थापित करेगी और हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच में साहित्य का आदान-प्रदान भी होगा।

 संविधान के निर्माताओं ने उचित ढंग से यह आशा की थी कि राजभाषा हिन्दी अपने भावी रूप का विकास करने में अन्य भारतीय भाषाओं का सहारा लेगी। यह इसलिए था कि राजभाषा हिन्दी को सबके लिए सुलभ और ग्राह्य रूप धारण करना है।

 (II) 1950 ई० के बाद हिन्दी की संवैधानिक प्रगति

 राष्ट्रपति का संविधान आदेश, 1952 : राज्यपालों, SC एवं HC के न्यायाधीशों की नियुक्ति के अधिपत्रों के लिए हिन्दी का प्रयोग प्राधिकृत।

राष्ट्रपति का संविधान आदेश, 1955 : कुछ प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी का प्रयोग निर्धारित, जैसे

No.-1. जनता के साथ पत्र-व्यवहार में, (2) प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी पत्रिकाओं व संसदीय रिपोर्ट में, (3) संकल्पों (Resolutions) व विधायी नियमों में, (4) हिन्दी को राजभाषा मान चुके राज्यों के साथ पत्र-व्यवहार में, (5) संधिपत्र और करार में, (6) राजनयिक व अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में भारतीय प्रतिनिधियों के नाम जारी किये जानेवाले पत्रों में।

प्रथम राजभाषा आयोग/बाल गंगाधर (बी.जी.) खेर आयोग : 7 जून, 1955 (गठन); 31 जुलाई, 1956 (प्रतिवेदन)

आयोग की सिफारिशें : (1) सारे देश में माध्यमिक स्तर तक हिन्दी अनिवार्य की जाए। (2) देश में न्याय देश की भाषा में किया जाए। (3) जनतंत्र में अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग संभव नहीं। अधिक लोगों द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी भाषा समस्त भारत के लिए उपयुक्त है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग ठीक है, किन्तु शिक्षा, प्रशासन, सार्वजनिक जीवन तथा दैनिक कार्यकलापों में विदेशी भाषा का व्यवहार अनुचित है।

 टिप्पणी : आयोग के दो सदस्यों ने-बंगाल के सुनीति कुमार चटर्जी व तमिलनाडु के पी० सुब्बोरोयान-आयोग की सिफारिशों से असहमति प्रकट की और आयोग के सदस्यों पर हिन्दी का पक्ष लेने का आरोप लगाया। जो भी हो, प्रथम राजभाषा आयोग/खेर आयोग ने हिन्दी के अधिकाधिक और प्रगामी प्रयोग पर बल दिया था। खेर आयोग ने जो ठोस सुझाव रखे थे, सरकार ने उन्हें महज औपचारिक मानते हुए राजभाषा हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए।

 संसदीय राजभाषा समिति/गोविंद बल्लभ (जी० बी०) पंत समिति : 16 नवम्बर, 1957 (गठन); 8 फरवरी, 1959 (प्रतिवेदन)

पंत समिति ने कहा कि राष्ट्रीय एकता को द्योतित करने के लिए एक भाषा को स्वीकार कर लेने का स्वतंत्रता-पूर्व का जोश ठंढा पड़ गया है। सिफारिशें- (1) हिन्दी संघ की राजभाषा का स्थान जल्दी-से-जल्दी ले। लेकिन इस परिवर्तन के लिए कोई निश्चित तारीख (जैसे 26 जनवरी, 1965 ई०) नहीं दी जा सकती यह परिवर्तन धीरे-धीरे स्वाभाविक रीति से होना चाहिए।

No.-2.1965 ई० तक अंग्रेजी प्रधान राजभाषा और हिन्दी सहायक राजभाषा रहनी चाहिए। 1965 के बाद जब हिन्दी संघ की प्रधान राजभाषा हो जाये, अंग्रेजी संघ की सहायक/ सह राजभाषा रहनी चाहिए।

 टिप्पणी : पंत समिति के सिफारिशों से राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और सेठ गोविंद दास असहमत व असंतुष्ट थे और उन्होंने यह आरोप लगाया कि सरकार हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रास्थापित करने के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए हैं। इन दोनों नेताओं ने समिति द्वारा अंग्रेजी को राजभाषा बनाये रखने का भी घोर विरोध किया। जो भी हो, सरकार ने पंत समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया।

 राष्ट्रपति का आदेश, 1960 : शिक्षा मंत्रालय, विधि मंत्रालय, वैज्ञानिक अनुसंधान व सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय को हिन्दी को राजभाषा के रूप में विकसित करने हेतु विभिन्न निर्देश।

 राजभाषा अधिनियम, 1963 (1967 में संशोधित) : संविधान के अनुसार 15 वर्ष के बाद अर्थात 1965 ई० से सारा काम-काज हिन्दी में शुरू होना था, परन्तु सरकार की ढुल-मुल नीति के कारण यह संभव नहीं हो सका। अहिन्दी क्षेत्रों में, विशेषतः बंगाल और तमिलनाडु (DMK द्वारा) में हिन्दी का घोर विरोध हुआ। इसकी प्रतिक्रिया हिन्दी क्षेत्र में हुई। जनसंघ (स्थापना-1951 ई०, संस्थापक-श्यामा प्रसाद मुखर्जी) एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/ पी० एस० पी० (स्थापना-1952 ई०, संस्थापक-लोहिया) द्वारा हिन्दी का घोर समर्थन किया गया। हिन्दी के कट्टरपंथी समर्थकों ने भाषायी उन्माद को उभारा जिसके कारण हिन्दी की प्रगति के बदले हिन्दी को हानि पहुँची। इस भाषायी कोलाहल के बीच प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आश्वासन दिया कि हिन्दी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करने से पहले अहिन्दी क्षेत्रों की सम्मति प्राप्त की जाएगी और तब तक अंग्रेजी को नहीं हटाया जाएगा। राजभाषा विधेयक को गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने प्रस्तुत किया। राजभाषा विधेयक का उद्देश्य : जहाँ राजकीय प्रयोजनों के लिए 15 वर्ष बाद यानी 1965 से हिन्दी का प्रयोग आरंभ होना चाहिए था वहाँ व्यवस्था को पूर्ण रूप से लागू न करके उस अवधि के बाद भी संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग बनाये रखना।

 राजभाषा अधिनियम के प्रावधान : राजभाषा अधिनियम, 1963 में कुल 9 धाराएँ हैं जिनमें सर्वप्रथम है- 26 जून, 1965 से हिन्दी संघ की राजभाषा तो रहेगी ही पर उस समय से हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी भी संघ के उन सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए बराबर प्रयुक्त होती रहेगी जिनके लिए वह उस तिथि के तुरन्त पहले प्रयुक्त की जा रही थी।

 

टिप्पणी : इस प्रकार 26 जून, 1965 से राजभाषा अधिनियम, 1963 के तहत द्विभाषिक स्थिति प्रारंभ हुई, जिसमें संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाएँ प्रयुक्त की जा सकती थीं।

 राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1967 : समय-समय पर संसद के भीतर और बाहर जवाहर लाल नेहरू द्वारा दिए गए आश्वासनों और लाल बहादुर शास्त्री द्वारा राजभाषा विधेयक, 1963 को प्रस्तुत करते समय अहिन्दी भाषियों को दिलाए गए विश्वास को मूर्त रूप प्रदान करने के उद्देश्य से इंदिरा गाँधी, जो अपने पिता की भाँति अहिन्दी भाषियों से सहानुभूति रखती थी, के शासनकाल में राजभाषा (संशोधन) विधेयक, 1967 पारित किया गया।

 राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1967 के प्रावधान : इस अधिनियम के तहत राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा के स्थान पर नये उपबंध लागू हुए। इसके अनुसार, अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधानमंडलों द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प (resolution) पारित करना होगा और विधानमंडलों के संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात उसकी समाप्ति के लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित करना होगा। ऐसा नहीं होने पर अंग्रेजी अपनी पूर्व स्थिति में बनी रहेगी।

 टिप्पणी : इस अधिनियम के द्वारा इस बात की व्यवस्था की गई कि अंग्रेजी सरकार के काम-काज में सहभाषा के रूप में तब तक बनी रहेगी जब तक अहिन्दी भाषी राज्य हिन्दी को एकमात्र राजभाषा बनाने के लिए सहमत न हो जाए। इसका मतलब यह हुआ कि भारत का एक भी राज्य चाहेगा कि अंग्रेजी बनी रहे तो वह सारे देश की सहायक राजभाषा बनी रहेगी।

 संसद द्वारा पारित संकल्प (Resolution), 1968

 No.-1.राजभाषा हिन्दी एवं प्रादेशिक भाषाओं की प्रगति को सुनिश्चित करना।

No.-2. त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula) को लागू करना-एकता की भावना के संवर्द्धन हेतु भारत सरकार राज्यों के सहयोग से त्रिभाषा सूत्र को लागू करेगी। त्रिभाषा सूत्र के अन्तर्गत यह प्रस्तावित किया गया कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी व अंग्रेजी के अतिरिक्त दक्षिणी भारतीय भाषाओं में से किसी एक को तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषा व अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी को पढ़ाने की व्यवस्था की जाय।

 टिप्पणी : त्रिभाषा सूत्र का प्रयोग सफल नहीं हुआ। न तो हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने किसी दक्षिणी भारतीय भाषा का अध्ययन किया और न ही गैर-हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी का।

 राजभाषा नियम, 1976 (यथासंशोधित, 1987) : इन नियमों की संख्या 12 है जिनमें हिन्दी के प्रयोग के संदर्भ में भारत के क्षेत्रों का 3 वर्गीय विभाजन किया गया है और प्रधान राजभाषा हिन्दी और सह राजभाषा अंग्रेजी एवं प्रादेशिक भाषाओं के प्रयोग हेतु नियम दिये गये हैं। आज भी इन्हीं नियमों के अनुसार सरकार की द्विभाषिक नीति का अनुपालन हो रहा है।

राजभाषा के विकास से संबंधित संस्थाएँ

संस्था का नाम

स्थापना

कार्य

केन्द्रीय हिन्दी समिति, नई दिल्ली

1967

भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा हिन्दी के प्रचार-प्रसार के संबंध में चालू कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित करना; अध्यक्ष-प्रधानमंत्री

 शिक्षा मंत्रालय के अधीन

संस्था का नाम

स्थापना

कार्य

No.-1.

साहित्य अकादमी नई दिल्ली

1954

साहित्य को बढ़ावा देने-वाली शीर्षस्थ संस्था

No.-2.

नेशनल बुक ट्रस्ट (National Book Trust-N. B. T), नई दिल्ली

1957

शिक्षा, विज्ञान व साहित्य की उच्च कोटि की पुस्तकों का प्रकाशन कम मूल्यों पर जनता को उपलब्ध कराना

No.-3.

केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली

1960

शब्दकोशों, विश्वकोशों, अहिन्दी भाषियों के लिए पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन

No.-4.

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली

1961

विज्ञान व तकनीक से संबंधित शब्दावलियों का प्रकाशन

 गृह मंत्रालय के अधीन

संस्था का नाम

स्थापना

कार्य

No.-1.

राजभाषा विधायी आयोग

1965-75

केन्द्रीय अधिनियमों के हिन्दी पाठ का निर्माण

No.-2.

केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो

1971

देश में अनुवाद की सबसे बड़ी संस्था

No.-3.

राजभाषा विभाग

1975

संघ के विभिन्न शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी के प्रगामी प्रयोग से संबंधित सभी मामले

 विधि/कानून मंत्रालय के अधीन

संस्था का नाम

स्थापना

कार्य

राजभाषा विधायी आयोग

1975

यह आयोग पहले गृह मंत्रालय के अधीन था। प्रमुख कानूनों के हिन्दी पाठ का निर्माण

 सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन

No.-1.

प्रकाशन विभाग (Publication Division)

1944

No.-2.

फ़िल्म प्रभाग (Films Division)

1948

No.-3.

पत्र सूचना कार्यालय (Press Information Bureau), नई दिल्ली

1956

No.-4.

आकाशवाणी

1957

No.-5.

दूरदर्शन

1976

राष्ट्रभाषा व राजभाषा संबंधी कुछ विविध तथ्य

प्रताप नारायण मिश्र ने 'हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान' का नारा दिया।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार सर्वप्रथम बंगाल में उदित हुआ।

कांग्रेस के फैजपुर अधिनेशन (1936 ई०) एवं हरिपुरा अधिवेशन (1938 ई०) में कांग्रेस के विराट मण्डप में 'राष्ट्रभाषा सम्मेलन' आयोजित किये गये, जिनकी अध्यक्षता राजेन्द्र प्रसाद (फैजपुर) एवं जमना लाल बजाज (हरिपुरा) ने की।

संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव गोपाल स्वामी आयंगर ने रखा जिसका समर्थन शंकरराव देव ने किया।

संविधान सभा में राजभाषा के नाम पर हुए मतदान में हिन्दुस्तानी को 77 वोट तथा हिन्दी को 78 वोट मिले।

आजादी-पूर्व हिन्दी का समर्थन करनेवाले व आजादी-बाद हिन्दी का विरोध करने वाले व्यक्तित्व

-सी० राजगोपालाचारी, सुनीति कुमार चटर्जी, हुमायूं कबीर, अनंत शयनम अय्यंगार आदि।

'मैं कभी भी हिन्दी का विरोधी नहीं हूँ। मैं उन हिन्दी वालों का विरोध करता हूँ जो वस्तुस्थिति को नहीं समझकर अपने स्वार्थ के कारण हिन्दी को लादने की बात सोचते हैं।' -सी राजगोपालाचारी

'हिन्दी अहिन्दी लोगों के लिए ठीक उतनी ही विदेशी है जितनी कि हिन्दी समर्थकों के लिए अंग्रेजी।' -सी राजगोपालाचारी

'हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान' वाले राष्ट्रबाद की सबसे बड़ी सीमा यह है कि यह समूचे दक्षिण भारत को भूल जाता है। -इरोड वेंकट रामास्वामी (ई० वी० आर०)'पेरियार'

1952 में एक विख्यात स्वतंत्रता सेनानी पोट्टी श्रीरामालु ने तेलगु भाषी लोगों के लिए एक पृथक राज्य आंध्र प्रदेश ने तेलगु भाषी लोगों के लिए एक पृथक राज्य आंध्र प्रदेश बनाने की मांग पर आमरण अनशन करते हुए 58 दिन बाद (19 अक्तू, 16 दिसम्बर) को अपनी जान दे दी। इसके बाद भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मुहिम में तेजी आई।

पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात राज्य अपने शासन में क्रमशः पंजाबी, मराठी और गुजराती भाषा के साथ-साथ हिन्दी को 'सहभाषा' के रूप में घोषित कर रखा है।

