No.-1.हिन्दी भाषा का विकास
'हिंदी' विश्व की लगभग 3,000 भाषाओं में से एक है।
आकृति या रूप के आधार पर हिन्दी
वियोगात्मक या विश्लिष्ट भाषा है।
भाषा-परिवार के आधार पर हिन्दी भारोपीय
(Indo-European) परिवार की भाषा है।
भारत में 4 भाषा-परिवार- भारोपीय, द्रविड़, आस्ट्रिक व चीनी-तिब्बती मिलते हैं। भारत में बोलनेवालों के प्रतिशत के आधार पर भारोपीय परिवार सबसे बड़ा भाषा-परिवार है।
भाषा-परिवार |
भारत में बोलनेवालों का % |
भारोपीय |
73% |
द्रविड़ |
25% |
आस्ट्रिक |
1.3% |
चीनी-तिब्बती |
0.7% |
हिन्दी, भारोपीय/भारत-यूरोपीय के भारतीय-ईरानी
(Indo-Iranian) शाखा के भारतीय आर्य (Indo-Aryan) उपशाखा
की एक भाषा है।
भारतीय आर्यभाषा (भा. आ.) को तीन कालों
में विभक्त किया जाता है।
नाम |
प्रयोग काल |
उदाहरण |
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा. आ.) |
1500 ई० पू० - 500 ई० पू० |
वैदिक संस्कृत व लौकिक संस्कृत |
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.) |
500 ई० पू - 1000 ई० |
पालि, प्राकृत, अपभ्रंश |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.) |
1000 ई० - अब तक |
हिन्दी और हिन्दीतर भाषाएं- बांग्ला, उड़िया, असमिया, मराठी, गुजराती, पंजाबी, सिंधी आदि |
प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (प्रा. भा.
आ.)
नाम |
अन्य नाम |
प्रयोग काल |
वैदिक संस्कृत |
छान्दस (यास्क, पाणिनी
द्वारा प्रयुक्त नाम) |
1500 ई० पू० - 1000 ई० पू० |
लौकिक संस्कृत |
संस्कृत, भाषा (पाणिनी
द्वारा प्रयुक्त नाम) |
1000 ई० पू० - 500 ई० पू० |
मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा (म. भा. आ.)
नाम |
प्रयोग काल |
विशेष टिप्पणी |
प्रथम प्राकृत काल : पालि |
500 ई० पू० - 1ली ई० |
भारत की प्रथम देश भाषा, भगवान बुद्ध
के सारे उपदेश पालि में ही हैं। |
द्वितीय प्राकृत काल : प्राकृत |
1ली ई० - 500 ई० |
भगवान महावीर के सारे उपदेश प्राकृत में ही है। |
तृतीय प्राकृत काल : अपभ्रंश |
500-1000 ई० |
|
: अवहट्ट |
900-1100 ई० |
संक्रमणकालीन/संक्रातिकालीन भाषा |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा (आ. भा. आ.)
प्राचीन हिन्दी |
1100 ई० - 1400 ई० |
मध्यकालीन हिन्दी |
1400 ई० - 1850 ई० |
आधुनिक हिन्दी |
1850 ई० - अब तक |
हिन्दी की आदि जननी संस्कृत है।
संस्कृत पालि, प्राकृत भाषा से होती हुई अपभ्रंश तक पहुँचती
है। फिर अपभ्रंश, अवहट्ट से गुजरती हुई प्राचीन/प्रारंभिक हिन्दी
का रूप लेती है। सामान्यतः हिन्दी भाषा के इतिहास का आरंभ अपभ्रंश से माना जाता
है।
हिन्दी का विकास क्रम :
(विकास चिह्न के लिए प्रयुक्त संकेत)
अपभ्रंश (अप + भ्रंश + घञ) शब्द का यों
तो शाब्दिक अर्थ है 'पतन' किन्तु अपभ्रंश साहित्य से अभीष्ट है- प्राकृत
भाषा से विकसित भाषा विशेष का साहित्य।
प्रमुख रचनाकार : स्वयंभू- अपभ्रंश का वाल्मीकि ('पउम चरिउ' अर्थात राम काव्य), धनपाल ('भविस्सयत कहा'- अपभ्रंश का पहला प्रबंध काव्य), पुष्पदंत ('महापुराण', 'जसहर चरिउ'), सरहपा, कण्हपा आदि सिद्धों की रचनाएँ ('चरिया पद', 'दोहाकोशी') आदि।
अपभ्रंश से आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं
का विकास
अपभ्रंश के भेद |
आधुनिक भारतीय आर्यभाषा |
शौरसेनी |
पश्चिमी हिन्दी |
अर्द्धमागधी |
पूर्वी हिन्दी |
मागधी |
बिहारी |
खस |
पहाड़ी (शौरसेनी से प्रभावित) |
ब्राचड़ |
पंजाबी (शौरसेनी से प्रभावित) |
महाराष्ट्री |
मराठी |
अवहट्ट
अब्दुर रहमान, दामोदर
पण्डित, ज्योतिरीश्वर ठाकुर, विद्यापति
आदि रचनाकारों ने अपनी भाषा को 'अवहट्ट'
या 'अवहट्ठ' कहा है। विद्यापति प्राकृत की तुलना
में अपनी भाषा को मधुरतर बताते हैं : 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा/ते तैसन जम्पञो
अवहट्ठा' अर्थात,
देश की भाषा सब लोगों के लिए मीठी है, इसे
अवहट्ठा कहा जाता है।
प्रमुख रचनाकार : अद्दहमाण/अब्दुर
रहमान ('संनेह रासय'/संदेश रासक'),
दामोदर पण्डित ('उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण'), ज्योतिरीश्वर
ठाकुर ('वर्ण रत्नाकर'), विद्यापति ('कीर्तिलता'), रोड
कवि ('राउलवेल')
आदि।
प्राचीन या पुरानी हिन्दी/प्रारंभिक या
आरंभिक हिन्दी/आदिकालीन हिन्दी
प्राचीन हिन्दी से अभिप्राय है-
अपभ्रंश-अवहट्ट के बाद की भाषा।
हिन्दी का आदिकाल हिन्दी भाषा का
शिशु-काल है। यह वह काल था जब अपभ्रंश-अवहट्ट का प्रभाव हिन्दी भाषा पर मौजूद था
और हिन्दी की बोलियों के निश्चित व स्पष्ट स्वरूप विकसित नहीं हुए थे।
हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति
उपर्युक्त बातों से तीन बातें सामने
आती हैं-
सिंधु - हिन्दु - हिन्द + ई - हिन्दी।
ब्रजभाषा : प्राचीन हिन्दी काल में
ब्रजभाषा अपभ्रंश-अवहट्ट से ही जीवन-रस लेती रही। अपभ्रंश-अवहट्ट की रचनाओं में
ब्रजभाषा के फूटते हुए अंकुर को देखा जा सकता है। ब्रजभाषा साहित्य का प्राचीनतम
उपलब्ध ग्रंथ सुधीर अग्रवाल का 'प्रद्युम्न चरित' (1354 ई०) हैं।
अवधी : अवधी की पहली कृति मुल्ला दाउद
की 'चंदायन'
या 'लोरकहा' (1370 ई०) मानी जाती है। इसके उपरांत अवधी
भाषा के साहित्य का उत्तरोतर विकास होता गया।
खड़ी बोली : प्राचीन हिन्दी काल में रचित खड़ी बोली साहित्य में खड़ी बोली के आरंभिक प्रयोगों से उसके आदि रूप या बीज रूप का आभास मिलता है। खड़ी बोली का आदिकालीन रूप सरहपा आदि सिद्धों, गोरखनाथ आदि नाथों, अमीर खुसरो जैसे सूफियों, जयदेव, नामदेव, रामानंद आदि संतों की रचनाओं में उपलब्ध है। इन रचनाकारों में हमें अपभ्रंश-अवहट्ट से निकलती हुई खड़ी बोली स्पष्टतः दिखाई देती है।
मध्यकालीन हिन्दी
प्रमुख रचनाकार
अवधी : अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप
में प्रतिष्ठित करने का श्रेय सूफी/प्रेममार्गी कवियों को है। कुत्बन ('मृगावती'), जायसी
('पद्मावत'), मंझन
('मधुमालती'), आलम
('माधवानल
कामकंदला'), उसमान ('चित्रावली'),
नूर मुहम्मद ('इन्द्रावती'), कासिमशाह
('हंस
जवाहिर'), शेख निसार ('यूसुफ़ जुलेखा'), अलीशाह
('प्रेम
चिंगारी') आदि सूफी कवियों ने अवधी को साहित्यिक गरिमा
प्रदान की। इनमें सर्वप्रमुख जायसी थे। अवधी को रामभक्त कवियों ने अपनी अभिव्यक्ति
का माध्यम बनाया, विशेषकर तुलसीदास ने 'राम
चरित मानस' की रचना बैसबाड़ी अवधी में कर अवधी भाषा को जिस
साहित्यिक ऊँचाई पर पहुँचाया वह अतुलनीय है। मध्यकाल में साहित्यिक अवधी का
चरमोत्कर्ष दो कवियों में मिलता है जायसी और तुलसीदास में। जायसी के यहाँ अवधी का
ठेठ ग्रामीण रूप में मिलता है वहाँ तुलसी के यहाँ अवधी का तत्सममुखी रूप।
(गोहारी/गोयारी- बंगाल में सूफियों द्वारा प्रचारित अवधी भाषा का नाम।)
खड़ी बोली : मध्यकाल में खड़ी बोली का
मुख्य केन्द्र उत्तर से बदलकर दक्कनी में हो गया। इस प्रकार, मध्यकाल
में खड़ी बोली के दो रूप हो गए- उत्तरी हिन्दी व दक्कनी हिन्दी। खड़ी बोली का
मध्यकालीन रूप कबीर, नानक, दादू, मलूकदास,
रज्जब आदि संतों; गंग
की 'चन्द छन्द वर्णन की महिमा', रहीम
के 'मदनाष्टक',
आलम के 'सुदामा चरित', जटमल
की 'गोरा बादल की कथा', वली, सौदा, इन्शा, नजीर
आदि दक्कनी एवं उर्दू के कवियों, 'कुतुबशतम'
(17वीं सदी), 'भोगलू
पुराण' (18वीं सदी),
सन्त प्राणनाथ के 'कुलजमस्वरूप' आदि
में मिलता है।
आधुनिककालीन हिन्दी
हिन्दी के आधुनिक काल में प्रारंभ में
एक ओर उर्दू का प्रचार होने और दूसरी ओर काव्य की भाषा ब्रजभाषा होने के कारण खड़ी
बोली को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19वीं सदी तक कविता की भाषा ब्रजभाषा और
गद्य की भाषा खड़ी बोली रही। 20वीं सदी के आते-आते खड़ी बोली गद्य-पद्य दोनों
की साहित्यिक भाषा बन गई।
इस युग में खड़ी बोली को प्रतिष्ठित करने में विभिन्न धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलनों ने बड़ी सहायता की। फलतः खड़ी बोली साहित्य की सर्वप्रमुख भाषा बन गयी।
खड़ी बोली
भारतेन्दु युग (1850
ई०-1900 ई०) : इन दोनों के बीच सर्वमान्य हिन्दी गद्य
की प्रतिष्ठा कर गद्य साहित्य की विविध विधाओं का ऐतिहासिक कार्य भारतेन्दु युग
में हुआ। हिन्दी सही मायने में भारतेन्दु के काल में 'नई
चाल में ढली' और उनके समय में ही हिन्दी के गद्य के बहुमुखी
रूप का सूत्रपात हुआ। उन्होंने न केवल स्वयं रचना की बल्कि अपना एक लेखक मंडल भी
तैयार किया, जिसे 'भारतेन्दु मंडल' कहा गया। भारतेन्दु युग की महत्वपूर्ण
उपलब्धि यह रही कि गद्य रचना के लिए खड़ी बोली को माध्यम रूप में अपनाकर युगानुरूप
स्वस्थ दृष्टिकोण का परिचय दिया। लेकिन पद्य रचना के मामले में ब्रजभाषा या खड़ी
बोली को अपनाने के प्रश्न पर विवाद बना रहा जिसका अंत द्विवेदी युग में जाकर हुआ।
द्विवेदी युग (1900
ई०-1920 ई०) : खड़ी बोली और हिन्दी साहित्य के सौभाग्य
से 1903 ई० में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' पत्रिका
के संपादकत्व का भार संभाला। वे सरल और शुद्ध भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। वे
लेखकों की वर्तनी अथवा व्याकरण संबंधी त्रुटियों का संशोधन स्वयं करते चलते थे।
उन्होंने हिन्दी के परिष्कार का बीड़ा उठाया और उसे बखूबी अंजाम दिया। गद्य तो
भारतेन्दु युग से ही सफलतापूर्वक खड़ी बोली में लिखा जा रहा था, अब
पद्य की व्यावहारिक भाषा भी एकमात्र खड़ी बोली प्रतिष्ठित होने लगी। इस प्रकार
ब्रजभाषा, जिसके साथ 'भाषा' शब्द जुड़ा है, अपने क्षेत्र में सीमित हो गई अर्थात 'बोली' बन
गई। इसके मुकाबले में खड़ी बोली, जिसके साथ 'बोली' शब्द लगा है, 'भाषा' बन गई, और इसका सही नाम 'हिन्दी' हो
गया। अब खड़ी बोली दिल्ली के आस-पास की मेरठ-जनपदीय बोली नहीं रह गई अपितु वह समस्त
उत्तरी भारत के साहित्य का माध्यम बन गई। द्विवेदी युग में साहित्य रचना की विविध
विधाएं विकसित हुई। महावीर प्रसाद द्विवेदी,
श्याम सुंदर दास, पद्म
सिंह शर्मा, माधव प्रसाद मिश्र, पूर्ण
सिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी आदि के अवदान विशेषतः
उल्लेखनीय हैं।
छायावाद युग (1918
ई०-1936 ई०) एवं उसके बाद : साहित्यिक खड़ी बोली हिन्दी
के विकास में छायावाद युग का योगदान महत्वपूर्ण है। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी
वर्मा और राम कुमार वर्मा आदि ने इसमें महती योगदान दिया। इनकी रचनाओं को देखते
हुए यह कोई नहीं कह सकता है कि खड़ी बोली सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में
ब्रजभाषा से कम समर्थ है। हिन्दी में अनेक भाषायी गुणों का समावेश हुआ। अभिव्यंजना
की विविधता, बिंबों की लाक्षणिकता, रसात्मक
लालित्य छायावाद युग की भाषा की अन्यतम विशेषताएं है। हिन्दी काव्य में छायावाद
