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Essay on Swami Vivekanand

 

स्वामी विवेकानन्द के पूर्वजों का आदि निवास वर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) जिले के कालना महकमे के अन्तर्गत ठेरेटोना गांव में था। ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ में ही वे लोग गाँव में था। ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ में ही वे लोग गाँव छोड़कर कलकत्ता में आ बसे। पहले गढ़ गोविन्दपुर और बाद में उत्तर कलकत्ता के शिमला इलाके में शिमला मुहल्ले के जिस घर में स्वामीजी का जन्म हुआ था, उस घर को उनके परदादा राममोहन दत्त ने बनवाया था।

 राममोहन के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गाप्रसाद ने बीस-बाईस वर्ष की उम्र में संसार त्याग कर संन्यास ग्रहण किया था। उनके पुत्र विश्वनाथ दत्त उस समय छोटे थे। श्री विश्वनाथ दत्त ने बड़े होकर एटर्नी का पेशा अपनाया।

 उनका विवाह शिमला निवासी नन्दलाल बसु की एकमात्र कन्या भुवनेश्वरी देवी से हुआ। नरेन्द्रनाथ जो काल में स्वामी विवेकानन्द कहलाए, इन्हीं की छठी सन्तान थे।

 श्री विश्वनाथ दत्त अत्यन्त उदार प्रकृति के मनुष्य थे। खान-पान, पोशाक तथा अदब कायदे में वे हिन्दू-मुसलमान की मिश्रित संस्कृति के अनुरागी थे एवं कर्मक्षेत्र में अंग्रेजी का अनुसरण करते थे। अर्थोपार्जन तो प्रचुर मात्रा में करते थे, पर संचय करने के आग्रही नहीं थे।

 अनेकों आत्मीय जनों और दरिद्रों का प्रतिपालन करते थे। उन्हें सात भाषाओं में दक्षता प्राप्त थी। इतिहास तथा संगीत में विशेष रूचि थी। भुवनेश्वरी देवी सभी अर्थो में उनकी सुयोग्य सहधर्मिणी थीं। उनके हर कदम पर अपना व्यक्तित्व और आभिजात्य प्रकाश पाता था।

 गरीब, दुःखी उनके दरवाजे से खाली हाथ नहीं लौटते थे। परिवार का हर काम स्वयं करने के उपरान्त नियमित रूप से पूजा, शास्त्रध्ययन एवं सिलाई का काम भी करती थीं। प्रतिवेशी लोगों के सुख-दुःख, खबर लेना भी प्रतिदिन नहीं भूलती थीं। नरेन्द्रनाथ ने अपनी माता से ही प्राथमिक अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी।

 सन् 1863 ई. की 12 जनवरी पौष संक्रान्ति के दिन प्रातः 6 बजकर 33 मिनट 33 सेकेण्ड पर भुवनेश्वरी की छठी सन्तान का जन्म हुआ। भुवनेश्वरी देवी ने विश्वास किया कि यह पुत्र उन्हें काशी के वीरेश्वर शिव के अनुग्रह से प्राप्त हुआ है। इसी कारण पुत्र का नामकरण वीरेश्वर किया गया और घरेलू नाम वीरेश्वर बिले हुआ।

 बिले में असाधारण मेधा, तेजस्विता, साहस, स्वाधीनता मनोभाव, सहृदयता, बन्धुप्रीत एवं खेलकूद के प्रति आकर्षण का स्पष्ट परिचय मिलता था और इसके साथ खेलते समय सहज ही गम्भीर ध्यान में डूब जाता।

 राम-सीता और शिव की वह पूजा करता। साधु-संन्यासियों को देखते ही अनजाने आकर्षण से दौड़ उनके पास चला जाता। सोने से पहले ज्योति दर्शन करना उसकी एक स्वाभाविक अवस्था थी।