हिन्दी की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ

हिन्दी भाषी क्षेत्र/ हिन्दी क्षेत्र/ हिन्दी पट्टी (Hindi Belt) : हिन्दी पश्चिम में अम्बाला (हरियाणा) से लेकर पूर्व में पूर्णिया (बिहार) तक तथा उत्तर में बद्रीनाथ-केदारनाथ (उत्तराखंड) से लेकर दक्षिण में खंडवा (मध्य प्रदेश) तक बोली जाती है। इसे हिन्दी भाषी क्षेत्र या हिन्दी क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत 9 राज्य-उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश-तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र)- दिल्ली-आते हैं। इस क्षेत्र में भारत की कुल जनसंख्या के 43% लोग रहते हैं।

हिन्दी की उपभाषाएँ व बोलियाँ

 बोली : एक छोटे क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा बोली कहलाती है। बोली में साहित्य रचना नहीं होती।

उपभाषा : अगर किसी बोली में साहित्य रचना होने लगती है और क्षेत्र का विस्तार हो जाता है तो वह बोली न रहकर उपभाषा बन जाती है।

भाषा : साहित्यकार जब उस उपभाषा को अपने साहित्य के द्वारा परिनिष्ठित सर्वमान्य रूप प्रदान कर देते हैं तथा उसका और क्षेत्र विस्तार हो जाता है तो वह भाषा कहलाने लगती है।

एक भाषा के अंतर्गत कई उपभाषाएँ होती हैं तथा एक उपभाषा के अन्तर्गत कई बोलियाँ होती हैं।

सर्वप्रथम एक अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1889 ई० में 'मार्डन वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दोस्तान' में हिन्दी का उपभाषाओं व बोलियों में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। बाद में ग्रियर्सन ने 1894 ई० से भारत का भाषाई सर्वेक्षण आरंभ किया जो 1927 ई० में संपन्न हुआ। उनके द्वारा संपादित ग्रंथ का नाम है- 'ए लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया' । इसमें उन्होंने हिन्दी क्षेत्र की बोलियों को पाँच उपभाषाओं में बाँटकर उनकी व्याकरणिक एवं शाब्दिक विशेषताओं का विस्तार से विवरण प्रस्तुत किया है।

इसके बाद, 1926 ई० में सुनीति कुमार चटर्जी ने 'बांग्ला भाषा का उद्भव और विकास (Origin and Development of Bengali Language') में हिन्दी का उपभाषाओं व बोलियों में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। चटर्जी ने पहाड़ी भाषाओं को छोड़ दिया है। वे उन्हें भाषाएँ नहीं गिनते।

धीरेन्द्र वर्मा ('हिन्दी भाषा का इतिहास', 1933 ई०) का वर्गीकरण मुख्यतः सुनीति कुमार चटर्जी के वर्गीकरण पर ही आधारित है, केवल उसमें कुछ संशोधन किये गये हैं जैसे उसमें पहाड़ी भाषाओं को शामिल किया गया है।

इनके अलावे, कई विद्वानों ने अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। आज इस बात को लेकर आम सहमति है कि हिन्दी जिस भाषा-समूह का नाम है, उसमें 5 उपभाषाएँ और 17 बोलियाँ हैं।

 

हिन्दी क्षेत्र की समस्त बोलियों को 5 वर्गो में बाँटा गया है। इन वर्गों को उपभाषा कहा जाता है। इन उपभाषाओं के अंतर्गत ही हिन्दी की 17 बोलियाँ आती हैं।

उपभाषा

बोलियाँ

मुख्य क्षेत्र

राजस्थानी

मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी)
जयपुरी या ढुंढाड़ी (पूर्वी राजस्थानी)
मेवाती (उत्तरी राजस्थानी)
मालवी (दक्षिणी राजस्थानी)

राजस्थान

पश्चिमी हिन्दी

कौरवी या खड़ी बोली
बाँगरू या हरियाणवी
ब्रजभाषा
बुंदेली
कन्नौजी

हरियाणा, उत्तर प्रदेश

पूर्वी हिन्दी

अवधी
बघेली
छत्तीसगढ़

मध्य प्रदेश,
छत्तीसगढ़,
उत्तर प्रदेश

बिहारी

भोजपुरी
मगही
मैथली

बिहार
उत्तर प्रदेश

पहाड़ी

कुमाऊँनी
गढ़वाली

उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश

नोट : एक भाषा विद्वान के अनुसार, शुद्ध भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी की दो मुख्य उपभाषाएँ हैं- पश्चिमी हिन्दी व पूर्वी हिन्दी।

 बोली, विभाषा एवं भाषा

 विभिन्न बोलियां राजनीतिक-सांस्कृतिक आधार पर अपना क्षेत्र बढ़ा सकती है और साहित्य रचना के आधार पर वे अपना स्थान 'बोली' से उच्च करते हुए 'विभाषा' तक पहुँच सकती है।

विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा अधिक विस्तृत होती है। यह एक प्रांत या उपप्रांत में प्रचलित होती है। इसमें साहित्यिक रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। जैसे- हिन्दी की विभाषाएँ हैं- ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली, भोजपुरी व मैथली।

विभाषा स्तर पर प्रचलित होने पर ही राजनीतिक, साहित्यिक या सांस्कृतिक गौरव के कारण भाषा का स्थान प्राप्त कर लेती है, जैसे- खड़ी बोली मेरठ, बिजनौर आदि की विभाषा होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत होने के कारण राष्ट्रभाषा के पद पर अधिष्ठित हुई है।

इस प्रकार, दो बातें स्पष्ट होती है-

No.-1.बोली का विकास विभाषा में और विभाषा का विकास भाषा में होता है।

बोली-विभाषा-भाषा

No.-2. उदाहरण

भाषा- खड़ी बोली हिन्दी

विभाषा- हिन्दी क्षेत्र की प्रमुख बोलियाँ- ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली, भोजपुरी व मैथली

बोली- हिन्दी क्षेत्र की शेष बोलियाँ

 प्रमुख बोलियों का संक्षिप्त परिचय

कौरवी या खड़ी बोली

 मूल नाम- कौरवी

साहित्यिक भाषा बनने के बाद पड़ा नाम- खड़ी बोली

अन्य नाम- बोलचाल की हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, वर्नाक्यूलर खड़ी बोली आदि।

केन्द्र- कुरु जनपद अर्थात मेरठ-दिल्ली के आस-पास का क्षेत्र। खड़ी बोली एक बड़े भू-भाग में बोली जाती है। अपने ठेठ रूप में यह मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, सहारनपुर, देहरादून और अम्बाला जिलों में बोली जाती है। इनमें मेरठ की खड़ी बोली आदर्श और मानक मानी जाती है।

बोलने वालों की संख्या- 1.5 से 2 करोड़

साहित्य- मूल कौरवी में लोक-साहित्य उपलब्ध है जिसमें गीत, गीत नाटक, लोक कथा, गप्प, पहेली आदि है।

विशेषता- आज की हिन्दी मूलतः कौरवी पर ही आधारित है। दूसरे शब्दों में, हिन्दी भाषा का मूलाधार/मूलोद्गम

(Substratum या Basic dialect) कौरवी या खड़ी बोली है।

नमूना- कोई बादसा था। साब उसके दो रानियाँ थीं। वो एक रोज अपनी रानी से केने लगा मेरे समान ओर कोई बादसा है बी ? तो बड़ी बोले कि राजा तुम समान ओर कौन होगा। छोटी से पुच्छा तो किहया कि एक बिजान सहर है उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईट लगी है ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाहिए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। और बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।

