No.-1. वर्णो या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आहाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते है।
दूसरे शब्दो में-अक्षरों की संख्या एवं
क्रम, मात्रागणना तथा यति-गति से सम्बद्ध विशिष्ट
नियमों से नियोजित पद्यरचना 'छन्द' कहलाती है।
महर्षि पाणिनी के अनुसार जो आह्मादित
करे, प्रसन्न करे, वह छंद है (चन्दति हष्यति येन दीप्यते
वा तच्छन्द) ।
उनके विचार से छंद 'चदि' धातु
से निकला है। यास्क ने निरुक्त में 'छन्द' की व्युत्पत्ति 'छदि' धातु से मानी है जिसका अर्थ है 'संवरण
या आच्छादन' (छन्दांसि छादनात्) ।
इन दोनों अतिप्राचीन परिभाषाओं से
स्पष्ट हो जाता है कि छंदोबद्ध रचना केवल आह्यादकारिणी ही नहीं होती, वरन्
वह चिरस्थायिनी भी होती है। जो रचना छंद में बँधी नहीं है उसे हम याद नहीं रख पाते
और जिसे याद नहीं रख पाते, उसका नष्ट हो जाना स्वाभाविक ही है। इन परिभाषाओं
के अतिरिक्त सुगमता के लिए यह समझ लेना चाहिए कि जो पदरचना अक्षर, अक्षरों
की गणना, क्रम, मात्रा,
मात्रा की गणना, यति-गति
आदि नियमों से नियोजित हो, वह छंदोबद्ध कहलाती है।
छंद शब्द 'छद्' धातु
से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना।' 'छंद
का दूसरा नाम पिंगल भी है। इसका कारण यह है कि छंद-शास्त्र के आदि प्रणेता पिंगल
नाम के ऋषि थे।
'छन्द' की प्रथम चर्चा ऋग्वेद में हुई है। यदि गद्य का
नियामक व्याकरण है, तो कविता का छन्दशास्त्र। छन्द पद्य की रचना का
मानक है और इसी के अनुसार पद्य की सृष्टि होती है। पद्यरचना का समुचित ज्ञान 'छन्दशास्त्र' का
अध्ययन किये बिना नहीं होता। छन्द हृदय की सौन्दर्यभावना जागरित करते है।
छन्दोबद्ध कथन में एक विचित्र प्रकार का आह्राद रहता है, जो
आप ही जगता है। तुक छन्द का प्राण है- यही हमारी आनन्द-भावना को प्रेरित करती है।
गद्य में शुष्कता रहती है और छन्द में भाव की तरलता। यही कारण है कि गद्य की
अपेक्षा छन्दोबद्ध पद्य हमें अधिक भाता है।
छन्द के अंगछन्द के निम्नलिखित अंग है-
No.-1.चरण /पद /पाद
No.-2.वर्ण और मात्रा
No.-3. संख्या क्रम और गण
No.-4.लघु और गुरु
No.-5.गति
No.-6.यति /विराम
No.-7.तुक
छंद के प्रायः 4
भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- छंद के चतुर्थाश
(चतुर्थ भाग) को चरण कहते हैं।
कुछ छंदों में चरण तो चार होते है
लेकिन वे लिखे दो ही पंक्तियों में जाते हैं,
जैसे- दोहा, सोरठा
आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक को 'दल' कहते हैं।
हिन्दी में कुछ छंद छः-छः पंक्तियों
(दलों) में लिखे जाते हैं। ऐसे छंद दो छंदों के योग से बनते है, जैसे
कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय (रोला +उल्लाला) आदि।
चरण 2 प्रकार के होते है- सम चरण और विषम
चरण।
प्रथम व तृतीय चरण को विषम चरण तथा
द्वितीय व चतुर्थ चरण को सम चरण कहते हैं।
No.-2. वर्ण और मात्रा
वर्ण/अक्षर
जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे
हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर- कृष्ण का 'ष्') उसे
वर्ण नहीं माना जाता।
वर्ण को ही अक्षर कहते हैं। 'वर्णिक