 उम्र बढ़ने के साथ-साथ नरेन्द्रनाथ स्कूल में वाद-विवाद और आलोचना सभाओं में मणि की तरह चमके। खेलकूद में सबसे आगे निकले, शास्त्रीय भजन-संगीत में प्रथम श्रेणी के गायक और नाटक में कुशल अभिनेता बने एवं विभिन्न प्रकार की पुस्तकों के अध्ययन से अन्य अवस्था में ही उनमें गहन गम्भीर चिन्तन शक्ति जागी। संन्यास के प्रति आकर्षण बढ़ता ही रहा, परन्तु जगत के प्रति निष्ठुर नहीं हुए।

 उनका अत्यन्त ममतशील ह्रदय विदाओं से घिरे व्यक्ति की सहायता के लिए उन्हें हमेशा प्रेरित और अग्रसर करता रहा। नरेन्द्रनाथ 1871 ई. में मेट्रोपॉलियन स्कूल से प्रथम श्रेणी में एण्ट्रेन्स परीक्षा उत्तीर्ण होकर कलकत्ता स्थित प्रेसिडेन्सी कॉलेज में दाखिल हुए, पर मलेरिया ज्वर से आक्रान्त होने के कारण पढ़ाई में व्यवधान उत्पन्न हुआ।

 प्रेसिडेन्सी कॉलेज छोड़कर जनरल असेम्बली (स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में दाखिल हुए। उसी कॉलेज से 1881 ई. में एफ. ए. तथा 1883 में बी. ए. परीक्षा पास की। नरेन्द्रनाथ में विद्यानुराग प्रबल था एवं लिखने-पढ़ने की परिधि स्कूल एवं कॉलेज की परीक्षाओं से अत्यन्त विस्तृत थी।

छात्रावस्था में ही उन्होंने दार्शनिक हर्बर स्पेन्सर के विचारों की समालोचना कर उन्हें लिखा था। उसके उत्तर में स्पेन्सर महाशय ने नरेन्द्रनाथ की यथेष्ट प्रशंसा की थी और लिखा था कि वे अपनी पुस्तक के परवर्ती संस्करण में उनकी समालोचना के अनुरूप कुछ-कुछ परिवर्तन भी करेंगे।

 उनके कॉलेज के अध्यापक विलियम हेस्टी उनकी प्रतिभा से मुग्ध होकर कहा करते- 'नरेन्द्रनाथ सचमुच ही एक जीनियस (प्रतिभाशाली) हैं। मैं बहुत स्थानों में घूमा हूँ, परन्तु इसके अनुरूप बुद्धि और बहुमुखी प्रतिभा कहीं नहीं देखी, यहां तक कि जर्मनी के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले दर्शन के छात्रों में भी नहीं।

 विलियम हेस्टी से ही नरेन्द्रनाथ ने सर्वप्रथम सुना था कि दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण परमहंस समाधि में लीन होते हैं। इसके उपरान्त सन् 1881 ई. के नवम्बर माह (सम्भवतः 6 नवम्बर) में कलकत्ता के सुरेन्द्रनाथ मित्र के आवास पर श्रीरामकृष्ण से पहली मुलाकात हुई।

 दूसरी बार श्रीरामकृष्ण से दक्षिणेश्वर में मिले। उस दिन नरेन्द्रनाथ ने श्री रामकृष्ण से वही सीधा प्रश्न किया जो उन्होंने इससे पहले भी अनेकों से पूछा था, ''आपने क्या ईश्वर का साक्षात्कार किया है'' ? उत्तर भी उतना ही सीधा मिला : 'हाँ, मैं उनका दर्शन पाता हूँ।

 तुम्हें जैसा देखता हूँ, उससे भी स्पष्ट उन्हें देखता हूँ। तुम अगर देखना चाहते हो तो तुम्हें भी दिखा सकता हूँ।'' उत्तर सुनकर नरेन्द्रनाथ अचम्भित हो गये। यह तो पहला व्यक्ति है जो बड़े सहज भाव से कहता है कि उसने ईश्वर को देखा है।