ब्रजभाषा

 केन्द्र- मथुरा

प्रयोग क्षेत्र- मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुरी, मैनपुरी, एटा, बदायूं, बरेली तथा आस-पास के क्षेत्र

बोलनेवालों की संख्या- 3 करोड़

देश के बाहर ताज्जुबेकिस्तान में ब्रजभाषा बोली जाती है जिसे 'ताज्जुबेकि ब्रजभाषा' कहा जाता है।

साहित्य- कृष्ण भक्ति काव्य की एकमात्र भाषा, लगभग सारा रीतिकालीन साहित्य। साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी भाषा की सबसे महत्वपूर्ण बोली। साहित्यिक महत्व के कारण ही इसे ब्रजभाषा नहीं ब्रजभाषा की संज्ञा दी जाती है। मध्यकाल में इस भाषा ने अखिल भारतीय विस्तार पाया। बंगाल में इस भाषा से बनी भाषा का नाम 'ब्रज बुलि' पड़ा। असम में ब्रजभाषा 'ब्रजावली' कहलाई । आधुनिक काल तक इस भाषा में साहित्य सृजन होता रहा। पर परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि ब्रजभाषा साहित्यिक सिंहासन से उतार दी गई और उसका स्थान खड़ी बोली ने ले लिया।

रचनाकार- भक्तिकालीन : सूरदास, नंद दास आदि।

रीतिकालीन : बिहारी, मतिराम, भूषण, देव आदि।

आधुनिक कालीन : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' आदि।

नमूना- एक मथुरा जी के चौबे हे (थे), जो डिल्ली सैहर कौ चलै। गाड़ी वाले बनिया से चौबेजी की भेंट हो गई। तो वे चौबे बोले, अरे भइया सेठ, कहाँ जायगो। वौ बोलो, महाराजा डिल्ली जाऊंगौ। तो चौबे बोले, भइया हमऊँ बैठाल्लेय। बनिया बोलो, चार रूपा चलिंगे भाड़े के। चौबे बोले, अच्छा भइया चारी दिंगे।

अवधी

 केन्द्र- अयोध्या/अवध

प्रयोग क्षेत्र- लखनऊ, इलाहाबाद, फतेहपुर, मिर्जापुर (अंशतः), उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी आदि।

बोलनेवालों की संख्या- 2 करोड़

देश के बाहर फीजी में अवधी बोलनेवाले लोग हैं।

साहित्य- सूफी काव्य, रामभक्ति काव्य। अवधी में प्रबंध काव्य परंपरा विशेषतः विकसित हुई।

रचनाकार- सूफी कवि : मुल्ला दाउद ('चंदायन'), जायसी ('पद्मावत'), कुत्बन ('मृगावती'), उसमान ('चित्रावली') रामभक्त कवि : तुलसीदास ('रामचरित मानस')

नमूना- एक गाँव मा एक अहिर रहा। ऊ बड़ा भोंग रहा। सबेरे जब सोय के उठै तो पहले अपने महतारी का चार टन्नी धमकाय दिये तब कौनो काम करत रहा। बेचारी बहुत पुरनिया रही नाहीं तौ का मजाल रहा केऊ देहिं पै तिरिन छुआय देत।

भोजपुरी

 केन्द्र- भोजपुरी (बिहार)

प्रयोग क्षेत्र- बनारस, जौनपुर, मिर्जापुर, गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर, देवरिया, आजमगढ़, बस्ती; भोजपुर (आरा), बक्सर, रोहतास (सासाराम), भभुआ, सारन (छपरा), सिवान, गोपालगंज, पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी चम्पारण आदि। अर्थात उत्तर प्रदेश का पूर्वी एवं बिहार का पश्चिमी भाग।

बोलने वालों की संख्या- 3.5 करोड़ (बोलनेवालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी प्रदेश की बोलियों में सबसे अधिक बोली जानेवाली बोली)

इस बोली का प्रसार भारत के बाहर सूरीनाम, फिजी, मारिशस, गयाना, त्रिनिडाड में है। इस दृष्टि से भोजपुरी अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की बोली है।

साहित्य- भोजपुरी में लिखित साहित्य नहीं के बराबर है। मूलतः भोजपुर भाषी साहित्यकार मध्यकाल में ब्रजभाषा व अवधी में तथा आधुनिक काल में हिन्दी में लेखन करते रहे हैं। लेकिन अब स्थिति में परिवर्तन आ रहा है।

रचनाकार- भिखारी ठाकुर (उपनाम- 'भोजपुरी का शेक्सपियर'- जगदीश चंद्र माथुर द्वारा प्रदत्त। 'अनगढ़ हीरा'- राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में। 'भोजपुरी का भारतेन्दु')

सिनेमा- सिनेमा जगत में भोजपुरी ही हिन्दी की वह बोली है जिसमें सबसे अधिक फिल्में बनती हैं।

नमूना- काहे दस-दस पनरह-पनरह हजार के भीड़ होला ई नाटक देखें खातिर। मालूम होतआ कि एही नाटक में पबलिक के रस आवेला।

मैथली

 लिपि- तिरहुता व देवनागरी

केन्द्र- मिथिला या विदेह या तिरहुत

प्रयोग क्षेत्र- दरभंगा, मधुबनी, मुजप्फरपुर, पूर्णिया, मुंगेर आदि।

बोलनेवालों की संख्या- 1.5 करोड़

साहित्य- साहित्य की दृष्टि से मैथली बहुत संपन्न है।

रचनाकार- विद्यापति ('पदावली') : यदि ब्रजभाषा को सूरदास ने, अवधी को तुलसीदास ने चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया तो मैथली को विद्यापति ने, हरिमोहन झा (उपन्यास- कन्यादान, द्विरागमन, कहानी संग्रह- एकादशी, 'खट्टर काकाक तरंग'), नागार्जुन (मैथली में 'यात्री' नाम से लेखन; उपन्यास- पारो, कविता संग्रह- 'कविक स्वप्न', 'पत्रहीन नग्न गाछ'), राजकमल चौधरी ('स्वरगंधा') आदि।

8वीं अनुसूची में स्थान- 92वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा संविधान की 8वीं अनुसूची में 4 भाषाओं को स्थान दिया गया। मैथली हिन्दी क्षेत्र की बोलियों में से 8वीं अनुसूची में स्थान पानेवाली एकमात्र बोली है।

नमूना-

·  पटना किए एलऽह ?

पटना एलिअइ नोकरी करैले।

भेटलह नोकरी ?

नोकरी कत्तौ नइ भेटल।

गाँ में काज नइ भेटइ छलऽह ?

भेटै छलै, रुपैयाबला नइ, अऽनबला।

तखन एलऽ किऐ ?

रिनियाँ तड़ केलकइ, ते।

कत्ते रीन छऽह ?

चाइर बीस।

सूद कत्ते लइ छऽह ?

