मुसलमानों के लिए ईद हर्ष का त्योहार है, तो मुहर्रम विषाद का। इस्लामधर्म के अनुयायी अपने शहीदों की याद तरोताजा रखने के लिए इस त्योहार को बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं। इस्लामी इतिहास की सबसे दुःखद घटना की याद में वर्ष के पहले महीने की पहली तारीख से दसवीं तारीख तक मुहर्रम मनाया जाता है।
इस घटना का संबंध इस्लामधर्म के
संस्थापक हजरत मुहम्मद के नाती हजरत इमाम हुसैन के बलिदान से है।
एक बार कूफ़ावालों ने हजरत हुसैन को संवाद भेजा कि यदि आप हमारे यहाँ आएँ, तो हम आपको खलीफा मान लेंगे। जब लंबी यात्रा करके हजरत हुसैन कूफा पहुँचे, तो वहाँ यजीद के अनुचरों ने उन्हें घेर लिया।
जिन्होंने उन्हें कूफा बुलाया था, उन्होंने भी बड़ी गद्दारी की। हजरत हुसैन केवल तीस-चालीस लोगों के साथ थे, जिनमें मासूम बच्चे एवं स्त्रियाँ भी थीं। कूफा में यजीद के गवर्नर अम्र-बिन-साद ने हजरत इमाम हुसैन के छोटे काफिले को आगे बढ़ने से रोक दिया। लाचार होकर उसी रेगिस्तानी इलाके में हजरत इमाम हुसैन को खेमा गाड़ना पड़ा।
दसवीं तारीख़ को छोटे-छोटे बच्चे, औरतें और हजरत इमाम हुसैन के दो भाँजे शहीद हुए। ये उनकी बहन जैनब के बच्चे थे। इस तरह यजीद के सेनाध्यक्ष शिम्र ने सबके साथ बेरहमी की। हजरत हुसैन भी शहीद हुए। शहीद होने के बाद दुश्मनों ने हजरत हुसैन के सर को नेजा पर रखा।
वे जंजीर से अपने सीने और पीठ को पीट-पीटकर लहूलुहान कर लेते हैं। औरतें स्याह मातमी पोशाक में नजर आती हैं। वे अपने महापुरुषों की याद में छाती पीट-पीटकर रोती-चिल्लाती हैं। इस अवसर पर मजलिसें होती है।
इनमें खतीब (अभिभाषणकर्ता) कर्बला की घटना को कविता या गद्य में पूरे वर्णन के साथ सुनाता है। सभा में सम्मिलित होनेवाले इस हृदयद्रावक घटना को सुनकर गर्म उच्छवास छोड़ते हैं, आँसू बहाते हैं, आहें भरते हैं, कराहते हैं और धीमे स्वर में गिरिया-व-जारी (रोना-पीटना) करते हैं।
मुहर्रम की सातवीं से दसवीं तारीख तक दिन-रात निशान लेकर जुलूस निकाले जाते हैं, डंके बजाए जाते हैं तथा चौराहों एवं मोड़ों पर रुककर युद्धकौशल दिखाए जाते हैं। ये सब बताते है कि इमाम किस बहादुरी के साथ दुश्मनों से लड़े थे।
उन्होंने यजीद को कभी अपना खलीफा नहीं स्वीकार किया, भले ही उन्हें बड़ी-से-बड़ी कुर्बानी देनी पड़ी। इसलिए, यह पर्व उस आदर्श की याद दिलाता है, जिसमें मनुष्य के लिए उसके जीवन से बढ़कर उसके आदर्श की महत्ता है।
मनुष्य पर चाहे विपत्तियों का पहाड़ ही क्यों न टूट पड़े, किंतु धर्म और सत्य के मार्ग से उसे विचलित नहीं होना चाहिए। अन्याय के सक्रिय विरोध का प्रतीक है- मुहर्रम ! यही कारण है कि मुहर्रम इस्लाम के इतिहास में अविस्मरणीय पर्व बन गया है।
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