 सिर्फ इतना ही नहीं, वह अन्य को भी ईश्वर का साक्षात्कार करा सकता है। परन्तु नरेन्द्रनाथ ने सहज ही उनको स्वीकार नहीं किया था। पुनः परीक्षा के उपरान्त ही जब वे उनकी पवित्रता तथा आध्यात्मिकता के विषय में निःसन्दिग्ध हुए, तभी उन्हें जीवन के पथ प्रदर्शक के रूप में ग्रहण किया। उनके परखने के इस कौशल से श्रीरामकृष्ण अत्यन्त मुग्ध हुए थे और उन्होंने जाना था कि यह मनुष्यों को दुःख से मुक्त करने के लिए पृथ्वी पर आया है और यही उनके भावों के प्रचार का माध्यम बनेगा।

 नरेन्द्रनाथ ने श्रीरामकृष्ण का घनिष्ठ संसर्ग लगभग पांच वर्ष तक पाया था। इन पांच वर्षों में उन्हें श्रीरामकृष्ण की शिक्षा तथा अपनी योग्यता के आधार पर बहुविद्या आध्यात्मिक अनुभूतियाँ प्राप्त हुई। किन्तु 25 फरवरी 1884 को उनके पिता का आकस्मिक देहान्त होने के उपरान्त उन्हें बहुत ही आर्थिक कष्ट का सामना करना पड़ा। इस कठिन परिस्थिति में भी उनके विवेक और वैराग्य में तनिक भी कमी नहीं आई।

 सन् 1885 ई. में श्रीरामकृष्ण कण्ठरोग (कैंसर) से ग्रस्त हुए, चिकित्सा के लिए उन्हें पहले श्यामपुर और बाद में काशीपुर में एक किराये के मकान में लाया गया। इसी मकान में नरेन्द्रनाथ अपने गुरुभाइयों को लेकर श्रीरामकृष्ण की सेवा की और तीव्र आध्यात्मिक साधना में डूब गये।

 एक दिन उन्होंने श्रीरामकृष्ण के समक्ष इच्छा व्यक्त की वे शुकदेव की भांति दिन-रात निर्विकल्प समाधि में डूबे रहना चाहते हैं। परन्तु श्रीरामकृष्ण ने धिक्कारा, ''छि: नरेन, तुम सिर्फ अपनी मुक्ति की इच्छा रखते हो। तुम्हें तो विशाल वटवृक्ष की तरह होना पड़ेगा, जिसकी छाया में समस्त पृथ्वी के मनुष्य शान्ति लाभ करेंगे।'' यद्यपि उन्होंने ऐसा कहा था, परन्तु उनकी कृपा से ही काशीपुर में ही नरेन्द्रनाथ ने एक दिन आध्यात्मिक जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि निर्विकल्प समाधि प्राप्त की थी।

 समाधि भंग होने के उपरान्त श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा कि इस उपलब्धि की कुंजी वे अपने पास ही रखेंगे। जगत के प्रति जब नरेन्द्रनाथ के कर्त्तव्य की इति होगी, तो वे स्वयं ही इस उपलब्धि का द्वार पुनः मुक्त कर देंगें।

 काशीपुर में श्रीरामकृष्ण ने एक दिन कागज पर लिखा, ''नरेन्द्र शिक्षा देगा।'' अर्थात भारतवर्ष का जो शाश्वत आध्यात्मिक आदर्श अपने जीवन में उन्होंने उपस्थित किया था, जगत में उसी का प्रसार नरेन्द्रनाथ को करना होगा। इस पर नरेन्द्रनाथ ने आपत्ति प्रकट की तो श्रीरामकृष्ण बोले, ''तेरी हड्डियां भी यह काम करेंगी।'' एक दिन श्रीरामकृष्ण ने वैष्णव धर्म की समालोचना करते समय मन्तव्य व्यक्त किया, जीव पर दया नहीं, शिव भाव से जीव की सेवा करनी चाहिए।