दू पाइ महिनबारी।

हिन्दी का उसकी बोलियों में रूपान्तरण

 हिन्दी : किसी मनुष्य के दो पुत्र थे। उनमें से छोटे ने पिता से कहा कि हे पिता अपनी संपत्ति में से जो मेरा अंश होता है सो मुझे दीजिए। तब उन्होंने उनमें अपनी संपत्ति बाँट दी। कुछ दिन बीते छोटा पुत्र सब कुछ इकट्ठा करके दूर देश चला गया और वहाँ लुच्चेपन में दिन बिताते हुए उसने अपनी संपत्ति उड़ा दी।

 कौरवी या खड़ी बोली : किसी मनुष्य के दो पुत्र थे। उनमें से छुटके ने पिता से कहा कि हे पिता अपनी संपत्ति में से जो मेरा अंश हो सो मुझे दीजिये। तब उसने उनको अपनी संपत्ति बाँट दी। कुछ दिन बीते छुटका पुत्र सब कुछ इकट्ठा करके दूर देश चला गया और वहाँ लुचपन में दिन बिताते हुए उसने अपनी संपत्ति उड़ा दी।

 बाँगरू या हरियाणवी : एक माणस कै दो छोरे थे। उन मैं तै छोटे छोरे ने बाप्पू तै कह्या अक बाप्पू हो धन का जौण सा हिस्सा मेरे बाँडे आवै सै मन्नै दे दे। तौ उस ने धन उन्है बाँड दिया। अर थोड़ै दिना पाछै छोट्टा छोरा सब कुछ इकट्ठा कर कै परदेश ने चाल्ल गया और उड़ै अपणा धन खोट्टे चळण मैं खो दिया।

 ब्रजभाषा : एक जने के दो छोरा है। उनमैं-ते लोहरे-ने कही कि काका मेरे बट-कौ धन मोए दे। तब वा-ने धन उन्हैं बटि-करि दियौ। और थोरे दिना पाछे लोहरे बेटा-ने सिगरौ धन इक ठौरौ करिके दूर देसन कूँ चल्यों और वा जगे अपनौ धन उड़ाय दियौ।

 बुंदेली : एक जने के दो कुँवर तै। लौरे ने मालकन तेँ कई कि ऐ जू मौ काँ धन मेँ से जो मोरो हिसा होय सो मिलबै आवै। तब उनने अपनो धन बाँट दओ। कछु दिनन भयेते कि लौरे कुँवर बोत धन जोर के परदेश जात रये। माँ लूचपन में दिन खोये और अपनो धन उड़ा डारो।

 कन्नौजी : एक जने के दोए लड़िका हते। उनमेँ से छोटे ने बाप से कही कि हे पिता मालु को हीसाँ जो हमारी चाहिये सो देओ। तब उन ने मालु उन्हेँ बाँट दओ। औरू थोरे दिनन पीछे छोटे लड़िका ने सब कुछ इकट्ठा करि के एक दूरि के देस को चलो गओ और हुआँ अपनी मालु बुरे चलन में उड़ाओ।

 अवधी : एक मनई के दुइ बेटवे रहिन। ओह-माँ लहुरा अपने बाप से कहिस दादा धन माँ जवन हमरा बखरा लागत-होय तवन हम-का दै-द अउर वै आपन धन उन-का बाँट दिहिन। अउर ढेर दिन नाहीं बीता कि लहुरा बेटवा सब धन बटोर-के परदेस चल गय अउर उहाँ आपन धन कुचाल माँ लुटाय पड़ाय दिहिस।

 बघेली : कौनेउ मड़ई के दुइ गद्याल रहैं। उन अपने बाप तन कहिन कि अरे मोरे बाप तैं हमरे हीसन-का माल-टाल हमेँ बाँटि दिहिस। कुछ दिन बीते छोटे गद्याले आपन सब माल-टाल जमा किहिस और लै-कै बड़ी दूरी विदेसै निकरि गवा। हुन आपन सब रुपया पैसा गुंडई-माँ उठाय डारिस।

 छत्तीसगढ़ी : कोनो आदमी-के दू छोकरा रहिस है। वो माँ के सबसे छोटे-हर अपन बाप से कहिस के जोन मोर हिस्सा होय वो-ला दे-दे। तब वो-हर अपन जायदाद-ला बाँट दिहिस। थोरेक दिन के पिछे छोटे छोकरा-हर आपन सब जायदाद-ला जोर-के दुरिह्या देस चले गइस और उहां अपन सब जायदाद-ला फूंक दिहिस।

 भोजपुरी : कउनी अदिमी के तुइठे लरिका रहुए। उन्हि मैँ छोटका बाबू-जी से कहलसि की ए बाबू जी धन मेँ जे किछ हमार बखरा होइ से हमरा के बाँट दी। तब उहाँ का आपन धन बाँट दिहली। बहुत दिन ना बीतल की छोटका आपन कुल धन ले के परदेश में चल गउए और उहाँ लुचई मेँ आपन धन उड़ा दिहलसि

  : कोई दमी के दू बेटा हलइ। ओकर में से छोटका आपन बाप से कहलइ कि ए बाप धन दौलत के जे हमर बंखरा होव हइ से हमरा दे द। तब ऊ अपन धन-दौलत बाँट देलइ। ढेर दिन नइ बितलइ कि छोटका बेटा सब जमा करलइ अवर दूर देश चल गेलइ अवर उ हुआँ धन-दौलत लुचइ में उड़ा देलइ।

 मैथली : एक केहु आदमी केँ दू लरिका रहै। ओह में से छोटका बाप से कहलक, हो बाबू धन सर्बस मेँ से जे हम्मर हिस्सा बखरा होय से हमरी के दे द। त ऊ ओकरा केँ अपन धन बाँट देलक। बहुत दिन न भैलैक कि छोटका लरिका सब किछिओ जमा करके दूर चल गेल और उहां लम्पटै में दिन गमवैत अप्पन सर्बस गमा देलक।

 कुमाऊँनी : एक मैसाक द्वि च्याला छया। उनून में नान च्याला ले बाबू थेँ क्यों कि ओ बाबा तुमार धन में जो मेरो बाँणो को होऔं बो मैकैं दी दिय, तब वीले आपन धन उनून में बाँणि दियो। मनै दिन भ्या कि नान चेलो सब कुछ बटोलिबेर परदेस न्हैग्यो और वाँ वीले आपनि गठि उड़ै दी।

 गढ़वाली : एक क्षण का दूइ नौन्याल थ्या। ऊँ-मा-न-काणसा न अपना बूबा माँ बोले कि हे बूबा बिरसत को बाँठो जो मेरो छ मैँ दे। तब वै न बिरसत ऊ सणी बाँटी दिने; और भिंडे दिन नि होया काणसा नौन्याल न सब कठो करी क एक दूर देस चल्ला और अख अपणी रोजी कुकर्म में उडाये।

 देवनागरी लिपि

देवनागरी लिपि का विकास

 उच्चरित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति 'भाषा' कहलाती है जबकि लिखित वर्ण संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति लिपि। भाषा श्रव्य होती है जबकि लिपि दृश्य।

भारत की सभी लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से ही निकली हैं।

ब्राह्मी लिपि का प्रयोग वैदिक आर्यो ने शुरू किया।

ब्राह्मी लिपि का प्राचीनतम नमूना 5वीं सदी BC का है जो कि बौद्धकालीन है।

गुप्तकाल के आरंभ में ब्राह्मी के दो भेद हो गए उत्तरी ब्राह्मी व दक्षिणी ब्राह्मी। दक्षिणी ब्राह्मी से तमिल लिपि/ कलिंग लिपि, तेलगु-कन्नड़ लिपि, ग्रंथ लिपि (तमिलनाडु), मलयालम लिपि (ग्रंथ लिपि से विकसित) का विकास हुआ।

उत्तर ब्राह्मी से नागरी लिपि का विकास

उत्तर ब्राह्मी (350 ई० तक)-गुप्त लिपि (4वीं-5वीं सदी)-सिद्धमातृका लिपि-कुटिल लिपि- नागरी एवं शारदा