युग के बाद प्रगतिवाद युग (1936 ई०-1946 ई०) प्रयोगवाद युग (1943
से) आदि आए। इस दौर में खड़ी बोली का काव्य भाषा के रूप में उत्तरोत्तर विकास होता
गया।
पद्य के ही नहीं, गद्य
के संदर्भ में भी छायावाद युग साहित्यिक खड़ी बोली के विकास का स्वर्ण युग था। कथा
साहित्य (उपन्यास व कहानी) में प्रेमचंद, नाटक में जयशंकर प्रसाद, आलोचना
में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जो भाषा-शैलियाँ और मर्यादाएं स्थापित की उनका
अनुसरण आज भी किया जा रहा है। गद्य-साहित्य के क्षेत्र में इनके महत्व का अंदाजा
इसी बात से लगाया जा सकता है कि गद्य-साहित्य के विभिन्न विधाओं के इतिहास में
कालों का नामकरण इनके नाम को केन्द्र में रखकर किया गया है, जैसे
उपन्यास के इतिहास में प्रेमचंद-पूर्व युग,
प्रेमचन्द युग, प्रेमचंदोत्तर
युग; नाटक के इतिहास में प्रसाद-पूर्व युग, प्रसाद
युग, प्रसादोत्तर युग; आलोचना के इतिहास में शुक्ल-पूर्व युग, शुक्ल
युग, शुक्लोत्तर युग।
हिंदी के विभिन्न नाम या रूप
खड़ी बोली की 3
शैलियाँ
हिन्दी के विभिन्न अर्थ
No.-2. संवैधानिक/क़ानूनी अर्थ : संविधान के अनुसार, हिन्दी
भारत संघ की राजभाषा या अधिकृत भाषा तथा अनेक राज्यों की राजभाषा है।
No.-3. सामान्य अर्थ : समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की
परिनिष्ठित भाषा अर्थात शासन, शिक्षा,
साहित्य, व्यापार आदि की भाषा।
No.-4. व्यापक अर्थ : आधुनिक युग में हिन्दी को केवल
खड़ी बोली में ही सीमित नहीं किया जा सकता। हिन्दी की सभी उपभाषाएँ और बोलियाँ
हिन्दी के व्यापक अर्थ में आ जाती हैं।
No.-2. स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान हिन्दी का
राष्ट्रभाषा के रूप में विकास
राष्ट्रभाषा (National Language) क्या है ?
No.-2. राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय
संवाद-सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। वैसे तो सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ होती
हैं किन्तु राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तात्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर
उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय
अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही राष्ट्रभाषा है।
No.-3. स्वतंत्रता--संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा की
आवश्यकता होती है। भारत के संदर्भ में इस आवश्यकता की पूर्ति हिन्दी ने किया। यही
कारण है कि हिन्दी स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान (विशेषतः 1900
ई०-1947 ई०) राष्ट्रभाषा बनी।
No.-4. राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है
बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता-प्राप्त शब्द है।
No.-5. राष्ट्रभाषा सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं-परंपराओं
के द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात
राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता
स्थापित करना है।
No.-6. राष्ट्रभाषा का प्रयोग-क्षेत्र विस्तृत और
देशवासी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क-भाषा होती है। इसका व्यापक
अनाधार होता है।
No.-7. राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है
क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है।
राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क-भाषा
(link-language) होती है। हिन्दी दीर्घकाल से सारे देश में
जन-जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तर भारत की भाषा नहीं, बल्कि
दक्षिण भारत के आचार्यो- वल्लभाचार्य, रामानुज,
आदि- ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने
मतों का प्रचार किया था। अहिन्दी भाषी राज्यों के भक्त-संत कवियों (जैसे असम के
शंकर देव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात
के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि) ने इसी भाषा को अपने धर्म
और साहित्य का माध्यम बनाया था।
यही कारण था कि जब जनता और सरकार के
बीच संवाद-स्थापना के क्रम में फारसी या अंग्रेजी के माध्यम से दिक्कतें पेश आई तो
कंपनी सरकार ने फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग खोलकर अधिकारियों को
हिन्दी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिन्दी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न-भिन्न
क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देखकर मुक्त कंठ से हिन्दी को सराहा।
सी० टी० मेटकाफ ने 1806 ई०
में अपने शिक्षा गुरु जान गिलक्राइस्ट को लिखा : 'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना
पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ
के पहाड़ों से लेकर नर्मदा तक.... मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी
शिक्षा आपने मुझे दी है...... मैं कन्याकुमारी से कश्मीर तक या जावा से सिन्धु तक
इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल
जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'
टॉमस रोबक ने 1807 ई०
में लिखा : 'जैसे इंग्लैण्ड जानेवाले को लैटिन सेक्सन या
फ्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या
संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
विलियम केरी ने 1816 ई०
में लिखा : 'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश
में सर्वत्र बोली जानेवाली भाषा है।
एच० टी० कोलब्रुक ने लिखा : 'जिस
भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते हैं, जो
पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको
प्रत्येक गाँव में थोड़े-बहुत लोग अवश्य समझ लेते हैं, उसी
का यथार्थ नाम हिन्दी है।
जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी को 'आम
बोलचाल की महाभाषा' (Great Lingua France) कहा है।
इन विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि ही हिन्दी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेजों ने हिन्दी को अपनाया। उस समय हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा मानी जाती थी जो दो लिपियों में लिखी जाती थी। अंग्रेजों ने हिन्दी को प्रयोग में लाकर हिन्दी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा।
No.-2. धर्म/समाज सुधारकों का योगदान
धर्म/समाज सुधार की प्रायः सभी
संस्थाओं ने हिन्दी के महत्व को भाँपा और हिन्दी की हिमायत की।
ब्रह्म समाज (1828
ई०) के संस्थापक राजा राममोहन राय ने कहा : 'इस समग्र देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य
है' । ब्रह्मसमाजी केशव चन्द्र सेन ने 1875 ई०
में एक लेख लिखा- 'भारतीय एकता कैसे हो', जिसमें
उन्होंने लिखा : 'उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार।
अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित है, उनमें हिन्दी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह
हिन्दी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बनायी जाय, तो यह काम सहज ही और शीघ्र सम्पन्न हो
सकता है' । एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चन्द्र राय ने
पंजाब में हिन्दी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया।
आर्य समाज (1875
ई०) के संस्थापक दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे
जानकार थे। हिन्दी का उन्हें सिर्फ कामचलाऊ ज्ञान था, पर
अपनी बात अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मजबूत करने के
लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिन्दी में लिखा। उनका कहना था कि 'हिन्दी
के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है'।
वे इस 'आर्यभाषा'
को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार
मानते थे। उन्होंने हिन्दी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, 'मेरी
आँखें उस दिन को देखना चाहती है जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा
समझने और बोलने लग जायँ।'
अरविंद दर्शन के प्रणेता अरविंद घोष की
सलाह थी कि 'लोग अपनी-अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए
सामान्य भाषा के रूप में हिन्दी को ग्रहण करें।
थियोसोफिकल सोसायटी (1875
ई०) की संचालिका ऐनी बेसेंट ने कहा था : 'भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न भागों में जो अनेक
देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की
अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा
हिन्दी है। हिन्दी जाननेवाला आदमी संपूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे
हर जगह हिन्दी बोलनेवाले मिल सकते हैं। ...... भारत के सभी स्कूलों में हिन्दी की
शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।'
उपर्युक्त धार्मिक/सामाजिक संस्थाओं के
अतिरिक्त प्रार्थना समाज (स्थापना 1867 ई०, संस्थापक-आत्मारंग पाण्डुरंग), सनातन
धर्म सभा (स्थापना 1895 ई०, संस्थापक-पं० दीनदयाल शर्मा), रामकृष्ण
मिशन (स्थापना 1897 ई०, संस्थापक-विवेकानंद) आदि ने हिन्दी प्रचार में
योग दिया।
इससे लगता है कि धर्म/समाज सुधारकों की यह सोच बन चुकी थी कि राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिन्दी आवश्यक है। वे जानते थे कि हिन्दी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रांत के लोग दूसरे प्रांत के लोगों से सिर्फ इसी भाषा में विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ाने का कार्य इन्हीं धर्म/समाज सुधारकों ने किया।
No.-3.कांग्रेस के नेताओं का योगदान
1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। जैसे-जैसे
कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन जोर पकड़ता गया,
वैसे-वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय
झंडा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता गया।
1917 ई० में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने कहा : 'यद्यपि
मैं उन लोगों में से हूँ जो चाहते है और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की
राष्ट्रभाषा हो सकती है।' तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि हिन्दी
सीखें।
महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए
राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था : 'राष्ट्रभाषा
के बिना राष्ट्र गूंगा है'। गाँधीजी हिन्दी के प्रश्न को स्वराज का
प्रश्न मानते थे : 'हिन्दी का प्रश्न स्वराज का प्रश्न है'।
उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा-समस्या पर गंभीरता से
विचार किया। 1917 ई० भड़ौच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के
अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा :
राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्ते होनी चाहिए- |
|
No.-1. |
अमलदारों (राजकीय अधिकारियों) के लिए वह भाषा सरल होनी
चाहिए। |
No.-2. |
यह जरूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को
बोलते हों। |
No.-3. |
उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवहार हो सकना चाहिए। |
No.-4. |
राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए। |
No.-5. |
उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी
स्थिति पर जोर नहीं देनी चाहिए।‘’ |
वर्ष 1918 ई० में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के
इन्दौर अधिवेशनमें सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का
समर्थन किया : ‘मेरा यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्तान की
राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए’। इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया
कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिन्दी सीखने को प्रयाग
भेजे जाएं और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिणी भाषाएँ सीखने
तथा हिन्दी का प्रचार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के
बाद उन्होंने हिन्दी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम
हिन्दी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को
दक्षिण में मद्रास भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास (1927
ई०) एवं वर्धा (1936 ई०) में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएं स्थापित की
गई।
वर्ष 1925 ई० में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन
में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि ‘कांग्रेस
का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति
का काम-काज आमतौर पर हिन्दी में चलाया जाएगा’
। इस प्रस्ताव से हिन्दी-आंदोलन को बड़ा
बल मिला।
वर्ष 1927 ई० में गाँधीजी ने लिखा : ‘वास्तव
में ये अंग्रेजी में बोलनेवाले नेता हैं जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने
नहीं देते। वे हिन्दी सीखने से इंकार करते हैं जबकि हिन्दी द्रविड़ प्रदेश में भी
तीन महीने के अंदर सीखी जा सकती है।
वर्ष 1927 ई० में सी० राजगोपालाचारी ने दक्षिणवालों
को हिन्दी सीखने की सलाह दी और कहा : ‘हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही
जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी’ ।
वर्ष 1928 ई० में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में
भाषा संबंधी सिफारिश में कहा गया था : ‘देवनागरी अथवा फारसी में लिखी जानेवाली
हिन्दुस्तानी भारत की राजभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेजी का उपयोग जारी
रहेगा’ । सिवाय ‘देवनागरी या फारसी’ की
जगह ‘देवनागरी’
तथा ‘हिन्दुस्तानी’ की
जगह ‘हिन्दी’
रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के
संविधान में इसी मत को अपना लिया गया।
वर्ष 1929 ई० में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा : ‘प्रांतीय
ईष्र्या-द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी, उतनी
दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रांतीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें
कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे
प्रांतों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है’।
वर्ष 1931 ई० में गाँधीजी ने लिखा : ‘यदि
स्वराज्य अंग्रेजी-पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो संपर्क भाषा
अवश्य अंग्रेजी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर
स्त्रियों, सताये हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा
केवल हिन्दी हो सकती है’।
गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में
करने के पक्षधर थे।
वर्ष 1936 ई० में गाँधीजी ने कहा : ‘अगर
हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो
हिन्दी ही बन सकती है क्योंकि जो स्थान हिन्दी को प्राप्त है वह किसी और भाषा को
नहीं मिल सकता’।
वर्ष 1937 ई० में देश के कुछ राज्यों में
कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिन्दी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने
का संकल्प लिया गया।
जैसे-जैसे स्वतंत्रता-संग्राम तीव्रतर होता गया वैसे-वैसे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन जोर पकड़ता गया। 20 वीं सदी के चौथे दशक तक हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। वर्ष 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत-प्रोत जितनी रचनाएँ हिन्दी में लिखी गई उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा के प्रचार के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर अंग्रेजी को भारत छोड़ना पड़ा।
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से
संबंधित धार्मिक सामाजिक संस्थाएँ
नाम |
मुख्यालय |
स्थापना |
संस्थापक |
ब्रह्म समाज |
कलकत्ता |
1828 ई० |
राजा राम मोहन राय |
प्रार्थना समाज |
बंबई |
1867 ई० |
आत्मारंग पाण्डुरंग |
आर्य समाज |
बंबई |
1875 ई० |
दयानंद सरस्वती |
थियोसोफिकल सोसायटी |
अडयार मद्रास |
1882 ई० |
कर्नल एच.एस.आलकाट एवं मैडम बलावत्सकी |
सनातन धर्म सभ (भारत धर्म महामंडल-1902 में नाम परिवर्तन) |
वाराणसी |
1895 ई० |
पं० दीन दयाल शर्मा |
रामकृष्ण मिशन |
बेलुर |
1897 ई० |
विवेकानंद |
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से
संबंधित साहित्यिक संस्थाएँ
नाम |
मुख्यालय |
स्थापना |
नागरी प्रचारिणी सभा |
काशी/वाराणसी |
1893 ई० |
हिन्दी साहित्य सम्मेलन |
प्रयाग |
1910 ई० (प्रथम
सभापति-मदन मोहन मालवीय) |
गुजरात विद्यापीठ |
अहमदाबाद |
1920 ई० |
बिहार विद्यापीठ |
पटना |
1921 ई० |
हिन्दुस्तानी एकेडमी |
इलाहाबाद |
1927 ई० |
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (पूर्व नाम-हिन्दी
साहित्य सम्मेलन) |
मद्रास |
1927 ई० |
हिन्दी विद्यापीठ |
देवघर |
1929 ई० |
राष्ट्रभाषा प्रचार समिति |
वर्धा |
1936 ई० |
महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा |
पुणे |
1937 ई० |
बंबई हिन्दी विद्यपीठ |
बंबई |
1938 ई० |
असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति |
गुवाहटी |
1938 ई० |
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद |
पटना |
1951 ई० |
अखिल भारतीय हिन्दी संस्था संघ |
नई दिल्ली |
1964 ई० |
नागरी लिपि परिषद |
नई दिल्ली |
1975 ई० |
राष्ट्रभाषा आंदोलन (हिन्दी आंदोलन) से संबंधित व्यक्तित्व
महाराष्ट्र : बाल गंगाधर तिलक (‘यह
आंदोलन उतर भारत में केवल एक सर्वमान्य लिपि के प्रचार के लिए नहीं है। यह तो उस
आंदोलन का एक अंग है, जिसे मैं राष्ट्रीय आंदोलन कहूँगा और जिसका
उद्देश्य समस्त भारतवर्ष के लिए एक राष्ट्रीय भाषा की स्थापना करना है, क्योंकि
सबके लिए समान भाषा राष्ट्रीयता का महत्वपूर्ण अंग है। अतएव यदि आप किसी राष्ट्र
के लोगों को एक दूसरे के निकट लाना चाहें तो सबके लिए समान भाषा से बढ़कर सशक्त
अन्य कोई बल नहीं है।‘), एन.सी.केलकर, डॉ भण्डारकर, वी०
डी० सावरकर, गोपाल कृष्ण गोखले, गाडगिल, काका
कालेलकर आदि।
महात्मा गाँधी के भाषा-संबंधी विचार
No.-1. करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा
देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह
सचमुच गुलामी की बुनियाद थी'। ('हिन्द स्वराज्य' 1909)
No.-2. 'अंग्रेजी भाषा हमारे राष्ट्र के पांव
में बेड़ी बनकर पड़ी हुई है। ...... भारतीय विद्यार्थी को अंग्रेजी के मार्फत ज्ञान
अर्जित करने पर कम-से-कम 6 वर्ष अधिक बर्बाद करने पड़ते हैं। .... यदि
हमें एक विदेशी भाषा पर अधिकार पाने के लिए जीवन के अमूल्य वर्ष लगा देने पड़े, तो
फिर और क्या हो सकता है' । (1914)
No.-3.'जिस भाषा में तुलसीदास जैसे कवि ने कविता की हो, वह
अत्यंत पवित्र है और उसके सामने कोई भाषा ठहर नहीं सकती'। (1916)
No.-4. 'हिन्दी ही हिन्दुस्तान के शिक्षित
समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती है यह बात निर्विवाद सिद्ध है। .... जिस स्थान को
अंग्रेजी भाषा आजकल लेने का प्रयत्न कर रही है और जिसे लेना उसके लिए असंभव है, वही
स्थान हिन्दी को मिलना चाहिए क्योंकि हिन्दी का उस पर पूर्ण अधिकार है। यह स्थान
अंग्रेजी को नहीं मिल सकता क्योंकि वह विदेशी भाषा है और हमारे लिए बड़ी कठिन है' । (1917)
No.-5.'हिन्दी भाषा वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू
व मुसलमान बोलते है और जो नागरी और फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिन्दी एकदम
संस्कृतमयी नहीं है और न ही वह एकदम फारसी शब्दों से लदी है'। (1918)
No.-6.'हिन्दी और उर्दू नदियाँ है और हिन्दुस्तानी
सागर है। हिन्दी और उर्दू दोनों को आपस में झगड़ा नहीं करना चाहिए। दोनों का
मुकाबला तो अंग्रेजी से है' ।(1917)
No.-7.'अंग्रेजी के व्यामोह से पिंड छुड़ाना स्वराज्य
का एक अनिवार्य अंग है'।
No.-8.'मैं यदि तानाशाह होता (मेरा बस चलता) तो आज ही
विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता, सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएँ अपनाने पर
मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते, उन्हें बर्खास्त कर देता। मैं पाठ्य-पुस्तकों
की तैयारी का इंतजार नहीं करूँगा, वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे-पीछे अपने-आप
चली आएगी। यह एक ऐसी बुराई है, जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिए' ।
No.-9.'मेरी मातृभाषा में कितनी ही खामियाँ क्यों न
हों, मैं इससे इसी तरह चिपटा रहूँगा जिस तरह बच्चा
अपनी माँ की छाती से, जो मुझे जीवनदायी दूध दे सकती है। अगर अंग्रेजी
उस जगह को हड़पना चाहती है जिसकी वह हकदार नहीं है, तो मैं उससे सख्त नफरत करूँगा- वह कुछ
लोगों के सीखने की वस्तु हो सकती है, लाखों-करोड़ो की नहीं' ।
No.-10.'लिपियों में सबसे अव्वल दरजे की लिपि नागरी को ही मानता हूँ। मैं मानता हूँ कि नागरी और उर्दू लिपि के बीच अंत में जीत नागरी लिपि की ही होगी'।
स्वतंत्रता के बाद हिन्दी का राजभाषा के रूप में विकास
राजभाषा (Official Language) क्या है ?
