यूगोस्लाविया के स्कोपजे नामक एक छोटे से नगर में मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को हुआ था। उनके पिता का नाम अल्बेनियन था जो एक भवन निर्माता थे। मदर टेरेसा का बचपन का नाम एग्नेस बोहाझिउ था। इनके माता-पिता धार्मिक विचारों के थे। बारह वर्ष की अल्प आयु में ही मदर टेरेसा ने अपने जीवन का उद्देश्य तय कर लिया था। मानव का प्रेम ऐसी सर्वोत्तम भावना है जो उसे सच्चा मानव बनाती है।
विश्व में मानव की निःस्वार्थ भाव से सेवा करने वाली अनेक विभूतियों में से मदर टेरेसा सर्वोच्च थीं। उन्हें ममता, प्रेम, करुणा और सेवा की प्रतिमूर्ति कहा जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
यहाँ रहकर उसने अध्यापिका के रूप में सेवा कार्य
किया। अपनी योग्यता, कार्यनिष्ठा तथा सेवाभाव के कारण कुछ ही दिनों
बाद उनको स्कूल की प्रधानाध्यापिका बना दिया गया। मदर टेरेसा को यह पद पाकर संतोष
नहीं मिला। पीड़ित मानवता की पुकार उन्हें कचोट रही थी।
10 दिसम्बर 1946 को जब वह रेल से दार्जिलिंग जा रही थीं तो
उन्हें अपने भीतर से पुकार सुनाई दी कि उन्हें स्कूल छोड़कर गरीबों के बीच रहकर
उनकी सेवा करनी चाहिए। उन्होंने अपने अन्दर से आयी आवाज को सुन स्कूल छोड़ दिया।
1950 में उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना
की। इसके बाद उन्होंने नीली किनारी वाली सफेद साड़ियां लेकर पीड़ितों की सेवा करने
के लिए मैदान में उतर पड़ी। इससे पूर्व मदर टेरेसा ने 1948
में बंगाल के कोलकाता स्थित एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले बच्चों के लिए स्कूल
खोला। इसके कुछ दिनों बाद ही काली मन्दिर के पास 'निर्मल ह्रदय' नामक
धर्मशाला की स्थापना की।
यह धर्मशाला सिर्फ असहाय लोगों के लिए थी। धर्मशाला बनने के बाद असहाय लोगों को छत नसीब हो सकी। मदर टेरेसा अपनी सहयोगी सिस्टरों के साथ सड़क किनारे तथा गलियों में पड़े मरीजों को उठाकर 'निर्मल' हृदय ले जातीं जहाँ उनका उपचार निःशुल्क किया जाता। उल्लेखनीय है कि इन्होंने अपना नाम 16 वीं शताब्दी में संत टेरेसा के नाम से प्रसिद्ध हुई एक नन के नाम पर टेरेसा रख लिया था।
1952 में स्थापित 'निर्मल हृदय' केन्द्र
ने आज विशाल रूप ग्रहण कर लिया है। विश्व भर के करीब 120
देशों में इस संस्था की शाखाएँ काम कर रही है। इस संस्था के तहत वर्तमान में 169
शिक्षण संस्था, 1369 उपचार केन्द्र और 755
आश्रय गृह संचालित हैं।
मदर टेरेसा ने अपने जीवन के 50 वर्ष तक वृद्धों, असहायों, रोगियों और बदहाल महिलाओं की सेवा और सुश्रुषा की। अनाथ तथा विकलांग बच्चों के जीवन को प्रकाशवान करने के लिए अपनी युवावस्था से जीवन के अंतिम क्षणों तक उन्होंने प्रयास किया।
Bitification
of Mother Teresa
भारतरत्न से सम्मानित दिवंगत मदर
टेरेसा को संत की पदवी (Sount hood) प्राप्त होने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति गत
दिसम्बर 2002 में उस समय हुई जब उन्हें 'धन्य' घोषित
करने (Beatification) की स्वीकृति पोप जॉन पॉल द्वितीय ने प्रदान कर
दी।
मदर टेरेसा से सम्बद्ध एक चमत्कार को मान्यता प्रदान करते हुए उन्हें 19 अक्टूबर, 2003 को रोम में एक समारोह में धन्य घोषित किया जायेगा।
अल्बानिया में जन्मी मदर टेरेसा के पुण्य कार्यों की प्रशंसा करते
हुए, वेटिकन सिटी से 20 दिसम्बर, 2002 को
जारी आदेश में आदिवासी महिला मोनिका बेजरा (Monica
Besra) के पेट का ट्यूमर 1998
में मदर टेरेसा के चित्र के स्पर्श से ठीक होने की बात स्वीकार की गई है।
मिशनरी की प्रमुख सिस्टर निर्मला ने वेटिकन के निर्णय पर हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि इससे उन्हें संत घोषित किए जाने का मार्ग प्रशस्त हो गया है।
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