No.-1. साहित्य को पढ़ने, सुनने या नाटकादि को देखने से जो आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहते हैं।
रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनंद'।
काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है,
उसे 'रस'
कहा जाता है।
भोजन रस के बिना यदि नीरस है, औषध
रस के बिना यदि निष्प्राण है, तो साहित्य भी रस के बिना निरानंद है।
यही रस साहित्यानंद को
ब्रह्मानंद-सहोदर बनाता है। जिस प्रकार परमात्मा का यथार्थ बोध कराने के लिए उसे
रस-स्वरूप 'रसो
वै सः' कहा गया,
उसी प्रकार परमोत्कृष्ट साहित्य को यदि
रस-स्वरूप 'रसो वै सः'
कहा जाय, तो अत्युक्ति न होगी।
रस की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी गयी
है-
No.-1. सरति इति रसः। अर्थात जो सरणशील, द्रवणशील
हो, प्रवहमान हो, वह रस है।
No.-2. रस्यते आस्वाद्यते इति रस:। अर्थात जिसका
आस्वादन किया जाय, वह रस है। साहित्य में रस इसी द्वितीय अर्थ-
काव्यास्वाद अथवा काव्यानंद- में गृहीत है।
जिस तरह से लजीज भोजन से जीभ और मन को
तृप्ति मिलती है, ठीक उसी तरह मधुर काव्य का रसास्वादन करने से
हृदय को आनंद मिलता है। यह आनंद अलौकिक और अकथनीय होता है। इसी साहित्यिक आनंद का
नाम 'रस' है। साहित्य में रस का बड़ा ही महत्त्व माना गया
है। साहित्य दर्पण के रचयिता ने कहा है- ''रसात्मकं वाक्यं काव्यम्'' अर्थात
रस ही काव्य की आत्मा है।
काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने
कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त,
व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव
द्वारा व्यक्त हृदय का 'स्थायी भाव'
ही रस-दशा को प्राप्त होता है।
पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित
स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस रूप में परिणित हो जाता है।
रस को 'काव्य की आत्मा/ प्राण तत्व' माना
जाता है।
यहाँ जानकीजी 'आलम्बनविभाव', एकान्त तथा प्रातःकालीन वाटिका का दृश्य 'उद्यीपनविभाव', सीता और राम में कटाक्ष-हर्ष-लज्जा-रोमांच आदि 'व्यभिचारी भाव' हैं, जो सब मिलकर 'स्थायी भाव' 'रति' को उत्पत्र कर 'शृंगार रस' का संचार करते हैं। भरत मुनि ने 'रसनिष्पत्ति' के लिए नाना भावों का 'उपगत' होना कहा है, जिसका अर्थ है कि विभाव, अनुभाव और संचारी भाव यहाँ स्थायी भाव के समीप आकर अनुकूलता ग्रहण करते हैं।
'विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:'- नाट्यशास्त्र,
अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से
रस की निष्पत्ति होती है।
रस के अंगNo.-2.
रस के चार अंग है-
No.-1. विभाव
No.-2.अनुभाव
No.-3. व्यभिचारी भाव
No.-4. स्थायी भाव।
No.-1. विभाव :- जो व्यक्ति, पदार्थ
अथवा ब्राह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक करता है, उन
कारणों को 'विभाव' कहा जाता है।
दूसरे शब्दों में- जो व्यक्ति वस्तु या
परिस्थितियाँ स्थायी भावों को उद्दीपन या जागृत करती हैं, उन्हें
विभाव कहते हैं।
विभाव के भेद विभाव के दो भेद हैं-
No.-1. आलंबन विभाव
No.-2.