शारदा- गुरुमुखी, कश्मीरी, लहंदा, टाकरी

नागरी लिपि का प्रयोग काल 8वीं-9वीं सदी ई० से आरंभ हुआ। 10वीं से 12वीं सदी के बीच इसी प्राचीन नागरी से उत्तरी भारत की अधिकांश आधुनिक लिपियों का विकास हुआ। इसकी दो शाखाएँ मिलती हैं पश्चिमी व पूर्वी। पश्चिमी शाखा की सर्वप्रमुख/प्रतिनिधि लिपि देवनागरी लिपि है।

नागरी

No.-1. पश्चिमी शाखा- देवनागरी, राजस्थानी, गुजराती, महाजनी, कैथी

No.-2. पूर्वी शाखा- बांग्ला लिपि, असमी, उड़िया

 देवनागरी लिपि का हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि के रूप में विकास

 देवनागरी लिपि को हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि बनने में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। अंग्रेजों की भाषा-नीति फारसी की ओर अधिक झुकी हुई थी इसलिए हिन्दी को भी फारसी लिपि में लिखने का खड्यंत्र किया गया।

जान गिलक्राइस्ट : हिन्दी भाषा और फारसी लिपि का घालमेल फोर्ट विलियम कॉलेज (1800-54) की देन थी। फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग के सर्वप्रथम अध्यक्ष जान गिलक्राइस्ट थे। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी की तीन शैलियाँ थीं- दरबारी या फारसी शैली, हिन्दुस्तानी शैली व हिन्दवी शैली। वे फारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गँवारू मानते थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता दी। उन्होंने हिन्दुस्तानी के जिस रूप को बढ़ावा दिया, उसका मूलाधार तो हिन्दी ही था किन्तु उसमें अरबी-फारसी शब्दों की बहुलता थी और वह फारसी लिपि में लिखी जाती थी। गिलक्राइस्ट ने हिन्दुस्तानी के नाम पर असल में उर्दू का ही प्रचार किया।

विलियम प्राइस : 1823 ई० में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में विलियम प्राइस की नियुक्ति हुई। उन्होंने हिन्दुस्तानी के नाम पर हिन्दी (नागरी लिपि में लिखित) पर बल दिया। प्राइस ने गिलक्राइस्ट द्वारा जनित भाषा-संबंधी भ्रांति को दूर करने का प्रयास किया। लेकिन प्राइस के बाद कॉलेज की गतिविधियों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।

अदालत संबंधी विज्ञप्ति (1837 ई०) : वर्ष 1830 ई० में अंग्रेज कंपनी द्वारा अदालतों में फारसी के साथ-साथ देशी भाषाओं को भी स्थान दिया गया। वास्तव में, इस विज्ञप्ति का पालन 1837 ई० में ही शुरू हो सका। इसके बाद बंगाल में बांग्ला भाषा और बांग्ला लिपि प्रचलित हुई, संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश), बिहार व मध्य प्रांत (मध्य प्रदेश) में भाषा के रूप में तो हिन्दी का प्रचलन हुआ लेकिन लिपि के मामले में नागरी लिपि के स्थान पर उर्दू लिपि का प्रचार किया जाने लगा। इसका मुख्य कारण अदालती अमलों की कृपा तो थी ही, साथ ही मुसलमानों ने भी धार्मिक आधार पर जी-जान से उर्दू का समर्थन किया और हिन्दी को कचहरी से ही नहीं शिक्षा से भी निकाल बाहर करने का आंदोलन चालू किया।

1857 के विद्रोह के बाद हिन्दू-मुसलमानों के पारस्परिक विरोध में ही सरकार अपनी सुरक्षा समझने लगी। अतः भाषा के क्षेत्र में उनकी नीति भेदपूर्ण हो गई। अंग्रेज विद्वानों के दो दल हो गए। दोनों ओर से पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क-वितर्क प्रस्तुत किए गए। बीम्स साहब उर्दू का और ग्राउस साहब हिन्दी का समर्थन करनेवालों में प्रमुख थे।

नागरी लिपि और हिन्दी तथा फारसी लिपि और उर्दू का अभिन्न संबंध हो गया था। अतः दोनों से दोनों के पक्ष-विपक्ष में काफी विवाद हुआ।

राजा शिव प्रसाद 'सितारे-हिन्द' का लिपि संबंधी प्रतिवेदन (1868 ई०) : फारसी लिपि के स्थान पर नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के लिए पहला प्रयास राजा शिवप्रसाद का 1868 ई० में उनके लिपि संबंधी प्रतिवेदन 'मेमोरण्डम कोर्ट कैरेक्टर इन द अपर प्रोविन्स ऑफ इंडिया' से आरंभ हुआ।

जान शोर : एक अंग्रेज अधिकारी फ्रेडरिक जान शोर ने फारसी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं के प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त की थी और न्यायालय में हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी लिपि का समर्थन किया था।

बंगाल के गवर्नर ऐशले के आदेश (1870 ई० व 1873 ई०) : वर्ष 1870 ई० में बंगाल के गवर्नर ऐशले ने देवनागरी के पक्ष में एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि फारसी-पूरित उर्दू नहीं लिखी जाए बल्कि ऐसी भाषा लिखी जाए जो एक कुलीन हिन्दुस्तानी फारसी से पूर्णतया अनभिज्ञ रहने पर भी बोलता है। वर्ष 1873 ई० में बंगाल सरकार ने यह आदेश जारी किया कि पटना, भागलपुर तथा छोटानागपुर डिविजनों (संभागों) के न्यायालयों व कार्यालयों में सभी विज्ञप्तियाँ तथा घोषणाएं हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि में जारी की जाएं।

वर्ष 1881 ई० तक आते-आते उत्तर प्रदेश के पड़ोसी प्रांतों बिहार, मध्य प्रदेश में नागरी लिपि और हिन्दी प्रयोग की सरकारी आज्ञा जारी हो गई तो उत्तर प्रदेश में नागरी आंदोलन को बड़ा नैतिक प्रोत्साहन मिला।

गौरी दत्त : व्यक्तिगत रूप से मेरठ के पंडित गौरीदत्त की नागरी प्रचार के लिए की गई सेवाएँ अविस्मरणीय हैं। गौरीदत्त ने 1874 ई० में अपने संपादकत्व में 'नागरी प्रकाश' नामक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने और भी कई पत्रिकाओं का संपादन किया- 'देवनागरी गजट' (1888 ई०), 'देवनागर' (1891 ई०), 'देवनागरी प्रचारक' (1892 ई०) आदि।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नागरी आंदोलन को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की और वे इसके प्रतीक और नेता माने जाने लगे। उन्होंने 1882 में शिक्षा आयोग के प्रश्न-पत्र का जवाब देते हुए कहा : 'सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की'

प्रताप नारायण मिश्र : पंडित प्रताप नारायण मिश्र ने 'हिन्दी हिन्दू-हिन्दुस्तान' का नारा लगाना शुरू किया।

1893 ई० में अंग्रेज सरकार ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनाने का प्रश्न खड़ा कर दिया। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।

नागरी प्रचारिणी सभा, काशी (स्थापना 1893 ई०) व मदन मोहन मालवीय : नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना- वर्ष 1893 ई० में नागरी प्रचार एवं हिन्दी भाषा के संवर्द्धन के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना की गई। सर्वप्रथम इस सभा ने कचहरी में नागरी लिपि का प्रवेश कराना ही अपना मुख्य कर्तव्य निश्चित किया। सभा ने 'नागरी कैरेक्टर' नामक एक पुस्तक अंग्रेजी में तैयार की, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की अनुपयुक्तता पर प्रकाश डाला गया था।