No.-2. राजभाषा सरकारी काम-काज चलाने की आवश्यकता की
उपज होती है।
No.-3. स्वशासन आने के पश्चात राजभाषा की आवश्यकता
होती है प्रायः राष्ट्रभाषा ही स्वशासन आने के पश्चात राजभाषा बन जाती है। भारत
में भी राष्ट्रभाषा हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ।
No.-4. राजभाषा एक संवैधानिक शब्द है। हिन्दी को 14
सितम्बर 1949 ई० को संवैधानिक रूप से राजभाषा घोषित किया
गया। इसलिए प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को 'हिन्दी दिवस' के
रूप में मनाया जाता है।
No.-5. राजभाषा देश को अपने प्रशासनिक लक्ष्यों के
द्वारा राजनीतिक-आर्थिक इकाई में जोड़ने का काम करती है। अर्थात राजभाषा की
प्राथमिक शर्त राजनीतिक प्रशासनिक एकता कायम करना है।
No.-6. राजभाषा का प्रयोग-क्षेत्र सीमित होता है, यथा
: वर्तमान समय में भारत सरकार के कार्यालयों एवं कुछ राज्यों- हिन्दी क्षेत्र के
राज्यों-में राज-काज हिन्दी में होता है। अन्य राज्य सरकारें अपनी-अपनी भाषा में
कार्य करती हैं, हिन्दी में नहीं; महाराष्ट्र मराठी में, पंजाब
पंजाबी में, गुजरात गुजराती में आदि।
No.-7. राजभाषा कोई भी भाषा हो सकती है स्वभाषा या
परभाषा। जैसे, मुगल शासक अकबर के समय से लेकर मैकाले के काल
तक फारसी राजभाषा तथा मैकाले के काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक अंग्रेजी
राजभाषा थी जो कि विदेशी भाषा थी। जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को
राजभाषा का दर्जा दिया गया। जो कि स्वभाषा है।
No.-8. राजभाषा का एक निश्चित मानक स्वरूप होता है
जिसके साथ छेड़छाड़ या प्रयोग नहीं किया जा सकता।
No.-1. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति व उसकी समीक्षा
यही वजह थी कि संविधान सभा में केवल
हिन्दी पर विचार नहीं हुआ; राजभाषा के नाम पर जो बहस वहाँ 11
सितम्बर, 1949 ई० से 14 सितम्बर,
1949 ई० तक हुई, उसमें
हिन्दी, अंग्रेजी,
संस्कृत एवं हिन्दुस्तानी के दावे पर
विचार किया गया।
किन्तु संघर्ष की स्थिति सिर्फ हिन्दी
एवं अंग्रेजी के समर्थक के बीच ही देखने को मिली। हिन्दी समर्थक वर्ग में भी दो
गुट थे। एक गुट देवनागरी लिपि वाली हिन्दी का समर्थक था; दूसरा
गुट (महात्मा गाँधी, जे.एल.नेहरू, अब्दुल कलाम आजाद आदि) दो लिपियों वाली
हिन्दुस्तानी के पक्ष में था।
आजाद भारत में एक विदेशी भाषा, जिसे
देश का बहुत थोड़ा-सा अंश (अधिक-से-अधिक 1 या 2%)
ही पढ़-लिख और समझ सकता था, देश
की राजभाषा नहीं बन सकती थी। लेकिन यकायक अंग्रेजी को छोड़ने में भी दिक्कतें थीं।
प्रायः 150 वर्षों से अंग्रेजी प्रशासन और उच्च शिक्षा की
भाषा रही थी। हिन्दी देश की 46% जनता की भाषा थी। राजभाषा बनने के लिए हिन्दी
का दावा न्याययुक्त था। साथ ही, प्रादेशिक भाषाओं की भी सर्वथा उपेक्षा नहीं की
जा सकती थी।
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए
संविधान निर्माताओं ने राजभाषा की समस्या को हल करने की कोशिश की। संविधान सभा के
भीतर और बाहर हिन्दी के विपुल समर्थन को देखकर संविधान सभा ने हिन्दी के पक्ष में
अपना फैसला दिया। यह फैसला हिन्दी विरोधी एवं हिन्दी समर्थकों के बीच 'मुंशी-आयंगार
फॉर्मूले' के द्वारा समझौते के परिणामस्वरूप सामने आया, जिसकी
प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार थीं-
No.-1. हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा
है।
No.-2. संविधान के लागू होने के दिन से 15
वर्षो की अवधि तक अंग्रेजी बनी रहेगी।
No.-3. एक अस्पष्ट निर्देश (अनु० 351) के
आधार पर हिन्दी एवं हिन्दुस्तानी के विवाद को दूर कर लिया गया।
संविधान में भाषा-विषयक उपबंध अनु० 120
अनु० 210 एवं भाषा-विषयक एक पृथक भाग- भाग 17 (राजभाषा)
के अनु० 343 से 351 तक एवं 8वीं अनुसूची में दिए गए हैं। संविधान के ये भाषा-विषयक
उपबंध हिन्दी, अंग्रेजी एवं प्रादेशिक भाषाओं के परस्पर
विरोधी दावों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
अनु 120 : संसद में प्रयोग की जानेवाली भाषा
राज्यों के विधानमण्डलों का कार्य
अपने-अप राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिन्दी में या अंग्रेजी में किया
जाएगा, परन्तु यथास्थिति विधानसभाध्यक्ष या विधान
परिषद का सभापति किसी सदस्य को उसकी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति
दे सकता है। संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तो 15
वर्ष की अवधि के पश्चात 'या अंग्रजी में' शब्दों का लोप किया जा सकेगा।
राजभाषा
अध्याय 1 : संघ की भाषा
अनु० 343 : संघ की राजभाषा
No.-2. इस संविधान के प्रारंभ से 15
वर्ष की अवधि तक (अर्थात 1965 तक) उन सभी शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी
भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए पहले प्रयोग किया जा रहा था।
परन्तु राष्ट्रपति उक्त अवधि के दौरान
संघ के शासकीय प्रयोजनों में से किसी के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त हिन्दी
भाषा का और भारतीय अंकों के अन्तराष्ट्रीय रूप के अतिरिक्त देवनागरी रूप का प्रयोग
प्राधिकृत कर सकेगा।
No.-1. अंग्रेजी भाषा का; या
No.-2. अंकों के देवनागरी रूप का,
ऐसे प्रयोजनों के लिए प्रयोग उपबंधित
कर सकेगी जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएँ।
अनु० 345 : राज्य की राजभाषा या राजभाषाएँ
(प्रादेशिक भाषा/ भाषाएँ या हिन्दी; ऐसी व्यवस्था होने तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी)
अनु० 348 : SC और HC में और संसद व राज्य विधान मंडल में
विधेयकों, अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जानेवाली भाषा
(उपबंध होने तक अंग्रेजी जारी)
अनु० 350 : व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में
प्रयोग की जानेवाली भाषा (किसी की भाषा में)
No.-2. भाषाई अल्पसंख्यक वर्गो के लिए विशेष अधिकारी
की नियुक्ति (राष्ट्रपति द्वारा)
8वीं अनुसूची
भाषाएँ
No.-1. असमिया
No.-2. बांग्ला
No.-3. गुजराती
No.-4. हिन्दी
No.-5. कन्नड़
No.-6. कश्मीरी
No.-7. मलयालम
No.-8. मराठी
No.-9.उड़िया
No.-10.पंजाबी
No.-11. संस्कृत
No.-12. तमिल
No.-13. तेलुगू
(14) उर्दू ] थीं। बाद में सिंधी को (21 वां संशोधन, 1967 ई०), तत्पश्चात कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली को (71वां संशोधन, 1992 ई०) शामिल किया गया, जिससे इसकी संख्या 18 हो गई। तदुपरांत बोडो, डोगरी, मैथली, संथाली को (92 वां संशोधन, 2003) शामिल किया गया और इस प्रकार इस अनुसूची में 22 भाषाएँ हो गई।
अनु० 343 के संदर्भ में : संविधान के अनु० 343 (1) के
अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी घोषित की गई है। इससे देश
के बहुमत की इच्छा ही प्रतिध्वनित होती है। अनु० 343 (2) के अनुसार इसे भारतीय संविधान लागू
होने की तारीख अर्थात 26 जनवरी,
1950 ई० से लागू नहीं किया जा सकता था। इसे
लागू करने के लिए संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद की अवधि रखी तो गई, परन्तु
फिर अनु० 343 (3) के द्वारा सरकार ने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि
वह इस 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग
जारी रख सकती है। रही-सही कसर, बाद में राजभाषा अधिनियम, 1963 ने
पूरी कर दी क्योंकि इस अधिनियम ने सरकार के इस उद्देश्य को साफ कर दिया कि
अंग्रेजी की हुकूमत देश पर अनंत काल तक बनी रहेगी।
अनु० 345, 346 से स्पष्ट है कि भाषा के संबंध में
राज्य सरकारों को पूरी छूट दी गई। संविधान की इन्हीं अनुच्छदों के अधीन हिन्दी
भाषी राज्यों में हिन्दी राजभाषा बनी। हिन्दी इस समय 9
राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल,
मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हरियाणा, व
हिमाचल प्रदेश-तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश-दिल्ली-की राजभाषा है।
उक्त प्रदेशों में आपसी पत्र-व्यवहार की भाषा हिन्दी है। दिनोंदिन हिन्दी भाषी
राज्यों में हिन्दी का प्रयोग सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए बढ़ता जा रहा है। इनके
अतिरिक्त, अहिन्दी भाषी राज्यों में महाराष्ट्र, गुजरात
व पंजाब की एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में चंडीगढ़ व अंडमान निकोबार की सरकारों ने
हिन्दी को द्वितीय राजभाषा घोषित कर रखा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों से
पत्र-व्यवहार के लिए हिन्दी को स्वीकार कर लिया है।
अनु० 348, 349 से स्पष्ट हो जाता है कि न्याय व
कानून की भाषा, उन राज्यों में भी जहाँ हिन्दी को राजभाषा मान