उद्दीपन विभाव।
No.-1. आलंबन विभाव- जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी
भाव जगते है, आलंबन विभाव कहलाता है।
दूसरे शब्दों में- जिन वस्तुओं या
विषयों पर आलम्बित होकर भाव उत्पन्न होते हैं,
उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं।
जैसे- नायक-नायिका।
आलंबन विभाव के दो पक्ष होते है-
आश्रयालंबन व विषयालंबन।
जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन
कहलाता है। जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है।
उदाहरण- यदि राम के मन में सीता के
प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।
सरल शब्दों में- जो भावों को उद्दीप्त
करने में सहायक होते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं।
विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में लिखा
है- ''उद्दीपनविभावास्ते रसमुद्दीपयन्ति ये'' ।
जैसे- शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के मन में आकर्षण (रति भाव) उत्पन्न होता है। उस समय शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाएँ तथा वन का सुरम्य, मादक और एकान्त वातावरण दुष्यन्त के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करता है, अतः यहाँ शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाएँ तथा वन का एकान्त वातावरण आदि को उद्दीपनविभाव कहा जाएगा।
दूसरे शब्दों में- मनोगत भाव को व्यक्त
करनेवाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते है।
''उद्बुद्धं कारणै: स्वै: स्वैर्बहिर्भाव:
प्रकाशयन् ।
लोके यः कार्यरूपः सोऽनुभावः
काव्यनाट्ययो: ।।''
अनुभाव के भेद अतः अनुभाव के चार भेद है-
No.-1. कायिक
No.-2. वाचिक
No.-3. मानसिक
No.-4. आहार्य
No.-5. सात्विक
No.-1. कायिक- कटाक्ष, हस्तसंचालन आदि आंगिक चेष्टाएँ कायिक
अनुभाव कही जाती है।
No.-2. वाचिक- भाव-दशा के कारण वचन में आये परिवर्तन
को वाचिक अनुभाव कहते हैं।
No.-3. मानसिक- आंतरिक वृत्तियों से उत्पत्र प्रमोद
आदि भाव को मानसिक अनुभाव कहते हैं।
No.-4.आहार्य- बनावटी वेशरचना को आहार्य अनुभाव कहते
हैं।
No.-5. सात्विक- शरीर के स्वाभाविक अंग-विकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं।
सात्विक अनुभावों की संख्या आठ है-
No.-1. स्तंभ
No.-2. स्वेद
No.-3.रोमांच
No.-4. स्वर-भंग
No.-5.कम्प
No.-6.विवर्णता (रंगहीनता)
No.-7.अश्रु
No.-8.प्रलय (संज्ञाहीनता/निश्चेष्टता)।
No.-3. व्यभिचारी
या संचारी भाव :- मन में संचरण करनेवाले (आने-जाने वाले) भावों को 'संचारी' या 'व्यभिचारी' भाव
कहते है।
दूसरे शब्दों में- आश्रय के चित्त में
उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारों को संचारी भाव कहते हैं।
आचार्य भरत ने इन भावों के वर्गीकरण के
चार सिद्धान्त माने हैं- (i) देश, काल और अवस्था (ii) उत्तम, मध्यम और अधम प्रकृति के लोग, (iii) आश्रय
की अपनी प्रकृति या अन्य व्यक्तियों की उत्तेजना के कारण अथवा वातावरण के प्रभाव (iv) स्त्री
और पुरुष के अपने स्वभाव के भेद।
संचारी भावों की संख्यासंचारी भावों की कुल संख्या 33
मानी गई है-
No.-1. हर्ष
No.-2. विषाद
No.-3. त्रास
(भय/व्यग्रता)
No.-4. लज्जा
(ब्रीड़ा)
No.-5. ग्लानि
No.-6. चिंता
No.-7. शंका
No.-8. असूया
(दूसरे के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णुता)
No.-9. अमर्ष
(विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख)
No.-10. मोह
No.-11. गर्व
No.-12. उत्सुकता
No.-13. उग्रता
No.-14. चपलता
No.-15. दीनता
No.-16. जड़ता
No.-17. आवेग
No.-18. निर्वेद
(अपने को कोसना या धिक्कारना)
No.-19. घृति
(इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चंचलता का अभाव)
No.-20. मति
No.-21. बिबोध
(चैतन्य लाभ)
No.-22. वितर्क
No.-23. श्रम
No.-24. आलस्य
No.-25. निद्रा
No.-26. स्वप्न
No.-27. स्मृति
No.-28. मद
No.-29. उन्माद
No.-30. अवहित्था
(हर्ष आदि भावों को छिपाना)
No.-31. अपस्मार
(मूर्च्छा)
No.-32. व्याधि
(रोग)
No.-33. मरण
