आरम्भिक जीवन- यह उस काल की गाथा है जब हमारा भारत अंग्रेज साम्राज्यवादियों की दासता की श्रृंखलाओं में जकड़ा हुआ छटपटा रहा था। भारत का जनमानस दासता की उन श्रृंखलाओं को तोड़ने के लिए सब प्रकार के प्रयत्न कर रहा था। 1880 और 1890 का हमारे देश का इतिहास अत्यन्त अन्धकारमय पृष्ठों वाला चल रहा है।
इस दशक तक पहुँचते-पहुँचते हमारा देश राजनीतिक
दृष्टि से पतित, सामाजिक
दृष्टि से अपमानित तथा आर्थिक दृष्टि से सर्वथा क्षीण हो चुका था।
यह वह काल था जब स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द और महात्मा राणाडे जैसे अध्यात्मवादी सुधारक अपना कार्य सम्पन्न कर राष्ट्रीय मंच से तिरोहित हो चुके थे। इन लोगों ने भारतीयों को दासता की चिर निद्रा से जगाने का बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया था।
भारत में क्रान्ति के बीज पुनः पनपने लगे थे।
इसलिए भारतीय क्रान्ति को पनपने से पूर्व ही समाप्त कर देने के विचार से अंग्रेज सरकार ने एक कुटिल चाल चली। ब्रिटिश सरकार के सेवानिवृत्त अंग्रेज एवं थोड़े से भारतीय उच्चाधिकारियों के सम्मिलित प्रयास से 28 दिसम्बर, 1885 को इन्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करवाने में अंग्रेज सरकार का मनोरथ सफल हो गया।
अतः आरम्भ में इसके अधिवेशनों में सर्वप्रथम अंग्रेज राजा के सुख समृद्धिमय सुदीर्घ जीवन की कामना की भगवान से प्रार्थना की जाती थी। अतः संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि वह काल बहुत ही शोक और लज्जा से परिपूर्ण काल था जिसका विकल्प या तो उस स्थिति में सुधार हो सकता था फिर क्रान्ति।
उसी काल की दो अन्य उल्लेखनीय घटनाएँ हैं- सावरकर के जन्म से 75 दिन पूर्व लन्दन में सर्वहारा वर्ग के कथित मसीहा कार्ल मार्क्स का इस संसार से चुपचाप विदा ले जाना और विनायक के जन्म के 62 दिन बाद इटली के भाग्य विधाता मुसोलिनी का जन्म होना।
कालान्तर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार भी उसी कुल के दीपक बने। वीर विनायक सावरकर के पूर्वज मूलतया महामुनि परशुराम की लीलास्थली कोंकण के निवासी थे।
समय-समय पर माता राधाबाई अपने पुत्र गणेश को कहती रहती थीं कि वह अपने भाई-बहिनों को रामायण और महाभारत पढ़कर सुनाए। इन सब गाथाओं, आख्यानों और कविताओं का हमारे चरित्र नायक विनायक के विकास में बड़ा योगदान था। छहः वर्ष की आयु में बालक विनायक को गाँव की पाठशाला में प्रविष्ट करा दिया गया। शीघ्र ही विनायक के भीतर विद्यमान प्रतिभा प्रकट होने लगी। ज्यों-ज्यों उसे अक्षर ज्ञान होता गया त्यों-त्यों उसकी बुद्धि की प्रखरता निखरती गई और पढ़ने में दिनोंदिन उसकी रूचि बढ़ती गई।
इस वय तक पहुँचते-पहुँचते विनायक मराठी में अच्छी कविता करने लगे थे, जिसका प्रमाण है उनकी आयु में रचित कविता का पूना के प्रसिद्ध मराठी दैनिक पत्र में प्रकाशित होना। समाचार-पत्र के सम्पादक यह अनुमान भी नहीं कर सकते थे कि जिस कविता को वे प्रकाशित कर रहे हैं उसका रचयिता केवल दस वर्ष का बालक है।
वह संयोग की बात थी कि विनायक जब दस वर्ष का था
तभी संयुक्त प्रान्त के आजमगढ़ नगर में और फिर उसके बाद बम्बई में हिन्दू-मुस्लिम
दंगे हो गए। मुसलमानों ने हिन्दुओं को जो यातनाएँ दीं, उसका विवरण जब विनायक ने सुना तो उसके
मन में प्रतिकार की भावना उठी और उसने अपने साथियों की एक बटालियन बना ली और उसको
लेकर समीप के गाँव में जा, मस्जिद पर पथराव किया।
जिससे वह तहस-नहस हो गई। लौटते हुए उन्हें मुसलमानों के आक्रमण का सामना करना पड़ा, किन्तु उसमें भी उनको विजय ही मिली। उस समय उस बाल नेता को भली प्रकार समझ में आ गया कि उसे अपने दल को न केवल सुगठित करना होगा अपितु उसको सुशिक्षित भी करना होगा, तभी उनका प्रतिकार सफल हो सकता है।
इससे उत्साहित होकर सावरकर नियमित रूप से कविता और लेख लिखने लगे। श्री राणाडे और श्री विनायक उनकी ओजस्वी कविताओं को पढ़कर ही सर्वप्रथम उनसे परिचित हुए थे। विनायक ने ग्रामीण समाज के लिए पोवाड़े लिखे जिनको बहुत ख्याति मिली।