लिया गया है, अंग्रेजी ही है। नियम, अधिनियम, विनियम
तथा विधि का प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में होने के कारण सारे नियम अंग्रेजी में ही
बनाये जाते हैं। बाद में उनका अनुवाद मात्र कर दिया जाता है। इस प्रकार, न्याय
व कानून के क्षेत्र में हिन्दी का समुचित प्रयोग हिन्दी राज्यों में भी अभी तक
नहीं हो सका है।
अनु० 350 : भले ही संवैधानिक स्थिति के अनुसार
व्यक्ति को अपनी व्यथा के निवारण हेतु किसी भी भाषा में अभ्यावेदन करने का हकदार
माना गया है लेकिन व्यावहारिक स्थिति यही है कि आज भी अंग्रेजी में अभ्यावेदन करने
पर ही अधिकारी तवज्जो/ध्यान देना गवारा करते हैं।
राष्ट्रपति का संविधान आदेश, 1955 : कुछ
प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी का प्रयोग निर्धारित, जैसे
No.-1. जनता
के साथ पत्र-व्यवहार में, (2) प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी
पत्रिकाओं व संसदीय रिपोर्ट में, (3) संकल्पों (Resolutions)
व विधायी नियमों में, (4) हिन्दी
को राजभाषा मान चुके राज्यों के साथ पत्र-व्यवहार में, (5) संधिपत्र
और करार में, (6) राजनयिक व अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में भारतीय
प्रतिनिधियों के नाम जारी किये जानेवाले पत्रों में।
प्रथम राजभाषा आयोग/बाल गंगाधर
(बी.जी.) खेर आयोग : 7 जून,
1955 (गठन); 31 जुलाई, 1956 (प्रतिवेदन)
आयोग की सिफारिशें : (1) सारे
देश में माध्यमिक स्तर तक हिन्दी अनिवार्य की जाए। (2) देश
में न्याय देश की भाषा में किया जाए। (3) जनतंत्र में अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजी का
प्रयोग संभव नहीं। अधिक लोगों द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी भाषा समस्त भारत के लिए
उपयुक्त है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी का प्रयोग ठीक है, किन्तु
शिक्षा, प्रशासन,
सार्वजनिक जीवन तथा दैनिक कार्यकलापों
में विदेशी भाषा का व्यवहार अनुचित है।
पंत समिति ने कहा कि राष्ट्रीय एकता को
द्योतित करने के लिए एक भाषा को स्वीकार कर लेने का स्वतंत्रता-पूर्व का जोश ठंढा
पड़ गया है। सिफारिशें- (1) हिन्दी संघ की राजभाषा का स्थान जल्दी-से-जल्दी
ले। लेकिन इस परिवर्तन के लिए कोई निश्चित तारीख (जैसे 26
जनवरी, 1965 ई०) नहीं दी जा सकती यह परिवर्तन धीरे-धीरे
स्वाभाविक रीति से होना चाहिए।
No.-2.1965 ई० तक अंग्रेजी प्रधान राजभाषा और हिन्दी
सहायक राजभाषा रहनी चाहिए। 1965 के बाद जब हिन्दी संघ की प्रधान राजभाषा हो
जाये, अंग्रेजी संघ की सहायक/ सह राजभाषा रहनी चाहिए।
टिप्पणी : इस प्रकार 26
जून, 1965 से राजभाषा अधिनियम, 1963 के
तहत द्विभाषिक स्थिति प्रारंभ हुई, जिसमें संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए
हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाएँ प्रयुक्त की जा सकती थीं।
संसद द्वारा पारित संकल्प (Resolution), 1968
No.-2. त्रिभाषा सूत्र (Three Language Formula) को लागू करना-एकता की भावना के संवर्द्धन हेतु
भारत सरकार राज्यों के सहयोग से त्रिभाषा सूत्र को लागू करेगी। त्रिभाषा सूत्र के
अन्तर्गत यह प्रस्तावित किया गया कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी व अंग्रेजी
के अतिरिक्त दक्षिणी भारतीय भाषाओं में से किसी एक को तथा अहिन्दी भाषी क्षेत्रों
में प्रादेशिक भाषा व अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी को पढ़ाने की व्यवस्था की जाय।
राजभाषा के विकास से संबंधित संस्थाएँ
संस्था का नाम |
स्थापना |
कार्य |
केन्द्रीय हिन्दी समिति, नई दिल्ली |
1967 |
भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा हिन्दी के
प्रचार-प्रसार के संबंध में चालू कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित करना; अध्यक्ष-प्रधानमंत्री |
शिक्षा
मंत्रालय के अधीन
संस्था का नाम |
स्थापना |
कार्य |
|
No.-1. |
साहित्य अकादमी नई दिल्ली |
1954 |
साहित्य को बढ़ावा देने-वाली शीर्षस्थ संस्था |
No.-2. |
नेशनल बुक ट्रस्ट (National Book Trust-N. B. T), नई दिल्ली |
1957 |
शिक्षा, विज्ञान व
साहित्य की उच्च कोटि की पुस्तकों का प्रकाशन कम मूल्यों पर जनता को उपलब्ध
कराना |
No.-3. |
केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली |
1960 |
शब्दकोशों, विश्वकोशों, अहिन्दी भाषियों के लिए पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन |
No.-4. |
वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली |
1961 |
विज्ञान व तकनीक से संबंधित शब्दावलियों का प्रकाशन |
गृह
मंत्रालय के अधीन
संस्था का नाम |
स्थापना |
कार्य |
|
No.-1. |
राजभाषा विधायी आयोग |
1965-75 |
केन्द्रीय अधिनियमों के हिन्दी पाठ का निर्माण |
No.-2. |
केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो |
1971 |
देश में अनुवाद की सबसे बड़ी संस्था |
No.-3. |
राजभाषा विभाग |
1975 |
संघ के विभिन्न शासकीय प्रयोजनों के लिए हिन्दी के
प्रगामी प्रयोग से संबंधित सभी मामले |
विधि/कानून
मंत्रालय के अधीन
संस्था का नाम |
स्थापना |
कार्य |
राजभाषा विधायी आयोग |
1975 |
यह आयोग पहले गृह मंत्रालय के अधीन था। प्रमुख कानूनों
के हिन्दी पाठ का निर्माण |
सूचना
एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन
No.-1. |
प्रकाशन विभाग (Publication Division) |
1944 |
No.-2. |
फ़िल्म प्रभाग (Films Division) |
1948 |
No.-3. |
पत्र सूचना कार्यालय (Press Information Bureau), नई दिल्ली |
1956 |
No.-4. |
आकाशवाणी |
1957 |
No.-5. |
दूरदर्शन |
1976 |
राष्ट्रभाषा व राजभाषा संबंधी कुछ
विविध तथ्य
प्रताप नारायण मिश्र ने 'हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान' का
नारा दिया।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का विचार
सर्वप्रथम बंगाल में उदित हुआ।
कांग्रेस के फैजपुर अधिनेशन (1936
ई०) एवं हरिपुरा अधिवेशन (1938 ई०) में कांग्रेस के विराट मण्डप में 'राष्ट्रभाषा
सम्मेलन' आयोजित किये गये, जिनकी अध्यक्षता राजेन्द्र प्रसाद
(फैजपुर) एवं जमना लाल बजाज (हरिपुरा) ने की।
संविधान सभा में हिन्दी को राजभाषा
बनाने का प्रस्ताव गोपाल स्वामी आयंगर ने रखा जिसका समर्थन शंकरराव देव ने किया।
संविधान सभा में राजभाषा के नाम पर हुए
मतदान में हिन्दुस्तानी को 77 वोट तथा हिन्दी को 78
वोट मिले।
आजादी-पूर्व हिन्दी का समर्थन करनेवाले
व आजादी-बाद हिन्दी का विरोध करने वाले व्यक्तित्व
-सी० राजगोपालाचारी, सुनीति
कुमार चटर्जी, हुमायूं कबीर, अनंत शयनम अय्यंगार आदि।
'मैं कभी भी हिन्दी का विरोधी नहीं हूँ। मैं उन
हिन्दी वालों का विरोध करता हूँ जो वस्तुस्थिति को नहीं समझकर अपने स्वार्थ के
कारण हिन्दी को लादने की बात सोचते हैं।' -सी राजगोपालाचारी
'हिन्दी अहिन्दी लोगों के लिए ठीक उतनी ही
विदेशी है जितनी कि हिन्दी समर्थकों के लिए अंग्रेजी।' -सी
राजगोपालाचारी
'हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान' वाले
राष्ट्रबाद की सबसे बड़ी सीमा यह है कि यह समूचे दक्षिण भारत को भूल जाता है। -इरोड
वेंकट रामास्वामी (ई० वी० आर०)'पेरियार'
1952 में एक विख्यात स्वतंत्रता सेनानी पोट्टी
श्रीरामालु ने तेलगु भाषी लोगों के लिए एक पृथक राज्य आंध्र प्रदेश ने तेलगु भाषी
लोगों के लिए एक पृथक राज्य आंध्र प्रदेश बनाने की मांग पर आमरण अनशन करते हुए 58
दिन बाद (19 अक्तू,
16 दिसम्बर) को अपनी जान दे दी। इसके बाद
भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मुहिम में तेजी आई।
पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात राज्य अपने शासन में क्रमशः पंजाबी, मराठी और गुजराती भाषा के साथ-साथ हिन्दी को 'सहभाषा' के रूप में घोषित कर रखा है।
हिन्दी की उपभाषाएँ एवं बोलियाँ
हिन्दी भाषी क्षेत्र/ हिन्दी क्षेत्र/
हिन्दी पट्टी (Hindi Belt) : हिन्दी पश्चिम में अम्बाला (हरियाणा) से लेकर
पूर्व में पूर्णिया (बिहार) तक तथा उत्तर में बद्रीनाथ-केदारनाथ (उत्तराखंड) से
लेकर दक्षिण में खंडवा (मध्य प्रदेश) तक बोली जाती है। इसे हिन्दी भाषी क्षेत्र या
हिन्दी क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत 9
राज्य-उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड,
बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा
व हिमाचल प्रदेश-तथा 1 केन्द्र शासित प्रदेश (राष्ट्रीय राजधानी
क्षेत्र)- दिल्ली-आते हैं। इस क्षेत्र में भारत की कुल जनसंख्या के 43%
लोग रहते हैं।
हिन्दी की उपभाषाएँ व बोलियाँ
उपभाषा : अगर किसी बोली में साहित्य