मालवीय के नेतृत्व में 17 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा लेफ्टिनेंट, गवर्नर एण्टोनी मैकडानल को याचिका या मेमोरियल देना (1898 ई०)- मालवीय ने एक स्वतंत्र पुस्तिका 'कोर्ट कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेज' (1897 ई०) लिखी, जिसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। वर्ष 1898 ई० में प्रांत के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर के काशी आने पर नागरी प्रचारिणी सभा का एक प्रभावशाली प्रतिनिधि मंडल मालवीय के नेतृत्व में उनसे मिला और हजारों हस्ताक्षरों से युक्त एक मेमोरियल उन्हें दिया। यह मालवीयजी का ही अथक प्रयास था जिसके परिमाणस्वरूप अदालतों में नागरी को प्रवेश मिल सका। इसलिए अदालतों में नागरी के प्रवेश का श्रेय मालवीयजी को दिया जाता है।

 इन तमाम प्रयत्नों का शुभ परिणाम यह हुआ कि 18 अप्रैल 1900 ई० को गवर्नर साहब ने फारसी के साथ नागरी को भी अदालतों/कचहरियों में समान अधिकार दे दिया। सरकार का यह प्रस्ताव हिन्दी के स्वाभिमान के लिए सन्तोषप्रद नहीं था। इससे हिन्दी को अधिकारपूर्ण सम्मान नहीं दिया गया था बल्कि हिन्दी के प्रति दया दिखलाई गई थी। केवल हिन्दी भाषी जनता के लिए सुविधा का प्रबंध किया गया था। फिर भी, इसे इतना श्रेय तो है ही कि नागरी को कचहरियों में स्थान दिला सका और वह मजबूत आधार प्रदान किया जिसके बल पर वह 20वीं सदी में राष्ट्रलिपि के रूप में उभरकर सामने आ सकी।

शारदा चरण मित्र (1848-1917 ई०) : कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शारदा चरण मित्र ने अगस्त 1907 ई० में कलकत्ता में 'एक लिपि विस्तार परिषद' नामक संस्था की स्थापना की। मित्र ने इस संस्था की ओर से 'देवनागर' (1907 ई०) पत्र प्रकाशित करके भारत की सभी भाषाओं के साहित्य को देवनागरी लिपि में प्रस्तुत करने का उपक्रम रचा। इस पत्र में भिन्न-भिन्न भाषाओं के लेख देवनागरी लिपि में छपा करते थे। वे अखिल भारतीय लिपि के रूप में देवनागरी लिपि के प्रथम प्रचारक थे।

नेहरू रिपोर्ट (1928 ई०) की भाषा-लिपि संबंधी संस्तुति : नेहरू रिपोर्ट की भाषा-लिपि संबंधी संस्तुति में कहा गया : 'देवनागरी अथवा फारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राजभाषा होगी' । स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि के मामले में इस समय तक द्वैध या विवाद की स्थिति बनी हुई थी।

संविधान सभा में भाषा संबंधी विधेयक पारित (14 सितम्बर, 1949 ई०) : जब संविधान सभा ने 14 सितम्बर, 1949 ई० को भाषा संबंधी विधेयक पारित किया तब जाकर लिपि के मामले में विद्यमान द्वैध या विवाद अंतिम रूप से समाप्त हुआ। अनुच्छेद 343(1) में स्पष्ट घोषणा की गई : 'संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी' । इस प्रकार, 150 वर्षों (1800-1949 ई०) के लम्बे संघर्ष के बाद देवनागरी लिपि हिन्दी भाषा की एकमात्र और अधिकृत लिपि बन पाई।

देवनागरी लिपि का नामकरण

 देवनागरी लिपि को 'लोक नागरी' एवं 'हिन्दी लिपि' भी कहा जाता है।

देवनागरी का नामकरण विवादास्पद है। ज्यादातर विद्वान गुजरात के नागर ब्राह्मणों से इसका संबंध जोड़ते हैं। उनका मानना है कि गुजरात में सर्वप्रथम प्रचलित होने से वहाँ के पण्डित वर्ग अर्थात नागर ब्राह्मणों के नाम से इसे 'नागरी' कहा गया। अपने अस्तित्व में आने के तुरंत बाद इसने देवभाषा संस्कृत को लिपिबद्ध किया इसलिए 'नागरी' में 'देव' शब्द जुड़ गया और बन गया 'देवनागरी'

देवनागरी लिपि का स्वरूप

 यह लिपि बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती है। जबकि फारसी लिपि (उर्दू, अरबी, फारसी भाषा की लिपि) दायीं ओर से बायीं ओर लिखी जाती है।

यह अक्षरात्मक लिपि (Syllabic script) है जबकि रोमन लिपि (अंग्रेजी भाषा की लिपि) वर्णात्मक लिपि (Alphabetic script) है।

देवनागरी लिपि के गुण

 No.-1.एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण संकेत

No.-2. एक वर्ण संकेत से अनिवार्यतः एक ही ध्वनि व्यक्त

No.-3. जो ध्वनि का नाम वही वर्ण का नाम

No.-4. मूक वर्ण नहीं

No.-5. जो बोला जाता है वही लिखा जाता है

No.-6. एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं

No.-7. उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की क्षमता

No.-8. वर्णमाला ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरूप

No.-9. प्रयोग बहुत व्यापक (संस्कृत, हिन्दी, मराठी, नेपाली की एकमात्र लिपि)

No.-10. भारत की अनेक लिपियों के निकट

 देवनागरी लिपि के दोष

 No.-1. कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकण, मुद्रण में कठिनाई

No.-2. शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए

No.-3. समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)

No.-4. वर्णों के संयुक्त करने की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं

No.-5. अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव

No.-6. त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार-बार उठाना पड़ता है।

No.-7. वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति

No.-10. इ की मात्रा ( ि) का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद

 देवनागरी लिपि में किये गये सुधार

 No.-1. बाल गंगाधर का 'तिलक फांट' (1904-26)

No.-2. सावरकर बंधुओं का 'अ की बारहखड़ी'

No.-3. श्याम सुन्दर दास का पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार के प्रयोग का सुझाव

No.-4. गोरख प्रसाद का मात्राओं को व्यंजन के बाद दाहिने तरफ अलग रखने का सुझाव (जैसे, कुल- क ु ल)

No.-5. श्री निवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण के नीचे s चिह्न लगाने का सुझाव

No.-6. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर अधिवेशन और काका कालेलकर के संयोजकत्व में नागरी लिपि सुधार समिति का गठन (1935) और उसकी सिफारिशें

No.-7. काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी और श्री निवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय (1945)

No.-8. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित आचार्य नरेन्द्र देव समिति का गठन (1947) और उसकी सिफारिशें

No.-9. शिक्षा मंत्रालय के देवनागरी लिपि संबंधी प्रकाशन- 'मानक देवनागरी वर्णमाला' (1966 ई०), 'हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' (1967 ई०), 'देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' (1983 ई०) आदि।

 हिन्दी भाषा का मानकीकरण

मानक भाषा (Standard Language)