छंद' में चाहे हस्व वर्ण हो या दीर्घ- वह एक ही वर्ण
माना जाता है; जैसे- राम,
रामा, रम,
रमा इन चारों शब्दों में दो-दो ही वर्ण
हैं।
वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-
No.-1. हस्व स्वर वाले वर्ण (हस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ; क, कि, कु, कृ
No.-2. दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण) : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ
मात्रा
किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को
मात्रा कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- किसी वर्ण के
उच्चारण में जो अवधि लगती है, उसे मात्रा कहते हैं।
हस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता
है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा
माना जाता है।
मात्रा दो प्रकार के होते है-
हस्व : अ, इ, उ, ऋ
दीर्घ : आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
वर्ण और मात्रा की गणना
दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण)- एकवर्णिक-
आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ; का, की, कू, के, कै, को, कौ
मात्रा की गणना
हस्व स्वर- एकमात्रिक- अ, इ, उ, ऋ
दीर्घ स्वर- द्विमात्रिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
वर्णो और मात्राओं की गिनती में स्थूल
भेद यही है कि वर्ण 'सस्वर अक्षर' को और मात्रा 'सिर्फ
स्वर' को कहते है।
वर्ण और मात्रा में अंतर- वर्ण में
हस्व और दीर्घ रहने पर वर्ण-गणना में कोई अंतर नहीं पड़ता है, किंतु
मात्रा-गणना में हस्व-दीर्घ से बहुत अंतर पड़ जाता है। उदाहरण के लिए, 'भरत' और 'भारती' शब्द
कोलें। दोनों में तीन वर्ण हैं, किन्तु पहले में तीन मात्राएँ और दूसरे में
पाँच मात्राएँ हैं।
No.-3. संख्या क्रम और गण
वर्णो और मात्राओं की सामान्य गणना को
संख्या कहते हैं, किन्तु कहाँ लघुवर्ण हों और कहाँ गुरुवर्ण हों-
इसके नियोजन को क्रम कहते है।
छंद-शास्त्र में तीन मात्रिक वर्णो के
समुदाय को गण कहते है।
वर्णिक छंद में न केवल वर्णों की
संख्या नियत रहती है वरन वर्णो का लघु-गुरु-क्रम भी नियत रहता है।
मात्राओं और वर्णों की 'संख्या' और 'क्रम' की
सुविधा के लिए तीन वर्णों का एक-एक गण मान लिया गया है। इन गणों के अनुसार
मात्राओं का क्रम वार्णिक वृतों या छन्दों में होता है, अतः
इन्हें 'वार्णिक गण'
भी कहते है। इन गणों की संख्या आठ है।
इनके ही उलटफेर से छन्दों की रचना होती है। इन गणों के नाम, लक्षण, चिह्न
और उदाहरण इस प्रकार है-
गण |
वर्ण क्रम |
चिह्न |
उदाहरण |
प्रभाव |
यगण |
आदि लघु, मध्य गुरु, अन्त गुरु |
।ऽऽ |
बहाना |
शुभ |
मगन |
आदि, मध्य, अन्त गुरु |
ऽऽ |
आजादी |
शुभ |
तगण |
आदि गुरु, मध्य गुरु, अन्त लघु |
ऽऽ। |
बाजार |
अशुभ |
रगण |
आदि गुरु, मध्य लघु, अन्त गुरु |
ऽ।ऽ |
नीरजा |
अशुभ |
जगण |
आदि लघु, मध्य गुरु, अन्त लघु |
।ऽ। |
प्रभाव |
अशुभ |
भगण |
आदि गुरु, मध्य लघु, अन्त लघु |
ऽ।। |
नीरद |
शुभ |
नगण |
आदि, मध्य, अन्त लघु |
।।। |
कमल |
शुभ |
सगन |