 नरेन्द्रनाथ इस पर मुग्ध होकर बोले, ''आज ठाकुर के वचनों में एक अदभुत प्रकाश अनुभव किया। अगर ईश्वर ने कभी अवसर दिया तो आज जो अदभुत सत्य को सुना, उसे सम्पूर्ण संसार में बिखेर दूँगा।'' परवर्ती काल में स्वामीजी ने मानव सेवा के माध्यम से भगवान की उपासना का जो अनुष्ठान पसारा उसकी जमीन उसी दिन तैयार हुई थी।

 वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द का प्रत्येक काम ही श्रीरामकृष्ण द्वारा निर्देशित है। श्रीरामकृष्ण सूत्र हैं और स्वामीजी उनके भाष्य हैं। संन्यासी गुरूभाइयों को लेकर एक संघ की प्रतिष्ठा का निर्देश भी श्रीरामकृष्ण ही दे गये थे।

 सन् 1886 ई. की 16 अगस्त को श्रीरामकृष्ण की इहलीला को विराम मिला। इस घटना के कुछ दिन बाद ही नरेन्द्रनाथ ने अपने गुरूभाइयों के साथ वरा हनमर के कुछ जीर्ण मकान में रामकृष्ण मठ की प्रतिष्ठा की। नरेन्द्र दारिद्रय के बीच अपने गुरूभाइयों के साथ भूखे-अधभूखे रहकर तीव्र तपस्या, भजन-कीर्तन, शास्त्रालोचना के मध्य दिन गुजारते।

 इसी स्थान पर सन्1887 ई. के जनवरी माह में नरेन्द्रनाथ और दस गुरूभाइयों ने संन्यास ग्रहण किया। नरेन्द्रनाथ ने अपना नाम स्वामी विविदिषानन्द ग्रहण किया। आत्मगोपन के लिए स्वामीजी नाना नाम ग्रहण कर लेते थे-विविदिषानन्, सच्चिदानन्द और विवेकानन्द। लेकिन शिकागो विश्वधर्म महासभा में स्वामी विवेकानन्द नाम से आविर्भूत हुए थे। इसी कारण इसी नाम से समस्त विश्व ने उन्हें पहचाना।

 संन्यास के बाद स्वामीजी एवं उनके अन्य गुरूभाई परिव्राजक के रूप में समय-समय पर निकल पड़ते। कभी-कभी अकेले और अन्य समय साथ मिलकर परिव्रजन किया करते थे। इस प्रकार पैदल चलकर स्वामीजी ने समस्त भारत का परिभ्रमण किया और इस दौरान शिक्षित-अशिक्षित, धनी-निर्धन, राजा-महाराजा, ब्राह्मण-चण्डाल, समाज के विभिन्न स्तरों के लोगों के साथ उनका परिचय हुआ।

 उनकी प्रतिभा, आकर्षणीय तेजोदीप्त कानित एवं आध्यात्मिक गम्भीरता से सभी मुग्ध हुए। 3 अगस्त, सन् 1810 ई. को जिस भ्रमण पर वे निकले, वही उनका सर्वाधिक दीर्घकालिक और स्थायी महत्ववाला साबित हुआ। इस भ्रमण काल में उनकी प्रतिभा से मुग्ध होकर बहुतों ने उन्हें अमेरिका में होने वाले विश्वधर्म महासभा में भाग लेने का अनुरोध किया। प्रारम्भ में स्वामीजी ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया।

 बाद में मद्रास के लोगों की उत्कट इच्छा एवं दैव निर्देश पर (श्रीरामकृष्ण) ने सूक्ष्म शरीर के माध्यम से एवं कामारपुकुर से श्रीमाँ सारदादेवी ने उन्हें अनुमति प्रदान की। उन्होंने अमेरिका जाने का निश्चय किया। स्वामीजी भारत के जनसाधारण के प्रतिनिधि होकर उनसे प्राप्त आर्थिक सहायता से अमेरिका गये।

