स्वामी विवेकानन्द के पूर्वजों का आदि निवास वर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) जिले के कालना महकमे के अन्तर्गत ठेरेटोना गांव में था। ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ में ही वे लोग गाँव में था। ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ में ही वे लोग गाँव छोड़कर कलकत्ता में आ बसे। पहले गढ़ गोविन्दपुर और बाद में उत्तर कलकत्ता के शिमला इलाके में शिमला मुहल्ले के जिस घर में स्वामीजी का जन्म हुआ था, उस घर को उनके परदादा राममोहन दत्त ने बनवाया था।
उनका विवाह शिमला निवासी नन्दलाल बसु की एकमात्र कन्या भुवनेश्वरी देवी से हुआ। नरेन्द्रनाथ जो काल में स्वामी विवेकानन्द कहलाए, इन्हीं की छठी सन्तान थे।
अनेकों आत्मीय जनों और दरिद्रों का प्रतिपालन
करते थे। उन्हें सात भाषाओं में दक्षता प्राप्त थी। इतिहास तथा संगीत में विशेष
रूचि थी। भुवनेश्वरी देवी सभी अर्थो में उनकी सुयोग्य सहधर्मिणी थीं। उनके हर कदम
पर अपना व्यक्तित्व और आभिजात्य प्रकाश पाता था।
गरीब, दुःखी उनके दरवाजे से खाली हाथ नहीं लौटते थे।
परिवार का हर काम स्वयं करने के उपरान्त नियमित रूप से पूजा, शास्त्रध्ययन
एवं सिलाई का काम भी करती थीं। प्रतिवेशी लोगों के सुख-दुःख, खबर
लेना भी प्रतिदिन नहीं भूलती थीं। नरेन्द्रनाथ ने अपनी माता से ही प्राथमिक
अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी।
बिले में असाधारण मेधा, तेजस्विता, साहस, स्वाधीनता मनोभाव, सहृदयता, बन्धुप्रीत एवं खेलकूद के प्रति आकर्षण का स्पष्ट परिचय मिलता था और इसके साथ खेलते समय सहज ही गम्भीर ध्यान में डूब जाता।
राम-सीता और शिव की वह पूजा करता। साधु-संन्यासियों को देखते ही अनजाने
आकर्षण से दौड़ उनके पास चला जाता। सोने से पहले ज्योति दर्शन करना उसकी एक
स्वाभाविक अवस्था थी।
उनका अत्यन्त ममतशील ह्रदय विदाओं से घिरे
व्यक्ति की सहायता के लिए उन्हें हमेशा प्रेरित और अग्रसर करता रहा। नरेन्द्रनाथ 1871 ई.
में मेट्रोपॉलियन स्कूल से प्रथम श्रेणी में एण्ट्रेन्स परीक्षा उत्तीर्ण होकर
कलकत्ता स्थित प्रेसिडेन्सी कॉलेज में दाखिल हुए, पर मलेरिया ज्वर से आक्रान्त होने के
कारण पढ़ाई में व्यवधान उत्पन्न हुआ।
छात्रावस्था में ही उन्होंने दार्शनिक हर्बर स्पेन्सर के विचारों की समालोचना कर उन्हें लिखा था। उसके उत्तर में स्पेन्सर महाशय ने नरेन्द्रनाथ की यथेष्ट प्रशंसा की थी और लिखा था कि वे अपनी पुस्तक के परवर्ती संस्करण में उनकी समालोचना के अनुरूप कुछ-कुछ परिवर्तन भी करेंगे।
दूसरी बार श्रीरामकृष्ण से दक्षिणेश्वर में मिले। उस दिन नरेन्द्रनाथ ने श्री रामकृष्ण से वही सीधा प्रश्न किया जो उन्होंने इससे पहले भी अनेकों से पूछा था, ''आपने क्या ईश्वर का साक्षात्कार किया है'' ? उत्तर भी उतना ही सीधा मिला : 'हाँ, मैं उनका दर्शन पाता हूँ।
तुम्हें जैसा देखता
हूँ, उससे भी स्पष्ट उन्हें देखता हूँ। तुम अगर
देखना चाहते हो तो तुम्हें भी दिखा सकता हूँ।''
उत्तर सुनकर नरेन्द्रनाथ अचम्भित हो
गये। यह तो पहला व्यक्ति है जो बड़े सहज भाव से कहता है कि उसने ईश्वर को देखा है।