रचना होने लगती है और क्षेत्र का विस्तार हो जाता है तो वह बोली न रहकर उपभाषा बन
जाती है।
भाषा : साहित्यकार जब उस उपभाषा को
अपने साहित्य के द्वारा परिनिष्ठित सर्वमान्य रूप प्रदान कर देते हैं तथा उसका और
क्षेत्र विस्तार हो जाता है तो वह भाषा कहलाने लगती है।
एक भाषा के अंतर्गत कई उपभाषाएँ होती
हैं तथा एक उपभाषा के अन्तर्गत कई बोलियाँ होती हैं।
सर्वप्रथम एक अंग्रेज प्रशासनिक
अधिकारी जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1889 ई० में 'मार्डन वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दोस्तान' में
हिन्दी का उपभाषाओं व बोलियों में वर्गीकरण प्रस्तुत किया। बाद में ग्रियर्सन ने 1894 ई०
से भारत का भाषाई सर्वेक्षण आरंभ किया जो 1927 ई० में संपन्न हुआ। उनके द्वारा संपादित ग्रंथ
का नाम है- 'ए लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया' ।
इसमें उन्होंने हिन्दी क्षेत्र की बोलियों को पाँच उपभाषाओं में बाँटकर उनकी
व्याकरणिक एवं शाब्दिक विशेषताओं का विस्तार से विवरण प्रस्तुत किया है।
इसके बाद, 1926 ई०
में सुनीति कुमार चटर्जी ने 'बांग्ला भाषा का उद्भव और विकास (Origin and Development of Bengali Language') में हिन्दी का उपभाषाओं व बोलियों में वर्गीकरण
प्रस्तुत किया। चटर्जी ने पहाड़ी भाषाओं को छोड़ दिया है। वे उन्हें भाषाएँ नहीं
गिनते।
धीरेन्द्र वर्मा ('हिन्दी
भाषा का इतिहास', 1933 ई०) का वर्गीकरण मुख्यतः सुनीति कुमार चटर्जी
के वर्गीकरण पर ही आधारित है, केवल उसमें कुछ संशोधन किये गये हैं जैसे उसमें
पहाड़ी भाषाओं को शामिल किया गया है।
इनके अलावे, कई
विद्वानों ने अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। आज इस बात को लेकर आम सहमति है कि
हिन्दी जिस भाषा-समूह का नाम है, उसमें 5 उपभाषाएँ और 17 बोलियाँ हैं।
हिन्दी क्षेत्र की समस्त बोलियों को 5 वर्गो
में बाँटा गया है। इन वर्गों को उपभाषा कहा जाता है। इन उपभाषाओं के अंतर्गत ही
हिन्दी की 17 बोलियाँ आती हैं।
उपभाषा |
बोलियाँ |
मुख्य क्षेत्र |
राजस्थानी |
मारवाड़ी (पश्चिमी
राजस्थानी) |
राजस्थान |
पश्चिमी हिन्दी |
कौरवी या खड़ी बोली |
हरियाणा, उत्तर प्रदेश |
पूर्वी हिन्दी |
अवधी |
मध्य प्रदेश, |
बिहारी |
भोजपुरी |
बिहार |
पहाड़ी |
कुमाऊँनी |
उत्तराखंड, हिमाचल
प्रदेश |
नोट : एक भाषा विद्वान के अनुसार, शुद्ध
भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से हिन्दी की दो मुख्य उपभाषाएँ हैं- पश्चिमी हिन्दी व
पूर्वी हिन्दी।
विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा
अधिक विस्तृत होती है। यह एक प्रांत या उपप्रांत में प्रचलित होती है। इसमें
साहित्यिक रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। जैसे- हिन्दी की विभाषाएँ हैं- ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी
बोली, भोजपुरी व मैथली।
विभाषा स्तर पर प्रचलित होने पर ही राजनीतिक, साहित्यिक या सांस्कृतिक गौरव के कारण भाषा का स्थान प्राप्त कर लेती है, जैसे- खड़ी बोली मेरठ, बिजनौर आदि की विभाषा होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत होने के कारण राष्ट्रभाषा के पद पर अधिष्ठित हुई है।
इस प्रकार, दो बातें स्पष्ट होती है-
No.-1.बोली का विकास विभाषा में और विभाषा का विकास
भाषा में होता है।
बोली-विभाषा-भाषा
No.-2. उदाहरण
भाषा- खड़ी बोली हिन्दी
विभाषा- हिन्दी क्षेत्र की प्रमुख
बोलियाँ- ब्रजभाषा, अवधी, खड़ी बोली,
भोजपुरी व मैथली
बोली- हिन्दी क्षेत्र की शेष बोलियाँ
कौरवी या खड़ी बोली
साहित्यिक भाषा बनने के बाद पड़ा नाम-
खड़ी बोली
अन्य नाम- बोलचाल की हिन्दुस्तानी, सरहिन्दी, वर्नाक्यूलर
खड़ी बोली आदि।
केन्द्र- कुरु जनपद अर्थात मेरठ-दिल्ली
के आस-पास का क्षेत्र। खड़ी बोली एक बड़े भू-भाग में बोली जाती है। अपने ठेठ रूप में
यह मेरठ, बिजनौर,
मुरादाबाद, रामपुर, सहारनपुर, देहरादून
और अम्बाला जिलों में बोली जाती है। इनमें मेरठ की खड़ी बोली आदर्श और मानक मानी
जाती है।
बोलने वालों की संख्या- 1.5 से
2
करोड़
साहित्य- मूल कौरवी में लोक-साहित्य
उपलब्ध है जिसमें गीत, गीत नाटक,
लोक कथा, गप्प, पहेली आदि है।
विशेषता- आज की हिन्दी मूलतः कौरवी पर
ही आधारित है। दूसरे शब्दों में, हिन्दी भाषा का मूलाधार/मूलोद्गम
(Substratum या Basic
dialect) कौरवी या खड़ी बोली है।
नमूना- कोई बादसा था। साब उसके दो
रानियाँ थीं। वो एक रोज अपनी रानी से केने लगा मेरे समान ओर कोई बादसा है बी ? तो
बड़ी बोले कि राजा तुम समान ओर कौन होगा। छोटी से पुच्छा तो किहया कि एक बिजान सहर
है उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईट लगी है ओ इसने मेरी
कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाहिए। उस्कू तग्मार्ती कर
दिया। और बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।
ब्रजभाषा
प्रयोग क्षेत्र- मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुरी, मैनपुरी, एटा, बदायूं, बरेली
तथा आस-पास के क्षेत्र
बोलनेवालों की संख्या- 3
करोड़
देश के बाहर ताज्जुबेकिस्तान में
ब्रजभाषा बोली जाती है जिसे 'ताज्जुबेकि ब्रजभाषा' कहा
जाता है।
साहित्य- कृष्ण भक्ति काव्य की एकमात्र
भाषा, लगभग सारा रीतिकालीन साहित्य। साहित्यिक दृष्टि
से हिन्दी भाषा की सबसे महत्वपूर्ण बोली। साहित्यिक महत्व के कारण ही इसे ब्रजभाषा
नहीं ब्रजभाषा की संज्ञा दी जाती है। मध्यकाल में इस भाषा ने अखिल भारतीय विस्तार
पाया। बंगाल में इस भाषा से बनी भाषा का नाम 'ब्रज बुलि'
पड़ा। असम में ब्रजभाषा 'ब्रजावली' कहलाई
। आधुनिक काल तक इस भाषा में साहित्य सृजन होता रहा। पर परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि
ब्रजभाषा साहित्यिक सिंहासन से उतार दी गई और उसका स्थान खड़ी बोली ने ले लिया।
रचनाकार- भक्तिकालीन : सूरदास, नंद
दास आदि।
रीतिकालीन : बिहारी, मतिराम, भूषण, देव
आदि।
आधुनिक कालीन : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जगन्नाथ
दास 'रत्नाकर'
आदि।
नमूना- एक मथुरा जी के चौबे हे (थे), जो
डिल्ली सैहर कौ चलै। गाड़ी वाले बनिया से चौबेजी की भेंट हो गई। तो वे चौबे बोले, अरे
भइया सेठ, कहाँ जायगो। वौ बोलो, महाराजा
डिल्ली जाऊंगौ। तो चौबे बोले, भइया हमऊँ बैठाल्लेय। बनिया बोलो, चार
रूपा चलिंगे भाड़े के। चौबे बोले, अच्छा भइया चारी दिंगे।
अवधी
प्रयोग क्षेत्र- लखनऊ, इलाहाबाद, फतेहपुर, मिर्जापुर
(अंशतः), उन्नाव,
रायबरेली, सीतापुर, फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी
आदि।
बोलनेवालों की संख्या- 2
करोड़
देश के बाहर फीजी में अवधी बोलनेवाले
लोग हैं।
साहित्य- सूफी काव्य, रामभक्ति
काव्य। अवधी में प्रबंध काव्य परंपरा विशेषतः विकसित हुई।
रचनाकार- सूफी कवि : मुल्ला दाउद ('चंदायन'), जायसी
('पद्मावत'), कुत्बन
('मृगावती'), उसमान
('चित्रावली') रामभक्त
कवि : तुलसीदास ('रामचरित मानस')
नमूना- एक गाँव मा एक अहिर रहा। ऊ बड़ा
भोंग रहा। सबेरे जब सोय के उठै तो पहले अपने महतारी का चार टन्नी धमकाय दिये तब
कौनो काम करत रहा। बेचारी बहुत पुरनिया रही नाहीं तौ का मजाल रहा केऊ देहिं पै
तिरिन छुआय देत।
भोजपुरी
प्रयोग क्षेत्र- बनारस, जौनपुर, मिर्जापुर, गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर, देवरिया, आजमगढ़, बस्ती; भोजपुर
(आरा), बक्सर, रोहतास (सासाराम), भभुआ, सारन
(छपरा), सिवान, गोपालगंज,
पूर्वी चम्पारण, पश्चिमी
चम्पारण आदि। अर्थात उत्तर प्रदेश का पूर्वी एवं बिहार का पश्चिमी भाग।
बोलने वालों की संख्या- 3.5
करोड़ (बोलनेवालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी प्रदेश की बोलियों में सबसे अधिक
बोली जानेवाली बोली)
इस बोली का प्रसार भारत के बाहर
सूरीनाम, फिजी, मारिशस,
गयाना, त्रिनिडाड में है। इस दृष्टि से
भोजपुरी अन्तर्राष्ट्रीय महत्व की बोली है।
साहित्य- भोजपुरी में लिखित साहित्य
नहीं के बराबर है। मूलतः भोजपुर भाषी साहित्यकार मध्यकाल में ब्रजभाषा व अवधी में
तथा आधुनिक काल में हिन्दी में लेखन करते रहे हैं। लेकिन अब स्थिति में परिवर्तन आ
रहा है।
रचनाकार- भिखारी ठाकुर (उपनाम- 'भोजपुरी
का शेक्सपियर'- जगदीश चंद्र माथुर द्वारा प्रदत्त। 'अनगढ़
हीरा'- राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में। 'भोजपुरी
का भारतेन्दु')
सिनेमा- सिनेमा जगत में भोजपुरी ही
हिन्दी की वह बोली है जिसमें सबसे अधिक फिल्में बनती हैं।
नमूना- काहे दस-दस पनरह-पनरह हजार के भीड़ होला ई नाटक देखें खातिर। मालूम होतआ कि एही नाटक में पबलिक के रस आवेला।
मैथली
केन्द्र- मिथिला या विदेह या तिरहुत