 उन्होंने चाहा भी वही था। उन्होंने कहा था, ''अगर यह माँ की इच्छा हो कि मुझे (अमेरिका) जाना पड़े तो मैं जनसाधारण की अर्थ सहायता द्वारा ही जाऊँगा क्योंकि भारत के सर्वसाधारण और गरीब मनुष्यों के लिए ही मैं पाश्चात्य देश जाऊँगा।'' स्वामीजी ने सन् 1893 ई. को 31 मई को मुम्बई से जहाज द्वारा अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। वे 25 जुलाई को वेकुवर पहुँचे।

 वहाँ से रेलगाड़ी द्वारा 30 जुलाई को सन्ध्या के समय शिकागो पहुँचे। धर्मसभा में विलम्ब जानकर कम खर्च पर रहने के लिए स्वामीजी बोस्टन चले गये। बोस्टन में वे विभिन्न विद्वानों तथा अध्यापकों से परिचित हुए।

 इनमें हार्वड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राइट विशेष उल्लेखनीय हैं। स्वामीजी के पास कोई परिचय पत्र नहीं है जानकर राइट ने धर्मसभा कमेटी के चेयरमैन डॉ. बैराज के नाम एक पत्र लिखा। हमारे सभी अध्यापकों को सम्मिलित करने से जो होगा, यह संन्यासी उससे भी अधिक विद्वान है।''

 11 सितम्बर को धर्मसभा आरम्भ हुई। स्वामीजी ने अपराहन में अपना भाषण 'अमेरिका निवासी बहनों और भाइयों' के सम्बोधन से शुरू किया ही था कि उपस्थित सात हजार श्रोताओं ने करतल ध्वनित से उनका विपुल अभिनन्दन किया। दो मिनटों के बाद तालियों की गड़गड़ाहट थमने पर स्वामीजी ने एक संक्षिप्त भाषण दिया।

 इसमें सभी धर्मों के प्रति उनकी आदरपूर्ण और प्रीतिपूर्ण मनोभावना का अपूर्व प्रकाश देखकर श्रोतागण मुग्ध हो गये। 27 सितम्बर तक धर्म महासभा चली। उन्हें लगभग प्रतिदिन व्याख्यान देना पड़ता। उनके उदार एवं युक्तियुत चिन्तन के लिए उन्हें धर्म महासभा का सबसे प्रभावशाली वक्ता मान लिया। शिकागो के राजपथों पर उनके चित्र सुशोभित हुए। सभी समाचार पत्र उनकी हार्दिक प्रशंसा से भर गये।

 'धर्मसभा में विवेकानन्द निर्विरोध सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं। उनका भाषण सुनने के पश्चात यही अनुमान हुआ कि इस शिक्षित जाति के मध्य धर्म प्रचारक भेजना कितनी निर्बुद्धि का परिचायक है।' (दि हेराल्ड), 'अपनी भावराशि की चमत्कारिक अभिव्यक्ति एवं व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण धर्म महासभा में वे अत्यन्त जनप्रिय थे। विवेकानन्द जब भी मंच के एक कोने से अन्य कोने तक चलकर जाते, तालियों की गड़गड़ाहट से उनका अभिवादन होता।

 परन्तु हजार-हजार मनुष्यों की इस सुस्पष्ट प्रशंसा से भी उनमें गर्व का कोई भाव परिलक्षित नहीं होता। शिशु-सुलभ सरलता से वे उसे ग्रहण करते। (दी बोस्टन इवनिंग ट्रांजिस्टर) 'सभा की कार्यसूची में विवेकानन्द का वक्तव्य सबसे अन्त में रखा जाता।