पंडितराज जगन्नाथ ने 'रसगंगाधर' में
इसकी इस प्रकार परिभाषा दी है-
''सजातीय - विजातीयैरतिरस्कृतमूर्तिमान्।
यावद्रसं वर्तमान: स्थायिभाव:
उदाहृतः।।''
अर्थात जिस भाव का स्वरूप सजातीय एवं
विजातीय भावों से तिरस्कृत न हो सके और जबतक रस का आस्वाद हो, तबतक
जो वर्तमान रहे, वह स्थायी भाव कहलाता है।
रस के प्रकार
आचार्य भरतमुनि ने नाटकीय महत्त्व को
ध्यान में रखते हए आठ रसों का उल्लेख किया- शृंगार, हास्य, करूण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अदभुत। आचार्य मम्मट और पण्डितराज
जगन्नाथ ने रसों की संख्या नौ मानी है- शृंगार,
हास्य, करूण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अदभुत और शान्त।
वस्तुतः रस के ग्यारह भेद होते है-
No.-1. शृंगार रस
No.-2. हास्य रस
No.-3.करूण रस
No.-4. रौद्र रस
No.-5. वीर रस
No.-6. भयानक रस
No.-7. बीभत्स रस
No.-8. अदभुत रस
No.-9. शान्त रस
No.-10. वत्सल रस
No.-11. भक्ति रस
No.-1. शृंगार रस
आचार्य भोजराज ने 'श्रृंगार' को 'रसराज' कहा
है। श्रृंगार रस का आधार स्त्री-पुरुष का पारस्परिक आकर्षण है, जिसे
काव्यशास्त्र में रति स्थायी भाव कहते है। जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रति
स्थायी भाव आस्वाद्य हो जाता है तो उसे श्रृंगार रस कहते हैं। श्रृंगार रस में
सुखद और दुःखद दोनों प्रकार की अनुभूतियाँ होती है, इसी आधार पर इसके दो भेद किए गए हैं-
संयोग शृंगार और वियोग शृंगार।
No.-1. संयोग शृंगार
जहाँ नायक-नायिका के संयोग या मिलन का
वर्णन होता है, वहाँ संयोग श्रृंगार होता है।
उदाहरण- ''चितवत
चकित चहूँ दिसि सीता।
कहँ गए नृप किसोर मन चीता।।
लता ओर तब सखिन्ह लखाए।
श्यामल गौर किसोर सुहाए।।
थके नयन रघुपति छबि देखे।
पलकन्हि हूँ परिहरी निमेषे।।
अधिक सनेह देह भई भोरी।
सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।।
लोचन मग रामहिं उर आनी।
दीन्हें पलक कपाट सयानी।।''
जहाँ वियोग की अवस्था में नायक-नायिका
के प्रेम का वर्णन होता है, वहाँ वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार होता है।
मो कहँ सकल भए विपरीता।।
नूतन किसलय मनहुँ कृसानू।
काल-निसा-सम निसि ससि भानू।।
कुवलय विपिन कुंत बन सरिसा।
वारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
कहेऊ ते कछु दुःख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।''
विकृत वेशभूषा, क्रियाकलाप, चेष्टा
या वाणी देख-सुनकर मन में जो विनोदजन्य उल्लास उत्पन्न होता है, उसे
हास्य रस कहते हैं। हास्य रस का स्थायी भाव हास है।
सो दिसि तेहि न विलोकी भूली।।
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं।
देखि दसा हरिगन मुसकाहीं।।''
दुःख या शोक की संवेदना बड़ी गहरी और
तीव्र होती है, यह जीवन में सहानुभूति का भाव विस्तृत कर
मनुष्य को भोग भाव से धनाभाव की ओर प्रेरित करता है। करुणा से हमदर्दी, आत्मीयता
और प्रेम उत्पन्न होता है। जिससे व्यक्ति परोपकार की ओर उन्मुख होता है।
रूप सीलू बल तेज बखानी।।
करहिं विलाप अनेक प्रकारा।
परहिं भूमितल बारहिं बारा।।''
No.-4. वीर रस
युद्द अथवा किसी कठिन कार्य को करने के
लिए ह्रदय में निहित 'उत्साह'
स्थायी भाव के जाग्रत होने के
प्रभावस्वरूप जो भाव उत्पन्न होता है, उसे वीर रस कहा जाता है।
उदाहरण- ''मैं
सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा
जानो मुझे।।
हे सारथे! हैं द्रोण क्या? आर्वे
स्वयं देवेन्द्र भी।
वे भी न जीतेंगे समर में आज क्या मुझसे
कभी।।''
रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है।
विरोधी पक्ष द्वारा किसी व्यक्ति, देश, समाज या धर्म का अपमान या अपकार करने से उसकी
प्रतिक्रिया में जो क्रोध उत्पन्न होता है,
वह विभाव, अनुभाव
और संचारी भावों में परिपुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है और तब रौद्र रस उत्पन्न
होता है।
रद-पट फरकत नयन रिसौहैं।।
कहि न सकत रघुबीर डर, लगे
वचन जनु बान।
नाइ राम-पद-कमल-जुग, बोले
गिरा प्रमान।।''
भयप्रद वस्तु या घटना देखने सुनने अथवा