आदि लघु, मध्य लघु, अन्त गुरु |
।।ऽ |
वसुधा |
अशुभ |
काव्य या छन्द के आदि में 'अगण' अर्थात 'अशुभ गण' नहीं पड़ना चाहिए। शायद उच्चारण कठिन अर्थात उच्चारण या लय में दग्ध होने के कारण ही कुछ गुणों को 'अशुभ' कहा गया है। गणों को सुविधापूर्वक याद रखने के लिए एक सूत्र बना लिया गया है- यमाताराजभानसलगा: । इस सूत्र में प्रथम आठ वर्णों में आठ गणों के नाम आ गये है। अन्तिम दो वर्ण 'ल' और 'ग' छन्दशास्त्र में 'दशाक्षर' कहलाते हैं। जिस गण का स्वरूप जानना हो, उस गण के आद्यक्षर और उससे आगे दो अक्षरों को इस सूत्र से ले लेना होता है। जैसे- 'तगण' का स्वरूप जानना हो तो इस सूत्र का 'ता' और उससे आगे के दो अक्षर 'रा ज'='ताराज', ( ऽऽ।) लेकर 'तगण' का लघु-गुरु जाना जा सकता है कि 'तगण' में गुरु+गुरु+लघु, इस क्रम से तीन वर्ण होते है। यहाँ यह स्मरणीय है कि 'गण' का विचार केवल वर्णवृत्त में होता है, मात्रिक छन्द इस बन्धन से मुक्त है।
लघु-
No.-1. अ, इ, उ- इन हस्व स्वरों तथा इनसे युक्त एक व्यंजन या
संयुक्त व्यंजन को 'लघु' समझा जाता है। जैसे- कलम; इसमें
तीनों वर्ण लघु हैं। इस शब्द का मात्राचिह्न हुआ- ।।।।
No.-2. चन्द्रबिन्दुवाले हस्व स्वर भी लघु होते हैं।
जैसे- 'हँ' ।
गुरु-
No.-1. आ, ई, ऊ और ऋ इत्यादि दीर्घ स्वर और इनसे युक्त
व्यंजन गुरु होते है। जैसे- राजा, दीदी, दादी इत्यादि। इन तीनों शब्दों का मात्राचिह्न
हुआ- ऽऽ।
No.-2. ए, ऐ, ओ, औ- ये संयुक्त स्वर और इनसे मिले व्यंजन भी
गुरु होते हैं। जैसे- ऐसा ओला, औरत, नौका इत्यादि।
No.-3. अनुस्वारयुक्त वर्ण गुरु होता है। जैसे- संसार।
लेकिन, चन्द्रबिन्दुवाले वर्ण गुरु नहीं होते।
No.-4. विसर्गयुक्त वर्ण भी गुरु होता है। जैसे- स्वतः, दुःख; अर्थात-
।ऽ, ऽ ।।
No.-5. संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण गुरु होता
है। जैसे- सत्य, भक्त, दुष्ट, धर्म इत्यादि, अर्थात- ऽ।।
No.-5. गति
छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति
कहते हैं।
वर्णवृत्तों में इसकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु
मात्रिक वृतों में इसकी आवश्यकता पड़ती है। 'जब सकोप लखन वचन बोले' में
९६ मात्राएँ हैं, लेकिन इसे हम चौपाई का एक चरण नहीं मान सकते, क्योंकि
इसमें गति नहीं है। गति ठीक करने के लिए इसे 'लखन सकोप वचन जब बोले' करना
पड़ेगा।
गति का महत्व वर्णिक छंदों की अपेक्षा
मात्रिक छंदों में अधिक है। बात यह है कि वर्णिक छंदों में तो लघु-गुरु का स्थान
निश्चित रहता है किन्तु मात्रिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित नहीं रहता, पूरे
चरण की मात्राओं का निर्देश मात्र रहता है।
मात्राओं की संख्या ठीक रहने पर भी चरण
की गति (प्रवाह) में बाधा पड़ सकती है।
No.-1. दिवस
का अवसान था समीप में गति नहीं है जबकि 'दिवस का अवसान समीप था' में
गति है।
No.-2. चौपाई, अरिल्ल व पद्धरि- इन तीनों छंदों के प्रत्येक
चरण में 16 मात्राएं होती है पर गति भेद से ये छंद परस्पर
भिन्न हो जाते हैं।
गति का परिज्ञान भाषा की प्रकृति, नाद
के परिज्ञान एवं अभ्यास पर निर्भर करता है।
छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस
लेने के लिए रूकना पड़ता है, इसी रूकने के स्थान को यति या विराम कहते है।
छन्दशास्त्र में 'यति' का
अर्थ विराम या विश्राम ।
छोटे छंदों में साधारणतः यति चरण के
अन्त में होती है; पर बड़े छंदों में एक ही चरण में एक से अधिक यति
या विराम होते है।
बड़े छंदों के एक-एक चरण में इतने अधिक
वर्ण होते हैं कि लय को ठीक करने तथा उच्चारण की स्पष्टता के लिए कहीं-कहीं रुकना
आवश्यक हो जाता है। जैसे- 'देवघनाक्षरी' छंद के प्रत्येक चरण में ३३ वर्ण होते
हैं और इसमें ८, ८, ८, ९ पर यति होती है। अर्थात आठ, आठ, आठ
वर्णों के पश्र्चात तीन बार थोड़ा रुककर उच्चारण करना पड़ता है।
छंद के चरणों के अंत में समान
स्वरयुक्त वर्ण स्थापना को 'तुक' कहते हैं।
जैसे- आई, जाई, चक्र-वक्र
आदि से चरण समाप्त करने पर कहा जाता है कि कविता तुकांत है।
जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त
छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं।
अतुकान्त छंद को अँग्रेजी में ब्लैंक वर्स (Blank Verse) कहते हैं।
छन्द के भेदवर्ण और मात्रा के विचार से छन्द के
चार भेद है-
No.-1. वर्णिक छन्द
No.-2. वर्णिक वृत्त
No.-3. मात्रिक छन्द
No.-4. मुक्तछन्द
पदरचना होती है, उन्हें
'वर्णिक
छंद' कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- केवल वर्णगणना के
आधार पर रचा गया छन्द 'वार्णिक छन्द' कहलाता है।
सरल शब्दों में- जिस छंद के सभी चरणों
में वर्णो की संख्या समान हो। उन्हें 'वर्णिक छंद'
कहते हैं।
वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णो की
संख्या समान रहती है और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है।
'वृतों' की तरह इसमें लघु-गुरु का क्रम निश्र्चित नहीं
होता, केवल वर्णसंख्या ही निर्धारित रहती है और इसमें
चार चरणों का होना भी अनिवार्य नहीं।
वार्णिक छन्द के भेद वार्णिक छन्द के दो भेद है-
No.-1.
साधारण और
No.-2.
दण्डक
१ से २६ वर्ण तक के चरण या पाद
रखनेवाले वार्णिक छन्द 'साधारण'
होते है और इससे अधिकवाले दण्डक।
दण्डक वार्णिक छन्द 'घनाक्षरी' का
उदाहरण-
किसको पुकारे यहाँ रोकर अरण्य बीच ।
-१६ वर्ण
चाहे जो करो शरण्य शरण तिहारे हैं।। -
१५वर्ण
झिल्ली झनकारै पिक -८ वर्ण
चातक पुकारैं बन -८ वर्ण
मोरिन गुहारैं उठै -८ वर्ण
जुगनु चमकि चमकि -८ वर्ण
कुल- ३३ वर्ण
'रूपघनाक्षरी' का उदाहरण
ब्रज की कुमारिका वे -८ वर्ण
लीनें सक सारिका ब -८ वर्ण
ढावैं कोक करिकानी -८ वर्ण
केसव सब निबाहि -८ वर्ण
कुल- ३२ वर्ण
साधारण वार्णिक छन्द (२६ वर्ण तक का
छन्द) में 'अमिताक्षर'
छन्द को उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है।
अमिताक्षर वस्तुतः घनाक्षरी के एक चरण के उत्तरांश से निर्मित छन्द है, अतः
इसमें ९५ वर्ण होते है और ८ वें तथा ७ वें वर्ण पर यति होती है। जैसे-
चाहे जो करो शरण्य -८ वर्ण
शरण तिहारे है -७ वर्ण
कुल-९५ वर्ण
वर्णिक छंद का एक उदाहरण : मालिनी (15
वर्ण)
परिभाषा-
न..........न...........म...........य...........य
..... मिले तो मालिनी होवे
।...........।...........