 इसका उद्देश्य था श्रोताओं को अन्त तक पकड़ कर रखना। किसी भी दिन जब नीरस वक्ताओं के लम्बे भाषणों से सैकड़ों लोग सभागृह का त्याग करते रहते, तब विराट श्रोता मण्डली को निश्चिन्त करने हेतु सिर्फ इतनी घोषणा यथेष्ट होती कि प्रार्थना के पहले विवेकानन्द कुछ बोलेंगे। श्रोतागण उनके पन्द्रह मिनट का भाषण सुनने के लिए घण्टों बैठे रहते।' (नार्थम्पटन डेली हेराल्ड, अप्रैल 1894)

 इसके उपरान्त स्वामीजी अमेरिका के बड़े-बड़े नगरों में धर्म प्रचार करते रहे। अमेरिका के जनसाधारण, विशेषकर शिक्षित समुदाय उसके और भी अधिक अनुरागी हुए। केवल संकीर्णमना भारतीय एवं ईसाई सम्प्रदाय के कुछ मनुष्य ईष्र्यावश उनके विरुद्ध मिथ्या प्रचार करते रहे। स्वामीजी आर्थिक रूप से विपन्न होते हुए भी अपनी चरित्र की महानता द्वारा सभी प्रतिकूल परिस्थितियों को झेल सके।

 दो वर्ष बाद 1895 के अगस्त माह में वे यूरोप गये। पेरिस एवं लन्दन के नगरों में धर्म प्रचार अभियान के बाद दिसम्बर माह में अमेरिका लौट आये। 15 अप्रैल 1896 को अमेरिका से विदा लेकर पुनः लन्दन आये। इंग्लैण्ड में स्वामीजी के प्रभाव के सम्बन्ध में विपिनचन्द्र पाल ने पत्र में लिखा 'इंग्लैण्ड के अनेक स्थानों में मैंने ऐसे बहुत मनुष्यों का सान्निध्य प्राप्त किया जो स्वामीजी विवेकानन्द के प्रति गम्भीर श्रद्धा और भक्ति से अभिभूत थे।

 यह सत्य है कि मैं उनके सम्प्रदाय से युक्त नहीं हूँ और उनसे कुछ विषयों में मतभेद भी रखता हूँ।' पर मुझे स्वीकार करना ही होगा कि विवेकानन्द के प्रभाव एवं गुण से यहाँ के अधिकांश लोग आजकल विश्वास करते हैं कि प्राचीन हिन्दूशास्त्र विस्मयकारी आध्यात्मिक निधियों से परिपूर्ण हैं।

 स्वामीजी लन्दन से भारत की ओर 16 दिसम्बर 1896 को रवाना हुए और 15 जनवरी, 1897 को कोलम्बो आ पहुँचे। पाश्चात्य देशों में उनकी अभूतपूर्व सफलता ने उनके देशवासियों के मन में जो आत्मविश्वास और आत्ममर्यादा जगायी थी, उसके प्रभाव से दीर्घ संचित हीन भावना एक पल में दूर हो सकी।

 भारतवासी सिर उठाकर खड़े हुए और पहचाना कि विश्व की सभ्यता के भण्डार में उनका योगदान पाश्चात्य देशों से कम नहीं, वरन अधिक ही रहा है। इस आत्मगरिमा का संचार जिसने जन-जन में किया, सारे देश को जिसे घोर निद्रा से जगाया, उसका स्वागत करने के लिए समस्त देश अधीर आग्रह से कम्पायमान था।

 जब स्वामीजी कोलम्बो पहुँचे तो उनके प्रति समस्त देश की कृतज्ञता ने एक अभूतपूर्व अभिनन्दन का रूप धारण कर लिया। उसके बाद तो अभिनन्दन की बाद तरंगयित होकर मद्रास से लेकर कलकत्ता की सड़कों पर बह चली। 20 जनवरी को स्वामीजी कलकत्ता पहुँचे। अभिनन्दन के बाद अभिनन्दन कलकत्ता अपने विश्वविजयी पुत्र के आगमन में मतवाला हो उठा।