प्रबल शत्रु के विद्रोह आदि से भय का संचार होता है। यही भय स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव
और संचारी भावों में परिपुष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है तो वहाँ भयानक रस होता है।
विकल बटोही बीच ही, परयों
मूरछा खाय।।''
वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा या
घृणा है। अनेक विद्वान इसे सह्रदय के अनुकूल नहीं मानते हैं, फिर
भी जीवन में जुगुप्सा या घृणा उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ तथा वस्तुएँ कम नहीं
हैं। अतः घृणा का स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से पुष्ट होकर आस्वाद्य
हो जाता है तब बीभत्स रस उत्पन्न होता है।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर
धारत।।
गीध जाँघ को खोदि खोदि कै मांस उपारत।
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात
विदारत।।''
अलौकिक, आश्चर्यजनक दृश्य या वस्तु को देखकर
सहसा विश्वास नहीं होता और मन में स्थायी भाव विस्मय उत्पन्न होता हैं। यही विस्मय
जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों में पुष्ट होकर
आस्वाद्य हो जाता है, तो अद्भुत रस उत्पन्न होता है।
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख,
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
यहाँ स्थायी भाव विस्मय, ईश्वर
का विराट, स्वरूप आलम्बन, विराट के अद्भुत क्रियाकलाप उद्दीपन, आँखें
फाड़कर देखना, स्तब्ध,
अवाक् रह जाना अनुभाव और भ्रम, औत्सुक्य, चिन्ता, त्रास
आदि संचारी भाव हैं, अतः यहाँ अद्भुत रस है।
अभिनवगुप्त ने शान्त रस को सर्वश्रेष्ठ
माना है। संसार और जीवन की नश्वरता का बोध होने से चित्त में एक प्रकार का विराग
उत्पन्न होता है परिणामतः मनुष्य भौतिक तथा लौकिक वस्तुओं के प्रति उदासीन हो जाता
है, इसी को निर्वेद कहते हैं। जो विभाव, अनुभाव
और संचारी भावों से पुष्ट होकर शान्त रस में परिणत हो जाता है।
अन्तहिं तोहि तजेंगे पामर! तू न तजै
आभि ते।।
अब नाथहिं अनुराग जाग जड़, त्यागु
दुरदसा जीते।
बुझै न काम अगिनि 'तुलसी' कहुँ
विषय भोग बहु घी ते।।''
शास्त्रीय दृष्टि से नौ ही रस माने गए
हैं लेकिन कुछ विद्वानों ने सूर और तुलसी की रचनाओं के आधार पर दो नए रसों को
मान्यता प्रदान की है- वात्सल्य और भक्ति।
वात्सल्य रस का सम्बन्ध छोटे
बालक-बालिकाओं के प्रति माता-पिता एवं सगे-सम्बन्धियों का प्रेम एवं ममता के भाव
से है।
हिन्दी कवियों में सूरदास ने वात्सल्य
रस को पूर्ण प्रतिष्ठा दी है। तुलसीदास की विभिन्न कृतियों के बालकाण्ड में
वात्सल्य रस की सुन्दर व्यंजना द्रष्टव्य है। वात्सल्य रस का स्थायी भाव वत्सलता या
स्नेह है।
मणिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे
धावत।
कबहूँ निरखि हरि आप छाँह को कर सो पकरन
चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ पुनि पुनि
तिहि अवगाहत।।''
भक्ति रस शान्त रस से भिन्न है। शान्त
रस जहाँ निर्वेद या वैराग्य की ओर ले जाता है वहीं भक्ति ईश्वर विषयक रति की ओर ले
जाते हैं यही इसका स्थायी भाव भी है। भक्ति रस के पाँच भेद हैं- शान्त, प्रीति, प्रेम, वत्सल
और मधुर। ईश्वर के प्रति भक्ति भावना स्थायी रूप में मानव संस्कार में प्रतिष्ठित
है, इस दृष्टि से भी भक्ति रस मान्य है।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।
साधुन संग बैठि लोक-लाज खोई।
अब तो बात फैल गई जाने सब कोई।''
यहाँ स्थायी भाव ईश्वर विषयक रति, आलम्बन
श्रीकृष्ण उद्दीपन कृष्ण लीलाएँ, सत्संग,
अनुभाव-रोमांच, अश्रु, प्रलय, संचारी
भाव हर्ष, गर्व, निर्वेद,
औत्सुक्य आदि हैं अतः यहाँ भक्ति रस
है।
रस |
स्थायी भाव |
उदाहरण |
No.-1. शृंगार रस |
रति/प्रेम |
(i) संयोग शृंगार
: बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय। |
No.-2. हास्य रस |
हास |
तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप, |
No.-3. करुण रस |
शोक |
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। |
No.-4.