।...........।........... ।
नगन......नगन......मगन.....यगण........यगण
।।।.......।।।..........ऽऽऽ.......।ऽऽ.......।ऽऽ
3........3............3............3.........3
=15 वर्ण
प्रथम चरण- प्रिय पति वह मेरा प्राण
प्यारा कहाँ है ?
द्वितीय चरण- दुःख-जलनिधि-डूबी का
सहारा कहाँ है ?
तृतीय चरण- लख मुख जिसका मैं आज लौं जी
सकी हूँ,
चतुर्थ चरण- वह हृदय हमारा नैन-तारा
कहाँ है ? (हरिऔध)
1.....2.....3.....4.....5......6......7......8.......9........10.....11........12......13.....14.....15
(प्रि).(य).(प)...(ति)...(व)...(ह)....(में)...(रा)...(प्रा).....(ण).....(प्या).....(रा).....(क).....(हाँ).....(है)
......नगन.................नगन..............
मगन........................यगण........................यगण
ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।।
या लकुटी अरु कामरि या पर
भगण भगण भगण गग
ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽऽ
राज तिहूँ पुर को तजि डारौं : - कुल ७
भगण +२ गुरु=२३ वर्ण
'द्रुतविलम्बित' और 'मालिनी' आदि गणबद्ध छन्द 'वार्णिक
वृत्त' है।
दूसरे शब्दों में- मात्रा की गणना पर
आधृत छन्द 'मात्रिक छन्द' कहलाता है।
मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं
की संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
इसमें वार्णिक छन्द के विपरीत, वर्णों
की संख्या भित्र हो सकती है और वार्णिक वृत्त के अनुसार यह गणबद्ध भी नहीं है, बल्कि
यह गणपद्धति या वर्णसंख्या को छोड़कर केवल चरण की कुल मात्रासंख्या के आधार ही पर
नियमित है। 'दोहा' और 'चौपाई' आदि छन्द 'मात्रिक छन्द' में गिने जाते है। 'दोहा' के
प्रथम-तृतीय चरण में ९३ मात्राएँ और द्वितीय-चतुर्थ में ९९ मात्राएँ होती है।
जैसे-
द्वितीय चरण- निज मन मुकुर सुधार- ११
मात्राएँ
तृतीय चरण- बरनौं रघुबर विमल जस- १३
मात्राएँ
चतुर्थ चरण- जो दायक फल चार- ११
मात्राएँ
प्रमुख मात्रिक छंद
No.-1. सम मात्रिक छंद : अहीर (11
मात्रा), तोमर (12 मात्रा),
मानव (14 मात्रा); अरिल्ल, पद्धरि/पद्धटिका, चौपाई
(सभी 16 मात्रा);
पीयूषवर्ष, सुमेरु
(दोनों 19 मात्रा),
राधिका (22
मात्रा), रोला, दिक्पाल,
रूपमाला (सभी 24
मात्रा), गीतिका (26 मात्रा),
सरसी (27 मात्रा), सार
(28
मात्रा), हरिगीतिका (28 मात्रा), ताटंक
(30
मात्रा), वीर या आल्हा (31 मात्रा) ।
No.-2. अर्द्धसम मात्रिक छंद : बरवै (विषम चरण में- 12
मात्रा, सम चरण में- 7 मात्रा), दोहा
(विषम- 13, सम- 11),
सोरठा (दोहा का उल्टा), उल्लाला
(विषम-15, सम-13)।
No.-3. विषम मात्रिक छंद : कुण्डलिया (दोहा +रोला), छप्पय
(रोला +उल्लाला)।
No.-4. मुक्तछन्द-जिस समय छंद में वर्णिक या मात्रिक
प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णो की संख्या और क्रम
समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर
पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह
मुक्त छंद है।
उदाहरण- निराला की कविता 'जूही
की कली' इत्यादि।
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