प्रयोग क्षेत्र- दरभंगा, मधुबनी, मुजप्फरपुर, पूर्णिया, मुंगेर
आदि।
बोलनेवालों की संख्या- 1.5
करोड़
साहित्य- साहित्य की दृष्टि से मैथली
बहुत संपन्न है।
रचनाकार- विद्यापति ('पदावली') : यदि
ब्रजभाषा को सूरदास ने, अवधी को तुलसीदास ने चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया तो
मैथली को विद्यापति ने, हरिमोहन झा (उपन्यास- कन्यादान, द्विरागमन, कहानी
संग्रह- एकादशी, 'खट्टर काकाक तरंग'), नागार्जुन
(मैथली में 'यात्री'
नाम से लेखन; उपन्यास-
पारो, कविता संग्रह- 'कविक स्वप्न', 'पत्रहीन
नग्न गाछ'), राजकमल चौधरी ('स्वरगंधा') आदि।
8वीं अनुसूची में स्थान- 92वां
संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा संविधान की 8वीं
अनुसूची में 4 भाषाओं को स्थान दिया गया। मैथली हिन्दी
क्षेत्र की बोलियों में से 8वीं अनुसूची में स्थान पानेवाली एकमात्र बोली
है।
नमूना-
· पटना किए एलऽह ? |
पटना एलिअइ नोकरी करैले। |
भेटलह नोकरी ? |
नोकरी कत्तौ नइ भेटल। |
गाँ में काज नइ भेटइ छलऽह ? |
भेटै छलै, रुपैयाबला नइ,
अऽनबला। |
तखन एलऽ किऐ ? |
रिनियाँ तड़ केलकइ,
ते। |
कत्ते रीन छऽह ? |
चाइर बीस। |
सूद कत्ते लइ छऽह ? |
दू पाइ महिनबारी। |
हिन्दी का उसकी बोलियों में रूपान्तरण
देवनागरी लिपि का विकास
भारत की सभी लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से
ही निकली हैं।
ब्राह्मी लिपि का प्रयोग वैदिक आर्यो
ने शुरू किया।
ब्राह्मी लिपि का प्राचीनतम नमूना 5वीं
सदी BC का है जो कि बौद्धकालीन है।
गुप्तकाल के आरंभ में ब्राह्मी के दो
भेद हो गए उत्तरी ब्राह्मी व दक्षिणी ब्राह्मी। दक्षिणी ब्राह्मी से तमिल लिपि/
कलिंग लिपि, तेलगु-कन्नड़ लिपि, ग्रंथ
लिपि (तमिलनाडु), मलयालम लिपि (ग्रंथ लिपि से विकसित) का विकास
हुआ।
उत्तर ब्राह्मी से नागरी लिपि का विकास
उत्तर ब्राह्मी (350 ई०
तक)-गुप्त लिपि (4वीं-5वीं सदी)-सिद्धमातृका लिपि-कुटिल लिपि- नागरी
एवं शारदा
शारदा- गुरुमुखी, कश्मीरी, लहंदा, टाकरी
नागरी लिपि का प्रयोग काल 8वीं-9वीं
सदी ई० से आरंभ हुआ। 10वीं से 12वीं सदी के बीच इसी प्राचीन नागरी से उत्तरी
भारत की अधिकांश आधुनिक लिपियों का विकास हुआ। इसकी दो शाखाएँ मिलती हैं पश्चिमी व
पूर्वी। पश्चिमी शाखा की सर्वप्रमुख/प्रतिनिधि लिपि देवनागरी लिपि है।
नागरी
No.-1. पश्चिमी शाखा- देवनागरी, राजस्थानी, गुजराती, महाजनी, कैथी
No.-2. पूर्वी शाखा- बांग्ला लिपि, असमी, उड़िया
जान गिलक्राइस्ट : हिन्दी भाषा और
फारसी लिपि का घालमेल फोर्ट विलियम कॉलेज (1800-54)
की देन थी। फोर्ट विलियम कॉलेज के
हिन्दुस्तानी विभाग के सर्वप्रथम अध्यक्ष जान गिलक्राइस्ट थे। उनके अनुसार
हिन्दुस्तानी की तीन शैलियाँ थीं- दरबारी या फारसी शैली, हिन्दुस्तानी
शैली व हिन्दवी शैली। वे फारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गँवारू मानते
थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता दी। उन्होंने हिन्दुस्तानी के
जिस रूप को बढ़ावा दिया, उसका मूलाधार तो हिन्दी ही था किन्तु उसमें
अरबी-फारसी शब्दों की बहुलता थी और वह फारसी लिपि में लिखी जाती थी। गिलक्राइस्ट
ने हिन्दुस्तानी के नाम पर असल में उर्दू का ही प्रचार किया।
विलियम प्राइस : 1823 ई०
में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में विलियम प्राइस की नियुक्ति हुई।
उन्होंने हिन्दुस्तानी के नाम पर हिन्दी (नागरी लिपि में लिखित) पर बल दिया।
प्राइस ने गिलक्राइस्ट द्वारा जनित भाषा-संबंधी भ्रांति को दूर करने का प्रयास
किया। लेकिन प्राइस के बाद कॉलेज की गतिविधियों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।
अदालत संबंधी विज्ञप्ति (1837
ई०) : वर्ष 1830 ई० में अंग्रेज कंपनी द्वारा अदालतों में
फारसी के साथ-साथ देशी भाषाओं को भी स्थान दिया गया। वास्तव में, इस
विज्ञप्ति का पालन 1837 ई० में ही शुरू हो सका। इसके बाद बंगाल में
बांग्ला भाषा और बांग्ला लिपि प्रचलित हुई,
संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश), बिहार
व मध्य प्रांत (मध्य प्रदेश) में भाषा के रूप में तो हिन्दी का प्रचलन हुआ लेकिन
लिपि के मामले में नागरी लिपि के स्थान पर उर्दू लिपि का प्रचार किया जाने लगा।
इसका मुख्य कारण अदालती अमलों की कृपा तो थी ही, साथ ही मुसलमानों ने भी धार्मिक आधार
पर जी-जान से उर्दू का समर्थन किया और हिन्दी को कचहरी से ही नहीं शिक्षा से भी
निकाल बाहर करने का आंदोलन चालू किया।
1857 के विद्रोह के बाद हिन्दू-मुसलमानों के
पारस्परिक विरोध में ही सरकार अपनी सुरक्षा समझने लगी। अतः भाषा के क्षेत्र में
उनकी नीति भेदपूर्ण हो गई। अंग्रेज विद्वानों के दो दल हो गए। दोनों ओर से
पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क-वितर्क प्रस्तुत किए गए। बीम्स साहब उर्दू का और ग्राउस
साहब हिन्दी का समर्थन करनेवालों में प्रमुख थे।
नागरी लिपि और हिन्दी तथा फारसी लिपि
और उर्दू का अभिन्न संबंध हो गया था। अतः दोनों से दोनों के पक्ष-विपक्ष में काफी
विवाद हुआ।
राजा शिव प्रसाद 'सितारे-हिन्द' का
लिपि संबंधी प्रतिवेदन (1868 ई०) : फारसी लिपि के स्थान पर नागरी लिपि और
हिन्दी भाषा के लिए पहला प्रयास राजा शिवप्रसाद का 1868 ई० में उनके लिपि संबंधी प्रतिवेदन 'मेमोरण्डम
कोर्ट कैरेक्टर इन द अपर प्रोविन्स ऑफ इंडिया'
से आरंभ हुआ।
जान शोर : एक अंग्रेज अधिकारी फ्रेडरिक
जान शोर ने फारसी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं के प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त की थी और
न्यायालय में हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी लिपि का समर्थन किया था।
बंगाल के गवर्नर ऐशले के आदेश (1870 ई०
व 1873 ई०) : वर्ष 1870 ई० में बंगाल के गवर्नर ऐशले ने
देवनागरी के पक्ष में एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया कि फारसी-पूरित उर्दू नहीं
लिखी जाए बल्कि ऐसी भाषा लिखी जाए जो एक कुलीन हिन्दुस्तानी फारसी से पूर्णतया
अनभिज्ञ रहने पर भी बोलता है। वर्ष 1873 ई० में बंगाल सरकार ने यह आदेश जारी किया कि
पटना, भागलपुर तथा छोटानागपुर डिविजनों (संभागों) के
न्यायालयों व कार्यालयों में सभी विज्ञप्तियाँ तथा घोषणाएं हिन्दी भाषा तथा
देवनागरी लिपि में जारी की जाएं।
वर्ष 1881 ई० तक आते-आते उत्तर प्रदेश के पड़ोसी
प्रांतों बिहार, मध्य प्रदेश में नागरी लिपि और हिन्दी प्रयोग
की सरकारी आज्ञा जारी हो गई तो उत्तर प्रदेश में नागरी आंदोलन को बड़ा नैतिक
प्रोत्साहन मिला।
गौरी दत्त : व्यक्तिगत रूप से मेरठ के
पंडित गौरीदत्त की नागरी प्रचार के लिए की गई सेवाएँ अविस्मरणीय हैं। गौरीदत्त ने 1874 ई०
में अपने संपादकत्व में 'नागरी प्रकाश' नामक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया।
उन्होंने और भी कई पत्रिकाओं का संपादन किया- 'देवनागरी गजट' (1888 ई०), 'देवनागर' (1891 ई०), 'देवनागरी प्रचारक' (1892
ई०) आदि।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र : भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र ने नागरी आंदोलन को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की और वे इसके प्रतीक और
नेता माने जाने लगे। उन्होंने 1882 में शिक्षा आयोग के प्रश्न-पत्र का जवाब देते
हुए कहा : 'सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों
की बोली और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों
की मातृभाषा है और न प्रजा की'।
प्रताप नारायण मिश्र : पंडित प्रताप
नारायण मिश्र ने 'हिन्दी हिन्दू-हिन्दुस्तान' का
नारा लगाना शुरू किया।
1893 ई० में अंग्रेज सरकार ने भारतीय भाषाओं के लिए
रोमन लिपि अपनाने का प्रश्न खड़ा कर दिया। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
नागरी प्रचारिणी सभा, काशी (स्थापना 1893 ई०) व मदन मोहन मालवीय : नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना- वर्ष 1893 ई० में नागरी प्रचार एवं हिन्दी भाषा के संवर्द्धन के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की स्थापना की गई। सर्वप्रथम इस सभा ने कचहरी में नागरी लिपि का प्रवेश कराना ही अपना मुख्य कर्तव्य निश्चित किया। सभा ने 'नागरी कैरेक्टर' नामक एक पुस्तक अंग्रेजी में तैयार की, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की अनुपयुक्तता पर प्रकाश डाला गया था।
मालवीय के नेतृत्व में 17
सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा लेफ्टिनेंट,
गवर्नर एण्टोनी मैकडानल को याचिका या
मेमोरियल देना (1898 ई०)- मालवीय ने एक स्वतंत्र पुस्तिका 'कोर्ट
कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेज' (1897