तब तक उनका विवाह हो गया था। विनायक ने उनकी युवती पत्नी को इसकी सूचना नहीं दी और नासिक में रहकर भाइयों की सेवा करते रहे। ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुनी और दोनों भाई निरोग होकर घर लौट आये। कुछ दिनों बाद विनायक की महस्कर और दंगे नामक दो युवकों से मित्रता हो गई।
राजनीति में तीनों के विचार समान थे। सावरकर ने उन दोनों को अपनी ओर मिला लिया और उन तीनों ने मिलकर शपथपूर्वक 'देशभक्तों का दल' निर्माण कर लिया। यह बात 1899 की है। 1900 का वर्ष आरम्भ होते इन तीनों ने मिलकर 'मित्र-मेला' नामक एक संगठन भी खड़ा कर दिया। समय बीतते-बीतते यह 'मित्र-मेला' बढ़कर 1904 में अभिनव भारत सोसाइटी के रूप में परिणत हुआ।
विद्यालय में सक्रिय जनवरी 1902 में सावरकर पूना के फर्गुसन कालेज में प्रविष्ट हुए। पूना में उन दिनों महादेव गोविन्द रानाडे की बड़ी ख्याति थी। यद्यपि वे सर्वात्मना कांग्रेसी नहीं थे, किन्तु उनके युग में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में उनके निर्देशों को मानना ही कांग्रेस का धर्म बन गया था।
उन्हीं दिनों आर.पी. परांजपे इंग्लैण्ड में अपनी पढ़ाई समाप्त कर पूना लौटे थे और गोपाल कृष्ण गोखले कॉलेज के अन्तिम वर्ष पूर्ण कर राजनीति में प्रविष्ट होने का विचार कर रहे थे। तिलक नेता के रूप में उभरने लगे थे। शिवराम पन्त परांजपे अपनी मंत्रमुग्ध कर देने वाली वक्ता और लेखनी के कारण पूना की बड़ी हस्ती माने जाते थे। इस प्रकार पूना जहाँ एक ओर महाराष्ट्र का जीवन हृदय माना जाता था, वहां दूसरी ओर फर्गुसन कॉलेज ऐतिहासिक व्यक्तियों का जन्मदाता माना जाता था और ज्योंही सावरकर फर्गुसन कॉलेज में प्रविष्ट हुए उन्होंने महाराष्ट्र के इस प्रख्यात नगर में क्रान्ति का बीजोरोपन आरम्भ कर दिया। शीघ्र ही उन्होंने पूना में सावरकर ग्रुप का गठन कर लिया। कुछ ही दिनों में इस ग्रुप ने 'आर्यन वीकली' के अतिरिक्त सावरकर अन्याय मराठी समाचार-पत्रों में भी अपनी कवितायें और लेख भेजने लगे।
तिलक तो सावरकर की रचनाओं से अधिक उनके आकर्षण
एवं तेजस्वी व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए थे। प्रथम भेंट के दिन से ही सावरकर
इन दोनों के नियमित सम्पर्क में रहने लगे। सावरकर की वक्त्तता से तो प्रिंसिपल भी
बहुत प्रभावित थे, यद्यपि
आधुनिक राजनीति में उनके राजनीतिक विचारों से वे असहमत रहते थे। सावरकर के
राजनीतिक विचारों से असहमत उनके प्राध्यापकगण उनकी वक्त्तता सुनकर उन्हें 'शैतान' तक कह देते थे।
'काल' के सम्पादक शिवराम पन्त परांजपे के सम्पर्क में आने के उपरान्त सावरकर पूना के सार्वजनिक जीवन में भी प्रख्यात होने लगे थे। यद्यपि जब तक उनका परांजपे से व्यक्तिगत परिचय नहीं हुआ था, तब किसी आर्थिक कठिनाई के समय उन्होंने परांजपे को लिखा था कि उनके पत्र में सहायक के रूप में कुछ कार्य मिल जाए, भले ही वह कार्य कम्पोजीटर का ही क्यों न हो, तो उनकी आर्थिक समस्या का कुछ समाधान हो जायेगा, किन्तु तब यह सम्भव नहीं हो पाया था और सावरकर को भी उन्हीं दिनों उनके श्वसुर की ओर से सहायता मिल गई।
1902 में सावरकर का परांजपे से परिचय हुआ और तभी उन्होंने 'काल' में एक लेख में लिखा हिन्दुस्तान की निर्धनता और विघटन के लिए हिन्दू उत्तरदायी हैं। यदि वे सम्पन्नता चाहते हैं तो उनको चाहिए कि वे हिन्दू बने रहें। इस लेख की सर्वत्र चर्चा और सराहना हुई।
विदेशी
वस्तुओं का बहिष्कार- धीरे-धीरे सावरकर ने पूना के जनसमाज में अपना स्थान बना लिया
था। आचार्य काका कालेलकर जैसे व्यक्ति भी उनकी सराहना करते थे। सावरकर और उनके
साथियों ने स्वदेशी का प्रचार और बंगाल विभाजन का बहिष्कार करना आरम्भ कर दिया था।
तिलक ने बंगाल के विभाजन का अखिल भारतीय स्तर पर विरोध करना आरम्भ किया था। अक्टूबर 1905 को पूना की विशाल जनसभा में सावरकर ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा कर दी और कहा कि विद्यार्थी दशहरे के दिन विदेशी वस्त्रों और अन्याय विदेशी वस्तुओं की होली जलायेंगे। केलकर और परांजपे ने सावरकर के आन्दोलन का उसी सभा में जोरदार शब्दों में समर्थन किया। इस प्रकार 7 अक्टूबर को गाड़ियों में भर-भर कर विदेशी वस्तुएँ एवं कपड़े एक स्थान पर लाये गये। इस प्रकार सर्वप्रथम पूना में विदेशी वस्तुओं की होली जलाई गई।
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