सिर्फ इतना ही नहीं, वह अन्य को भी ईश्वर का साक्षात्कार करा सकता है। परन्तु नरेन्द्रनाथ ने सहज ही उनको स्वीकार नहीं किया था। पुनः परीक्षा के उपरान्त ही जब वे उनकी पवित्रता तथा आध्यात्मिकता के विषय में निःसन्दिग्ध हुए, तभी उन्हें जीवन के पथ प्रदर्शक के रूप में ग्रहण किया। उनके परखने के इस कौशल से श्रीरामकृष्ण अत्यन्त मुग्ध हुए थे और उन्होंने जाना था कि यह मनुष्यों को दुःख से मुक्त करने के लिए पृथ्वी पर आया है और यही उनके भावों के प्रचार का माध्यम बनेगा।
सन् 1885 ई. में श्रीरामकृष्ण कण्ठरोग (कैंसर) से
ग्रस्त हुए, चिकित्सा के लिए उन्हें पहले श्यामपुर और बाद
में काशीपुर में एक किराये के मकान में लाया गया। इसी मकान में नरेन्द्रनाथ अपने
गुरुभाइयों को लेकर श्रीरामकृष्ण की सेवा की और तीव्र आध्यात्मिक साधना में डूब
गये।
समाधि भंग होने के उपरान्त श्रीरामकृष्ण ने उनसे
कहा कि इस उपलब्धि की कुंजी वे अपने पास ही रखेंगे। जगत के प्रति जब नरेन्द्रनाथ
के कर्त्तव्य की इति होगी, तो वे स्वयं ही इस उपलब्धि का द्वार पुनः मुक्त
कर देंगें।
नरेन्द्रनाथ इस पर मुग्ध होकर बोले, ''आज ठाकुर के वचनों में एक अदभुत प्रकाश अनुभव किया। अगर ईश्वर ने कभी अवसर दिया तो आज जो अदभुत सत्य को सुना, उसे सम्पूर्ण संसार में बिखेर दूँगा।'' परवर्ती काल में स्वामीजी ने मानव सेवा के माध्यम से भगवान की उपासना का जो अनुष्ठान पसारा उसकी जमीन उसी दिन तैयार हुई थी।
वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द का प्रत्येक काम ही
श्रीरामकृष्ण द्वारा निर्देशित है। श्रीरामकृष्ण सूत्र हैं और स्वामीजी उनके भाष्य
हैं। संन्यासी गुरूभाइयों को लेकर एक संघ की प्रतिष्ठा का निर्देश भी श्रीरामकृष्ण
ही दे गये थे।
इसी स्थान पर सन्1887 ई. के जनवरी माह में नरेन्द्रनाथ और दस गुरूभाइयों ने संन्यास ग्रहण किया। नरेन्द्रनाथ ने अपना नाम स्वामी विविदिषानन्द ग्रहण किया। आत्मगोपन के लिए स्वामीजी नाना नाम ग्रहण कर लेते थे-विविदिषानन्, सच्चिदानन्द और विवेकानन्द। लेकिन शिकागो विश्वधर्म महासभा में स्वामी विवेकानन्द नाम से आविर्भूत हुए थे। इसी कारण इसी नाम से समस्त विश्व ने उन्हें पहचाना।
उनकी प्रतिभा, आकर्षणीय तेजोदीप्त कानित एवं
आध्यात्मिक गम्भीरता से सभी मुग्ध हुए। 3 अगस्त,
सन् 1810 ई. को जिस भ्रमण पर वे निकले, वही
उनका सर्वाधिक दीर्घकालिक और स्थायी महत्ववाला साबित हुआ। इस भ्रमण काल में उनकी
प्रतिभा से मुग्ध होकर बहुतों ने उन्हें अमेरिका में होने वाले विश्वधर्म महासभा
में भाग लेने का अनुरोध किया। प्रारम्भ में स्वामीजी ने इस पर विशेष ध्यान नहीं
दिया।
उन्होंने चाहा भी वही था। उन्होंने कहा था, ''अगर यह माँ की इच्छा हो कि मुझे (अमेरिका) जाना पड़े तो मैं जनसाधारण की अर्थ सहायता द्वारा ही जाऊँगा क्योंकि भारत के सर्वसाधारण और गरीब मनुष्यों के लिए ही मैं पाश्चात्य देश जाऊँगा।'' स्वामीजी ने सन् 1893 ई. को 31 मई को मुम्बई से जहाज द्वारा अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। वे 25 जुलाई को वेकुवर पहुँचे।
इनमें हार्वड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राइट विशेष उल्लेखनीय हैं। स्वामीजी के पास कोई परिचय पत्र नहीं है जानकर राइट ने धर्मसभा कमेटी के चेयरमैन डॉ. बैराज के नाम एक पत्र लिखा। हमारे सभी अध्यापकों को सम्मिलित करने से जो होगा, यह संन्यासी उससे भी अधिक विद्वान है।''