ई०) लिखी, जिसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। वर्ष 1898 ई०
में प्रांत के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर के काशी आने पर नागरी प्रचारिणी सभा का
एक प्रभावशाली प्रतिनिधि मंडल मालवीय के नेतृत्व में उनसे मिला और हजारों
हस्ताक्षरों से युक्त एक मेमोरियल उन्हें दिया। यह मालवीयजी का ही अथक प्रयास था
जिसके परिमाणस्वरूप अदालतों में नागरी को प्रवेश मिल सका। इसलिए अदालतों में नागरी
के प्रवेश का श्रेय मालवीयजी को दिया जाता है।
शारदा चरण मित्र (1848-1917
ई०) : कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शारदा चरण मित्र ने अगस्त 1907 ई०
में कलकत्ता में 'एक लिपि विस्तार परिषद' नामक
संस्था की स्थापना की। मित्र ने इस संस्था की ओर से 'देवनागर' (1907
ई०) पत्र प्रकाशित करके भारत की सभी भाषाओं के साहित्य को देवनागरी लिपि में
प्रस्तुत करने का उपक्रम रचा। इस पत्र में भिन्न-भिन्न भाषाओं के लेख देवनागरी
लिपि में छपा करते थे। वे अखिल भारतीय लिपि के रूप में देवनागरी लिपि के प्रथम
प्रचारक थे।
नेहरू रिपोर्ट (1928
ई०) की भाषा-लिपि संबंधी संस्तुति : नेहरू रिपोर्ट की भाषा-लिपि संबंधी संस्तुति
में कहा गया : 'देवनागरी अथवा फारसी में लिखी जाने वाली
हिन्दुस्तानी भारत की राजभाषा होगी' । स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि के
मामले में इस समय तक द्वैध या विवाद की स्थिति बनी हुई थी।
संविधान सभा में भाषा संबंधी विधेयक
पारित (14 सितम्बर,
1949 ई०) : जब संविधान सभा ने 14
सितम्बर, 1949 ई० को भाषा संबंधी विधेयक पारित किया तब जाकर
लिपि के मामले में विद्यमान द्वैध या विवाद अंतिम रूप से समाप्त हुआ। अनुच्छेद 343(1) में
स्पष्ट घोषणा की गई : 'संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी' ।
इस प्रकार, 150 वर्षों (1800-1949 ई०) के लम्बे संघर्ष के बाद देवनागरी लिपि
हिन्दी भाषा की एकमात्र और अधिकृत लिपि बन पाई।
देवनागरी लिपि का नामकरण
देवनागरी का नामकरण विवादास्पद है।
ज्यादातर विद्वान गुजरात के नागर ब्राह्मणों से इसका संबंध जोड़ते हैं। उनका मानना
है कि गुजरात में सर्वप्रथम प्रचलित होने से वहाँ के पण्डित वर्ग अर्थात नागर
ब्राह्मणों के नाम से इसे 'नागरी' कहा गया। अपने अस्तित्व में आने के तुरंत बाद
इसने देवभाषा संस्कृत को लिपिबद्ध किया इसलिए 'नागरी' में 'देव' शब्द जुड़ गया और बन गया 'देवनागरी'।
देवनागरी लिपि का स्वरूप
यह अक्षरात्मक लिपि (Syllabic script) है जबकि रोमन लिपि (अंग्रेजी भाषा की लिपि) वर्णात्मक लिपि (Alphabetic script) है।
देवनागरी लिपि के गुण
No.-2. एक वर्ण संकेत से अनिवार्यतः एक ही ध्वनि
व्यक्त
No.-3. जो ध्वनि का नाम वही वर्ण का नाम
No.-4. मूक वर्ण नहीं
No.-5. जो बोला जाता है वही लिखा जाता है
No.-6. एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं
No.-7. उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की
क्षमता
No.-8. वर्णमाला ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल
अनुरूप
No.-9. प्रयोग बहुत व्यापक (संस्कृत, हिन्दी, मराठी, नेपाली
की एकमात्र लिपि)
No.-10. भारत की अनेक लिपियों के निकट
देवनागरी लिपि के दोष
No.-2. शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए
No.-3. समरूप वर्ण (ख में र व का, घ
में ध का, म में भ का भ्रम होना)
No.-4. वर्णों के संयुक्त करने की कोई निश्चित
व्यवस्था नहीं
No.-5. अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता
का अभाव
No.-6. त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ
बार-बार उठाना पड़ता है।
No.-7. वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर
भ्रम की स्थिति
No.-10. इ की मात्रा ( ि) का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद
देवनागरी लिपि में किये गये सुधार
No.-2. सावरकर बंधुओं का 'अ
की बारहखड़ी'
No.-3. श्याम सुन्दर दास का पंचमाक्षर के बदले
अनुस्वार के प्रयोग का सुझाव
No.-4. गोरख प्रसाद का मात्राओं को व्यंजन के बाद
दाहिने तरफ अलग रखने का सुझाव (जैसे, कुल- क ु ल)
No.-5. श्री निवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण
के नीचे s चिह्न लगाने का सुझाव
No.-6. हिन्दी साहित्य सम्मेलन का इन्दौर अधिवेशन और
काका कालेलकर के संयोजकत्व में नागरी लिपि सुधार समिति का गठन (1935) और
उसकी सिफारिशें
No.-7. काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अ की बारहखड़ी
और श्री निवास के सुझाव को अस्वीकार करने का निर्णय (1945)
No.-8. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित आचार्य
नरेन्द्र देव समिति का गठन (1947) और उसकी सिफारिशें
No.-9. शिक्षा मंत्रालय के देवनागरी लिपि संबंधी
प्रकाशन- 'मानक देवनागरी वर्णमाला' (1966
ई०), 'हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' (1967
ई०), 'देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण' (1983
ई०) आदि।
हिन्दी भाषा का मानकीकरण
मानक भाषा (Standard Language)
मानक भाषा किसी देश अथवा राज्य की वह
प्रतिनिधि तथा आदर्श भाषा होती है जिसका प्रयोग वहाँ के शिक्षित वर्ग द्वारा अपने
सामाजिक, सांस्कृतिक,
साहित्यिक, व्यापारिक
व वैज्ञानिक तथा प्रशासनिक कार्यों में किया जाता है।
मानकीकरण (मानक भाषा के विकास) के तीन
सोपान : बोली-भाषा-मानक भाषा
किसी भाषा का बोल-चाल के स्तर से ऊपर
उठकर मानक रूप ग्रहण कर लेना उसका मानकीकरण कहलाता है।
प्रथम सोपान : 'बोली' : पहले
स्तर पर भाषा का मूल रूप एक सीमित क्षेत्र में आपसी बोलचाल के रूप में प्रयुक्त
होनेवाली बोली का होता है, जिसे स्थानीय, आंचलिक अथवा क्षेत्रीय बोली कहा जा
सकता है। इसका शब्द भंडार सीमित होता है। कोई नियमित व्याकरण नहीं होता। इसे
शिक्षा, आधिकारिक कार्य-व्यवहार अथवा साहित्य का माध्यम
नहीं बनाया जा सकता।
मानक भाषा के तत्व :
No.-1. ऐतिहासिकता
No.-2. स्वायत्तता
No.-3. केन्द्रोन्मुखता
No.-4.बहुसंख्यक प्रयोगशीलता
No.-5.सहजता/बोधगम्यता
No.-6. व्याकरणिक
साम्यता
No.-7.सर्वविधि एकरूपता।
मानकीकरण का एक प्रमुख दोष यह है कि
मानकीकरण करने से भाषा में स्थिरता आने लगती है जिससे भाषा की गति अवरुद्ध हो जाती
है।
हिन्दी भाषा के मानकीकरण की दिशा में उठाये गए महत्वपूर्ण कदम
No.-3. अयोध्या प्रसाद खत्री ने प्रचलित हिन्दी को 'ठेठ
हिन्दी' की संज्ञा दी और ठेठ हिन्दी का प्रचार किया।
उन्होंने खड़ी बोली को पद्य की भाषा बनाने के लिए आंदोलन चलाया।
No.-6.स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद (1947 के
बाद) हिन्दी के मानकीकरण पर नये सिरे से विचार-विमर्श शुरू किया क्योंकि संविधान
ने इसे राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया जिससे हिन्दी पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ
पड़ा। इस दिशा में दो संस्थाओं का विशेष योगदान रहा- इलाहाबाद विश्वविद्यालय के
हिन्दी विभाग के माध्यम से 'भारतीय हिन्दी परिषद' का
तथा शिक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय का।
भारतीय हिन्दी परिषद : भाषा के
सर्वागीण मानकीकरण का प्रश्न सबसे पहले 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग
ने ही उठाया। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई जिसमें
डॉ० हरदेव बाहरी, डॉ० ब्रजेश्वर शर्मा, डॉ०
माता प्रसाद गुप्त आदि सदस्य थे। धीरेन्द्र वर्मा ने 'देवनागरी
लिपि चिह्नों में एकरूपता', हरदेव बाहरी ने 'वर्ण विन्यास की समस्या', ब्रजेश्वर
शर्मा ने 'हिन्दी व्याकरण' तथा माता प्रसाद गुप्त ने 'हिन्दी
शब्द-भंडार का स्थरीकरण' विषय पर अपने प्रतिवेदन प्रस्तुत किए।
उद्देश्य : UNO की
भाषाओं में हिन्दी को स्थान दिलाना व हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना।
क्रम |
तिथि |
आयोजन स्थल |
पहला |
10-14 जनवरी, 1975 |
नागपुर (भारत); अध्यक्ष-शिवसागर
राम गुलाम (मारिशस के तत्कालीन राष्ट्रपति), उद्घाटन-इंदिरा
गाँधी |
दूसरा |
28-30 अगस्त, 1976 |
पोर्ट लुई (मारिशस) |
तीसरा |
28-30 अक्टूबर, 1983 |
नई दिल्ली (भारत) |
चौथा |
02-04 दिसम्बर, 1993 |
पोर्ट लुई (मारिशस) |
पांचवां |
04-08 अप्रैल, 1996 |
पोर्ट ऑफ स्पेन (ट्रिनिडाड एवं टोबैगो) |
छठा |
14-18 सितम्बर, 1999 |
लन्दन (ब्रिटेन) |
सातवां |
05-09 जून, 2003 |
पारामारिबो (सूरीनाम) |
आठवां |
13-15 जुलाई, 2007 |
न्यूयार्क (अमेरिका) |
नवां |
22-24 सितम्बर, 2012 |
जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) |
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