 मानक का अभिप्राय है- आदर्श, श्रेष्ठ अथवा परिनिष्ठित। भाषा का जो रूप उस भाषा के प्रयोक्ताओं के अलावा अन्य भाषा-भाषियों के लिए आदर्श होता है, जिसके माध्यम से वे उस भाषा को सीखते हैं, जिस भाषा-रूप का व्यवहार पत्राचार, शिक्षा, सरकारी काम-काज एवं सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान में समान स्तर पर होता है, वह उस भाषा का मानक रूप कहलाता है।

मानक भाषा किसी देश अथवा राज्य की वह प्रतिनिधि तथा आदर्श भाषा होती है जिसका प्रयोग वहाँ के शिक्षित वर्ग द्वारा अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, व्यापारिक व वैज्ञानिक तथा प्रशासनिक कार्यों में किया जाता है।

मानकीकरण (मानक भाषा के विकास) के तीन सोपान : बोली-भाषा-मानक भाषा

किसी भाषा का बोल-चाल के स्तर से ऊपर उठकर मानक रूप ग्रहण कर लेना उसका मानकीकरण कहलाता है।

प्रथम सोपान : 'बोली' : पहले स्तर पर भाषा का मूल रूप एक सीमित क्षेत्र में आपसी बोलचाल के रूप में प्रयुक्त होनेवाली बोली का होता है, जिसे स्थानीय, आंचलिक अथवा क्षेत्रीय बोली कहा जा सकता है। इसका शब्द भंडार सीमित होता है। कोई नियमित व्याकरण नहीं होता। इसे शिक्षा, आधिकारिक कार्य-व्यवहार अथवा साहित्य का माध्यम नहीं बनाया जा सकता।

 द्वितीय सोपान : 'भाषा' : वही बोली कुछ विशेष भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक व प्रशासनिक कारणों से अपना क्षेत्र विस्तार कर लेती है, उसका लिखित रूप विकसित होने लगता है और इसी कारण वह व्याकरणिक साँचे में ढलने लगती है, उसका पत्राचार, शिक्षा, व्यापार, प्रशासन आदि में प्रयोग होने लगता है, तब वह बोली न रहकर 'भाषा' की संज्ञा प्राप्त कर लेती है।

 तृतीय सोपान : 'मानक भाषा' : यह वह स्तर है जब भाषा के प्रयोग का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जाता है। वह एक आदर्श रूप ग्रहण कर लेती है। उसका परिनिष्ठित रूप होता है। उसकी अपनी शैक्षणिक, वाणिज्यिक, साहित्यिक, शास्त्रीय, तकनीकी एवं क़ानूनी शब्दावली होती है। इसी स्थिति में पहुँचकर भाषा 'मानक भाषा' बन जाती है। उसी को 'शुद्ध', 'उच्च-स्तरीय', 'परिमार्जित' आदि भी कहा जाता है।

 मानक भाषा के तत्व :

No.-1. ऐतिहासिकता

No.-2. स्वायत्तता

No.-3. केन्द्रोन्मुखता

No.-4.बहुसंख्यक प्रयोगशीलता

No.-5.सहजता/बोधगम्यता

No.-6. व्याकरणिक साम्यता

No.-7.सर्वविधि एकरूपता।

मानकीकरण का एक प्रमुख दोष यह है कि मानकीकरण करने से भाषा में स्थिरता आने लगती है जिससे भाषा की गति अवरुद्ध हो जाती है।

हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दिशा में उठाये गए महत्वपूर्ण कदम

 No.-1. राजा शिवप्रसाद 'सितारे-हिन्द' ने क ख ग ज फ पाँच अरबी-फारसी ध्वनियों के लिए चिह्नों के नीचे नुक्ता लगाने का रिवाज आरंभ किया।

 No.-2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' के जरिये खड़ी बोली को व्यावहारिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया।

 

No.-3. अयोध्या प्रसाद खत्री ने प्रचलित हिन्दी को 'ठेठ हिन्दी' की संज्ञा दी और ठेठ हिन्दी का प्रचार किया। उन्होंने खड़ी बोली को पद्य की भाषा बनाने के लिए आंदोलन चलाया।

 No.-4. हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दृष्टि से द्विवेदी युग (1900-20) सर्वाधिक महत्वपूर्ण युग था। 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने खड़ी बोली के मानकीकरण का सवाल सक्रिय रूप से और एक आंदोलन के रूप में उठाया। युग निर्माता द्विवेदीजी ने 'सरस्वती' पत्रिका के जरिये खड़ी बोली हिन्दी के प्रत्येक अंग को गढ़ने-संवारने का कार्य खुद तो बहुत लगन से किया ही, साथ ही अन्य भाषा-साधकों को भी इस कार्य की ओर प्रवृत किया। द्विवेदीजी की प्रेरणा से कामता प्रसाद गुरु ने 'हिन्दी व्याकरण' के नाम से एक वृहद व्याकरण लिखा।

 No.-5. छायावाद युग (1918-36) व छायावादोत्तर युग (1936 के बाद) में हिन्दी के मानकीकरण की दिशा में कोई आंदोलनात्मक प्रयास तो नहीं हुआ, किन्तु भाषा का मानक रूप अपने-आप स्पष्ट होता चला गया।

 

No.-6.स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद (1947 के बाद) हिन्दी के मानकीकरण पर नये सिरे से विचार-विमर्श शुरू किया क्योंकि संविधान ने इसे राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया जिससे हिन्दी पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ पड़ा। इस दिशा में दो संस्थाओं का विशेष योगदान रहा- इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के माध्यम से 'भारतीय हिन्दी परिषद' का तथा शिक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय का।

 

भारतीय हिन्दी परिषद : भाषा के सर्वागीण मानकीकरण का प्रश्न सबसे पहले 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने ही उठाया। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई जिसमें डॉ० हरदेव बाहरी, डॉ० ब्रजेश्वर शर्मा, डॉ० माता प्रसाद गुप्त आदि सदस्य थे। धीरेन्द्र वर्मा ने 'देवनागरी लिपि चिह्नों में एकरूपता', हरदेव बाहरी ने 'वर्ण विन्यास की समस्या', ब्रजेश्वर शर्मा ने 'हिन्दी व्याकरण' तथा माता प्रसाद गुप्त ने 'हिन्दी शब्द-भंडार का स्थरीकरण' विषय पर अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किए।

 केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय : केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने लिपि के मानकीकरण पर अधिक ध्यान दिया और 'देवनागरी' लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण (1983 ई०) का प्रकाशन किया।

 विश्व हिन्दी सम्मेलन

उद्देश्य : UNO की भाषाओं में हिन्दी को स्थान दिलाना व हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना।

क्रम

तिथि

आयोजन स्थल

पहला

10-14 जनवरी, 1975

नागपुर (भारत); अध्यक्ष-शिवसागर राम गुलाम (मारिशस के तत्कालीन राष्ट्रपति), उद्घाटन-इंदिरा गाँधी

दूसरा

28-30 अगस्त, 1976

पोर्ट लुई (मारिशस)

तीसरा

28-30 अक्टूबर, 1983

नई दिल्ली (भारत)

चौथा

02-04 दिसम्बर, 1993

पोर्ट लुई (मारिशस)

पांचवां

04-08 अप्रैल, 1996

पोर्ट ऑफ स्पेन (ट्रिनिडाड एवं टोबैगो)

छठा

14-18 सितम्बर, 1999

लन्दन (ब्रिटेन)

सातवां

05-09 जून, 2003

पारामारिबो (सूरीनाम)

आठवां

13-15 जुलाई, 2007

न्यूयार्क (अमेरिका)

नवां

22-24 सितम्बर, 2012

जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रीका)

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