इसमें सभी धर्मों के प्रति उनकी आदरपूर्ण और प्रीतिपूर्ण मनोभावना का अपूर्व प्रकाश देखकर श्रोतागण मुग्ध हो गये। 27 सितम्बर तक धर्म महासभा चली। उन्हें लगभग प्रतिदिन व्याख्यान देना पड़ता। उनके उदार एवं युक्तियुत चिन्तन के लिए उन्हें धर्म महासभा का सबसे प्रभावशाली वक्ता मान लिया। शिकागो के राजपथों पर उनके चित्र सुशोभित हुए। सभी समाचार पत्र उनकी हार्दिक प्रशंसा से भर गये।
परन्तु हजार-हजार मनुष्यों की इस सुस्पष्ट प्रशंसा से भी उनमें गर्व का कोई भाव परिलक्षित नहीं होता। शिशु-सुलभ सरलता से वे उसे ग्रहण करते। (दी बोस्टन इवनिंग ट्रांजिस्टर) 'सभा की कार्यसूची में विवेकानन्द का वक्तव्य सबसे अन्त में रखा जाता।
इसका उद्देश्य था श्रोताओं को अन्त तक पकड़ कर
रखना। किसी भी दिन जब नीरस वक्ताओं के लम्बे भाषणों से सैकड़ों लोग सभागृह का त्याग
करते रहते, तब विराट श्रोता मण्डली को निश्चिन्त करने हेतु
सिर्फ इतनी घोषणा यथेष्ट होती कि प्रार्थना के पहले विवेकानन्द कुछ बोलेंगे।
श्रोतागण उनके पन्द्रह मिनट का भाषण सुनने के लिए घण्टों बैठे रहते।' (नार्थम्पटन
डेली हेराल्ड, अप्रैल 1894)।
यह सत्य है कि मैं उनके सम्प्रदाय से युक्त नहीं
हूँ और उनसे कुछ विषयों में मतभेद भी रखता हूँ।' पर मुझे स्वीकार करना ही होगा कि
विवेकानन्द के प्रभाव एवं गुण से यहाँ के अधिकांश लोग आजकल विश्वास करते हैं कि
प्राचीन हिन्दूशास्त्र विस्मयकारी आध्यात्मिक निधियों से परिपूर्ण हैं।
भारतवासी सिर उठाकर खड़े हुए और पहचाना कि विश्व की सभ्यता के भण्डार में उनका योगदान पाश्चात्य देशों से कम नहीं, वरन अधिक ही रहा है। इस आत्मगरिमा का संचार जिसने जन-जन में किया, सारे देश को जिसे घोर निद्रा से जगाया, उसका स्वागत करने के लिए समस्त देश अधीर आग्रह से कम्पायमान था।
जब स्वामीजी कोलम्बो पहुँचे तो उनके प्रति समस्त देश की कृतज्ञता ने एक अभूतपूर्व अभिनन्दन का रूप धारण कर लिया। उसके बाद तो अभिनन्दन की बाद तरंगयित होकर मद्रास से लेकर कलकत्ता की सड़कों पर बह चली। 20 जनवरी को स्वामीजी कलकत्ता पहुँचे। अभिनन्दन के बाद अभिनन्दन कलकत्ता अपने विश्वविजयी पुत्र के आगमन में मतवाला हो उठा।
परन्तु इस बार उनकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य था उन देशों में प्रतिष्ठित उनके कार्यक्रमों को देखना और उन्हें सुदृढ़ करना। पेरिस, विएना, एथेंस और मिस्र होते हुए स्वामीजी 9 दिसम्बर 1900 को बेलूड़ मठ पहुँचे। स्वदेश लौटते ही 27 दिसम्बर को स्वामीजी मायावती की ओर रवाना हुए।
गुरु भाइयों अथवा शिष्यों को अपनी बुद्धि के
अनुसार काम करने को प्रेरित करते ताकि उनके न रहने पर संघ के परिचालन के विषय में
वे स्वयं ही निर्णय लेने में समर्थ हो सकें।
अनेक मनीषियों का यह मानना है कि स्वामी विवेकानन्द ही आधुनिक भारत के सृष्टा हैं। इस प्रसंग में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की उक्ति स्मरणीय है। हमारे आधुनिक इतिहास की ओर जो कोई भी दृष्टि डालेगा, उसे स्पष्ट दिखेगा 'स्वामी विवेकानन्द के हम कितने ऋणी हैं। उन्होंने भारत की महिमा की ओर देशवासियों की आँखें उन्मुख की।
राजनीति को
आध्यात्मिकता पर आधारित किया। हम धर्मान्धों की दृष्टि प्रदान की। वे ही भारतीय
स्वाधीनता संग्राम के जनक हैं। हमारी राजनीतिक,
सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता के
जनक भी वे ही हैं।
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