वीर रस |
उत्साह |
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े
चलो। |
No.-5. रौद्र रस |
क्रोध |
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। |
No.-6. भयानक रस |
भय |
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी। |
No.-7.
बीभत्स रस |
जुगुप्सा/घृणा |
सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत। |
No.-8. अदभुत रस |
विस्मय/आश्चर्य |
आखिल भुवन चर-अचर सब, हरि मुख में
लखि मातु। |
No.-9.
शांत रस |
शम/निर्वेद |
मन रे तन कागद का पुतला। |
No.-10.
वत्सल रस |
वात्सल्य रति |
किलकत कान्ह घुटरुवन आवत। |
No.-11. भक्ति रस |
भगवद विषयक |
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे। |
नोट:
No.-2. नाटक में 8 ही रस माने जाते है क्योंकि वहां शांत को रस
में नहीं गिना जाता। भरत मुनि ने रसों की संख्या 8 माना है।
No.-3. भरत मुनि ने केवल 8
रसों की चर्चा की है, पर आचार्य अभिन्नगुप्त (950-1020
ई०) ने 'नवमोऽपि शान्तो रसः कहकर 9
रसों को काव्य में स्वीकार किया है।
No.-4. श्रृंगार रस के व्यापक दायरे में वत्सल रस व
भक्ति रस आ जाते हैं इसलिए रसों की संख्या 9 ही मानना ज्यादा उपयुक्त है।
रस संबंधी विविध तथ्य
भरत मुनि के कुछ प्रमुख सूत्र
No.-2. 'नाना भावोपगमाद् रस निष्पतिः। नाना भावोपहिता
अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्ति।'- नाना (अनेक) भावों के उपागम (निकट आने/ मिलने)
से रस की निष्पत्ति होती है। नाना (अनेक) भावों से युक्त स्थायी भाव रसावस्था को
प्राप्त होते हैं।
No.-3. 'विभावानुभाव व्यभिचारि परिवृतः स्थायी भावो रस
नाम लभते नरेन्द्रवत्' ।- विभाव,
अनुभाव, व्यभिचारी से घिरे रहने वाले स्थायी
भाव की स्थिति राजा के समान हैं। दूसरे शब्दों में, विभाव, अनुभाव व व्यभिचारी (संचारी) भाव को
परिधीय स्थिति और स्थायी भाव को केन्द्रीय स्थिति प्राप्त है।
No.-4. रस-संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य, मम्मट
(11
वी० सदी) ने काव्यानंद को 'ब्रह्मानंद सहोदर' (ब्रह्मानंद-
योगी द्वारा अनुभूत आनंद) कहा है। वस्तुतः रस के संबंध में ब्रह्मानंद की कल्पना
का मूल स्रोत तैत्तरीय उपनिषद है जिसमें कहा गया है 'रसो
वै सः'- आनंद ही ब्रह्म है।
No.-5.रस-संप्रदाय के एक अन्य आचार्य, आचार्य
विश्वनाथ (14 वी० सदी) ने रस को काव्य की कसौटी माना है।
उनका कथन है 'वाक्य रसात्मकं काव्यम्'- रसात्मक
वाक्य ही काव्य है।
No.-6. हिन्दी में रसवादी आलोचक हैं आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल डॉ० नगेन्द्र आदि। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संस्कृत के रसवादी आचार्यों की
तरह रस को अलौकिक न मानकर लौकिक माना है और उसकी लौकिक व्याख्या की है। वे रस की
स्थिति को 'ह्रदय की मुक्तावस्था' के
रूप में मानते हैं। उनके शब्द हैं : 'लोक-हृदय में व्यक्ति-हृदय के लीन होने की दशा
का नाम रस-दशा है'।
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