 1899 ई. की 20 जून को स्वामीजी दूसरी बार पाश्चात्य देशों की यात्रा पर निकले एवं इंग्लैण्ड में दो सप्ताह बिताने के उपरान्त अगस्त माह में अमेरिका पहुंचे। इस बार अमेरिका में वे लगभग एक वर्ष रहे और नब्बे से अधिक भाषण दिये।

 परन्तु इस बार उनकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य था उन देशों में प्रतिष्ठित उनके कार्यक्रमों को देखना और उन्हें सुदृढ़ करना। पेरिस, विएना, एथेंस और मिस्र होते हुए स्वामीजी 9 दिसम्बर 1900 को बेलूड़ मठ पहुँचे। स्वदेश लौटते ही 27 दिसम्बर को स्वामीजी मायावती की ओर रवाना हुए।

 वहाँ से 24 जनवरी 1901 को लौटे। 6 फरवरी को ट्रस्ट डीड की रजिस्ट्री हुई। 10 फरवरी को मठ के ट्रस्टियों के अनुमोदन से स्वामी ब्रह्मानन्द रामकृष्ण मठ एवं रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष तथा स्वामी सारदानन्द महासचिव नियुक्त हुए। इस प्रकार संघ के समस्त परिचालन दायित्व से अपने को पृथक रखकर अन्तिम दो वर्ष स्वामीजी महासमाधि के लिए प्रस्तुत होते रहे।

 गुरु भाइयों अथवा शिष्यों को अपनी बुद्धि के अनुसार काम करने को प्रेरित करते ताकि उनके न रहने पर संघ के परिचालन के विषय में वे स्वयं ही निर्णय लेने में समर्थ हो सकें।

 स्वामीजी ने 1903 ई. की 4 जुलाई को देहत्याग किया। सन्ध्या बेला में मठ स्थित अपने कक्ष में वे ध्यानरत थे। रात्रि 9 बजकर 10 मिनट पर वह ध्यान महासमाधि में परिणत हुआ। उस समय उनकी आयु 39 वर्ष 5 माह 23 दिन थी। परन्तु स्थूल शरीर का नाश होने पर भी, जिस शक्ति के रूप में स्वामी विवेकानन्द उभरे थे, वह अब भी क्रियाशील है। स्वामीजी ने स्वयं कहा था, ''शरीर को पुराने वस्त्र की भाँति त्यागकर इसके बाहर चला जाना ही श्रेय मानता हूँ।

 परन्तु मैं काम से कभी निरत नहीं होऊँगा। मैं तब तक मानव को अनुप्रेरित करता रहूँगा, जब तक प्रत्येक मनुष्य यह नहीं समझता कि वह भगवान है।'' भारतवर्ष के नवजागरण के प्रत्येक क्षेत्र को स्वामीजी ने अत्यन्त प्रभावित किया है और समस्त पृथ्वी के लिए पथ-निर्देश छोड़ गये हैं।

 अनेक मनीषियों का यह मानना है कि स्वामी विवेकानन्द ही आधुनिक भारत के सृष्टा हैं। इस प्रसंग में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की उक्ति स्मरणीय है। हमारे आधुनिक इतिहास की ओर जो कोई भी दृष्टि डालेगा, उसे स्पष्ट दिखेगा 'स्वामी विवेकानन्द के हम कितने ऋणी हैं। उन्होंने भारत की महिमा की ओर देशवासियों की आँखें उन्मुख की।

 राजनीति को आध्यात्मिकता पर आधारित किया। हम धर्मान्धों की दृष्टि प्रदान की। वे ही भारतीय स्वाधीनता संग्राम के जनक हैं। हमारी राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता के जनक भी वे ही हैं।

 

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